शिक्षा व्यक्तित्व के विकास की प्रक्रिया है। बच्चा जब जन्म लेता है, तब वह अबोध एवं शिक्षा ग्रहण करने की क्षमता से युक्त प्राणी होता है। शिक्षा ग्रहण शीलता की दृष्टि से मानव शिशु अन्य प्राणियों के शिशुओं से श्रेष्ठ है।
प्राचीन काल से ही भारत में माता को आदि गुरू माना गया है। माताएं बच्चों को जीवन की शिक्षा घर पर दे दिया करती थी और उसके पश्चात ही बच्चों को गुरूकुल में भेजा जाता था। गुरूकुल पहुंचने पर बालक आचार्य को प्रणाम करके जब कहता था- ''अथातो ब्रहम जिज्ञासा, अथातो धर्म जिज्ञासा'' तब गुरू सबसे पहले यह परीक्षा करता था कि बालक को माता के द्वारा कौन से संस्कार प्राप्त हुए हैं? इससे स्पष्ट होता है कि आचार्य माता की भूमिका को महत्व देते थे।
हिन्दू धर्म ग्रन्थ रामायण, महाभारत आदि में माता की शिक्षा के महत्व का गुणगान किया गया है। राम, लक्ष्मण, भरत अदि में प्रेम, त्याग, सहन शीलता तथा बंधुत्व की भावनाओं की शिक्षा उनकी माताओं ने दी थी। दुष्यन्त पुत्र भरत, जिसके नाम पर हिन्दुस्तान का नाम भारतवर्ष कहा जाता है, को वीरता की शिक्षा उसकी माता शकुन्तला ने कण्व के आश्रम में स्वयं दी थी। छत्रपति शिवाजी ने स्वीकार किया था कि उनमे अनेक गुणों की प्रचुरता उनकी माता जीजाबाई की शिक्षा से आई थी।
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बालक के शारीरिक विकास की व्यवस्था का प्रथम दायित्व माता पर है। बालक अपनी मां से चलना, बोलना, मैं और तुम में अन्तर करना और अपने चारो ओर की वस्तुओं के सरलतम गुणों को सीखता है। दूसरा शैक्षणिक कार्य बालक के नैतिक एवं सामाजिक प्रशिक्षण का है। बालक नैतिक एवं सामाजिक नियमों को माता से ही सीखता है। व्यवहार, परम्परायें, अच्छे और बुरे का भाव सबसे पहले मां ही देती है। मां का तीसरा शैक्षणिक कार्य बालक में अनुकूलन की क्षमता का धीरे-धीरे विकास होता है। शिक्षा दर्शन की दृष्टि माता की भूमिका शिक्षा में निर्विवाद है। प्रक तिवादियों एवं यथार्थवादियों की दृष्टी श्री से माता एक शारीरक सत्ता है और बालक जीव वैज्ञानिक रूप से उसका एक अंग है। उसमें माता पिता के गुणों का स्वतः अनुक्रमण हो जाता है। आदर्शवादियों की दृष्टि से मां कोई शारीरिक सत्ता नहीं है।
देह धारण करते हुए भी वह एक मनोमय और आध्यात्मिक सत्ता है। बालक को वह सदा प्रेरणा ही देती रहती है। आदर्शवादियों की दृष्टि से माता कभी कुमाता नहीं होती है, पुत्र चाहे कुपुत्र हो जाए। आदर्शवाद की कल्पना है कि माता शब्द का उच्चारण करते ही बालक भौतिक जगत से ऊपर उठ कर भावनामय एवं मनोमय जगत में प्रवेश कर जाता है। - साप्ताहिक आर्य सन्देश
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