विशेष सूचना - Arya Samaj, Arya Samaj Mandir तथा Arya Samaj Marriage और इससे मिलते-जुलते नामों से Internet पर अनेक फर्जी वेबसाईट एवं गुमराह करने वाले आकर्षक विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। अत: जनहित में सूचना दी जाती है कि इनसे आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार व्यवस्था अथवा अन्य किसी भी प्रकार का व्यवहार करते समय यह पूरी तरह सुनिश्चित कर लें कि इनके द्वारा किया जा रहा कार्य पूरी तरह वैधानिक है अथवा नहीं। "आर्यसमाज संस्कार केन्द्र इन्द्रप्रस्थ कॉलोनी रायपुर" अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट द्वारा संचालित रायपुर में एकमात्र केन्द्र है। भारतीय पब्लिक ट्रस्ट एक्ट (Indian Public Trust Act) के अन्तर्गत पंजीकृत अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट एक शैक्षणिक-सामाजिक-धार्मिक-पारमार्थिक ट्रस्ट है। आर्यसमाज संस्कार केन्द्र इन्द्रप्रस्थ कॉलोनी के अतिरिक्त रायपुर में अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट की अन्य कोई शाखा या आर्यसमाज मन्दिर नहीं है। Arya Samaj Sanskar Kendra Indraprastha Colony Raipur is run under aegis of Akhil Bharat Arya Samaj Trust. Akhil Bharat Arya Samaj Trust is an Eduactional, Social, Religious and Charitable Trust Registered under Indian Public Trust Act. Arya Samaj Sanskar Kendra Indraprastha Colony Raipur is the only controlled by Akhil Bharat Arya Samaj Trust in Chhattisgarh. We do not have any other branch or Centre in Raipur. Kindly ensure that you are solemnising your marriage with a registered organisation and do not get mislead by large Buildings or Hall.
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एकादश समुल्लास भाग -1

अनुभूमिका (१)

यह सिद्ध बात है कि पांच सहस्र वर्षों के पूर्व वेदमत से भिन्न दूसरा कोई भी मत न था क्योंकि वेदोक्त सब बातें विद्या से अविरुद्ध हैं। वेदों की अप्रवृत्ति होने का कारण महाभारत युद्ध हुआ । इन की अप्रवृत्ति से अविद्याऽन्धकार के भूगोल में विस्तृत होने से मनुष्यों की बुद्धि भ्रमयुक्त होकर जिस के मन में जैसा आया वैसा मत चलाया । उन सब मतों में ४ चार मत अर्थात् जो वेद-विरुद्ध पुराणी, जैनी, किरानी और कुरानी सब मतों के मूल हैं वे क्रम से एक के पीछे दूसरा तीसरा चौथा चला है । अब इन चारों की शाखा एक सहस्र से कम नहीं हैं । इन सब मतवादियों, इन के चेलों और अन्य सब को परस्पर सत्याऽसत्य के विचार करने में अधिक परिश्रम न हो इसलिए यह ग्रन्थ बनाया है । जो-जो इस में सत्य मत का मण्डन और असत्य मत का खण्डन लिखा है वह सब को जनाना ही प्रयोजन समझा गया है । इस में जैसी मेरी बुद्धि, जितनी विद्या और जितना इन चारों मतों के मूल ग्रन्थ देखने से बोध हुआ है उस को सब के आगे निवेदित कर देना मैंने उत्तम समझा है क्योंकि विज्ञान गुप्त हुए का पुनर्मिलना सहज नहीं है । पक्षपात छोड़कर इस को देखने से सत्याऽसत्य मत सब को विदित हो जायेगा । पश्चात् सब को अपनी-अपनी समझ के अनुसार सत्यमत का ग्रहण करना और असत्य मत को छोड़ना सहज होगा । इन में से जो पुराणादि ग्रन्थों से शाखा शाखान्तर रूप मत आर्य्यावर्त्त देश में चले हैं उन का संक्षेप से गुण दोष इस ११वें समुल्लास में दिखलाया जाता है । इस मेरे कर्म से यदि उपकार न मानें तो विरोध भी न करें । क्योंकि मेरा तात्पर्य्य किसी की हानि वा विरोध करने में नहीं किन्तु सत्याऽसत्य का निर्णय करने कराने का है। इसी प्रकार सब मनुष्यों को न्यायदृष्टि से वर्तना अति उचित है । मनुष्यजन्म का होना सत्याऽसत्य का निर्णय करने कराने के लिये है; न कि वादविवाद विरोध करने कराने के लिये। इसी मतामतान्तर के विवाद से जगत् में जो-जो अनिष्ट फल हुए, होते हैं और आगे होंगे उन को पक्षपातरहित विद्वज्जन जान सकते हैं। जब तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मतमतान्तर का विरुद्ध वाद न छूटेगा तब तक अन्योऽन्य को आनन्द न होगा। 

यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वज्जन ईर्ष्या द्वेष छोड़ सत्याऽसत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना कराना चाहैं तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है। यह निश्चय है कि इन विद्वानों के विरोध ही ने सब को विरोध-जाल में फंसा रखा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन में न फंस कर सब के प्रयोजन को सिद्ध करना चाहैं तो अभी ऐक्यमत हो जायें । इस के होने की युक्ति इस की पूर्ति में लिखेंगे । सर्वशक्तिमान् परमात्मा एक मत में प्रवृत्त होने का उत्साह सब मनुष्यों के आत्माओं में प्रकाशित करे।

अलमतिविस्तरेण विपश्चिद्वरशिरोमणिषु ।
उत्तरार्द्धः अथैकादशसमुल्लासारम्भः
अथाऽऽर्य्यावर्त्तीयमतखण्डनमण्डने विधास्यामः

अब आर्य्य लोगों के कि जो आर्य्यावर्त्त देश में वसने वाले हैं उन के मत का खण्डन तथा मण्डन का विधान करेंगे। यह आर्य्यावर्त्त देश ऐसा देश है जिसके सदृश भूगोल में दूसरा कोई देश नहीं है। इसीलिये इस भूमि का नाम सुवर्णभूमि है क्योंकि यही सुवर्णादि रत्नों को उत्पन्न करती है। इसीलिये सृष्टि की आदि में आर्य्य लोग इसी देश में आकर बसे। इसलिए हम सृष्टिविषय में कह आये हैं कि आर्य्य नाम उत्तम पुरुषों का है और आर्य्यों से भिन्न मनुष्यों का नाम दस्यु है। जितने भूगोल में देश हैं वे सब इसी देश की प्रशंसा करते और आशा रखते हैं कि पारसमणि पत्थर सुना जाता है वह बात तो झूठी है परन्तु आर्य्यावर्त्त देश ही सच्चा पारसमणि है कि जिस को लोहेरूप दरिद्र विदेशी छूते के साथ ही सुवर्ण अर्थात् धनाढ्य हो जाते हैं ।

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशाद् अग्रजन्मन ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा ।।
मनु०।।

सृष्टि से ले के पांच सहस्र वर्षों से पूर्व समय पर्यन्त आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती अर्थात् भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था। अन्य देशों में माण्डलिक अर्थात् छोटे-छोटे राजा रहते थे क्योंकि कौरव पाण्डव पर्यन्त यहां के राज्य और राजशासन में सब भूगोल के सब राजा और प्रजा चले थे क्योंकि यह मनुस्मृति जो सृष्टि की आदि में हुई है उस का प्रमाण है । इसी आर्य्यावर्त्त देश में उत्पन्न हुए ब्राह्मण अर्थात् विद्वानों से भूगोल के मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, दस्यु, म्लेच्छ आदि सब अपने-अपने योग्य विद्या चरित्रें की शिक्षा और विद्याभ्यास करें। और महाराजा युधिष्ठिर जी के राजसूय यज्ञ और महाभारत युद्धपर्यन्त यहां के राज्याधीन सब राज्य थे ।

सुनो! चीन का भगदत्त, अमेरिका का बब्रुवाहन, यूरोपदेश का विडालाक्ष अर्थात् मार्जार के सदृश आंखवाले, यवन जिस को यूनान कह आये और ईरान का शल्य आदि सब राजा राजसूय यज्ञ और महाभारत युद्ध में सब आज्ञानुसार आये थे। जब रघुगण राजा थे तब रावण भी यहां के आधीन था। जब रामचन्द्र के समय में विरुद्ध हो गया तो उस को रामचन्द्र ने दण्ड देकर राज्य से नष्ट कर उस के भाई विभीषण को राज्य दिया था ।

स्वायम्भुव राजा से लेकर पाण्डवपर्यन्त आर्य्यों का चक्रवर्ती राज्य रहा। तत्पश्चात् आपस के विरोध से लड़ कर नष्ट हो गये क्योंकि इस परमात्मा की सृष्टि में अभिमानी, अन्यायकारी, अविद्वान् लोगों का राज्य बहुत दिन तक नहीं चलता। और यह संसार की स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि जब बहुत सा धन असंख्य प्रयोजन से अधिक होता है तब आलस्य, पुरुषार्थरहितता; ईर्ष्या, द्वेष, विषयासक्ति और प्रमाद बढ़ता है। इस से देश में विद्या सुशिक्षा नष्ट हो कर दुर्गुण और दुष्ट व्यसन बढ़ जाते हैं। जैसे कि मद्य-मांससेवन, बाल्यावस्था में विवाह और स्वेच्छाचारादि दोष बढ़ जाते हैं। और जब युद्धविभाग में युद्धविद्याकौशल और सेना इतनी बढ़े कि जिस का सामना करने वाला भूगोल में दूसरा न हो तब उन लोगों में पक्षपात अभिमान बढ़ कर अन्याय बढ़ जाता है। जब ये दोष हो जाते हैं तब आपस में विरोध हो कर अथवा उन से अधिक दूसरे छोटे कुलों में से कोई ऐसा समर्थ पुरुष खड़ा होता है कि उन का पराजय करने में समर्थ होवे। जैसे मुसलमानों की बादशाही के सामने शिवा जी, गोविन्दसिह जी ने खड़े होकर मुसलमानों के राज्य को छिन्न-भिन्न कर दिया।

अथ किमेतैर्वा परेऽन्ये महाधनुर्धराश्चक्रवर्तिन केचित् सुद्युम्न- भूरिद्युम्नेन्द्रद्युम्न कुवलयाश्वयौवनाश्ववद्श्वाश्वपति शशविन्दुहरिश्चन्द्राऽम्बरीष- ननक्तुशर्यातिययात्य नरण्याक्ष सेनादय । अथ मरुत्तभरतप्रभृतयो राजान ।। -मैत्र्युपनि०

इत्यादि प्रमाणों से सिद्ध है कि सृष्टि से लेकर महाभारतपर्यन्त चक्रवर्ती सार्वभौम राजा आर्य्यकुल में ही हुए थे। अब इनके सन्त्तानों का अभाग्योदय होने से राजभ्रष्ट होकर विदेशियों के पादाक्रान्त हो रहे हैं। जैसे यहां सुद्युम्न, भूरिद्युम्न, इन्द्रद्युम्न, कुवलयाश्व, यौवनाश्व, वद्ध्र्यश्व, अश्वपति, शशविन्दु, हरिश्चन्द्र, अम्बरीष, ननक्तु, शर्याति, ययाति, अनरण्य, अक्षसेन, मरुत्त और भरत सार्वभौम सब भूमि में प्रसिद्ध चक्रवर्ती राजाओं के नाम लिखे हैं वैसे स्वायम्भुवादि चक्रवर्ती राजाओं के नाम स्पष्ट मनुस्मृति, महाभारतादि ग्रन्थों में लिखे हैं। इस को मिथ्या करना अज्ञानी और पक्षपातियों का काम है।

(प्रश्न) जो आग्नेयास्त्र आदि विद्या लिखी हैं वे सत्य हैं वा नहीं? और तोप तथा बन्दूक तो उस समय में थीं वा नहीं?

(उत्तर) यह बात सच्ची है। ये शस्त्र भी थे, क्योंकि पदार्थविद्या से इन सब बातों का सम्भव है।

(प्रश्न) क्या ये देवताओं के मन्त्रें से सिद्ध होते थे?

(उत्तर) नहीं। ये सब बातें जिन से अस्त्र शस्त्रें को सिद्ध करते थे वे ‘मन्त्र’ अर्थात् विचार से सिद्ध करते और चलाते थे। और जो मन्त्र अर्थात् शब्दमय होता है उस से कोई द्रव्य उत्पन्न नहीं होता। और जो कोई कहे कि मन्त्र से अग्नि उत्पन्न होता है तो वह मन्त्र के जप करने वाले के हृदय और जिह्वा को भस्म कर देवे। मारने जाय शत्रु को और मर रहे आप। इसलिये मन्त्र नाम है विचार का जैसा ‘राजमन्त्री’ अर्थात् राजकर्मों का विचार करने वाला कहाता है, वैसा मन्त्र अर्थात् विचार से सब सृष्टि के पदार्थों का प्रथम ज्ञान और पश्चात् क्रिया करने से अनेक प्रकार के पदार्थ और क्रियाकौशल उत्पन्न होते हैं। जैसे कोई एक लोहे का बाण वा गोला बनाकर उस में ऐसे पदार्थ रक्खे कि जो अग्नि के लगाने से वायु में धुआं फैलने और सूर्य की किरण वा वायु के स्पर्श होने से अग्नि जल उठे इसी का नाम ‘आग्नेयास्त्र’ है। जब दूसरा इस का निवारण करना चाहै तो उसी पर ‘वारुणास्त्र छोड़ दे। अर्थात् जैसे शत्रु ने शत्रु की सेना पर आग्नेयास्त्र छोड़कर नष्ट करना चाहा वैसे ही अपनी सेना की रक्षार्थ सेनापति वारुणास्त्र से आग्नेयास्त्र का निवारण करे। वह ऐसे द्रव्यों के योग से होता है जिस का धुआं वायु के स्पर्श होते ही बद्दल होके झट वर्षने लग जावे; अग्नि को बुझा देवे। ऐसे ही ‘नागपाश’ अर्थात् जो शत्रु पर छोड़ने से उस के अंगों को जकड़ के बांध लेता है। वैसे ही एक ‘मोहनास्त्र’ अर्थात् जिस में नशे की चीज डालने से जिस के धुएं के लगने से सब शत्रु की सेना निद्रास्थ अर्थात् मूर्छित हो जाय। इसी प्रकार सब शस्त्रस्त्र होते थे। और एक तार से वा शीसे से अथवा किसी और पदार्थ से विद्युत् उत्पन्न करके शत्रुओं का नाश करते थे उसको भी ‘आग्नेयास्त्र’ तथा ‘पाशुपतास्त्र’ कहते हैं। ‘तोप’ और ‘बन्दूक’ ये नाम अन्य देशभाषा के हैं। संस्कृत और आर्य्यावर्त्तीय भाषा के नहीं किन्तु जिस को विदेशी जन तोप कहते हैं संस्कृत और भाषा में उस का नाम ‘शतघ्नी’ और जिस को बन्दूक कहते हैं उस को संस्कृत और आर्य्यभाषा में ‘भुशुण्डी’ कहते हैं। जो संस्कृत विद्या को नहीं पढ़े वे भ्रम में पड़ कर कुछ का कुछ लिखते और कुछ का कुछ बकते हैं। उस का बुद्धिमान् लोग प्रमाण नहीं कर सकते। और जितनी विद्या भूगोल में फैली है वह सब आर्य्यावर्त्त देश से मिश्र वालों, उन से यूनानी, उन से रूम और उन से यूरोप देश में, उन से अमेरिका आदि देशों में फैली है। अब तक जितना प्रचार संस्कृत विद्या का आर्य्यावर्त्त देश में है उतना किसी अन्य देश में नहीं। जो लोग कहते हैं कि-जर्मनी देश में संस्कृत विद्या का बहुत प्रचार है और जितना संस्कृत मोक्षमूलर साहब पढ़े हैं उतना कोई नहीं पढ़ा। 

यह बात कहनेमात्र है क्योंकि ‘यस्मिन्देशे द्रुमो नास्ति तत्रैरण्डोऽपि द्रुमायते।’ अर्थात् जिस देश में कोई वृक्ष नहीं होता उस देश में एरण्ड ही को बड़ा वृक्ष मान लेते हैं। वैसे ही यूरोप देश में संस्कृत विद्या का प्रचार न होने से जर्मन लोगों और मोक्षमूलर साहब ने थोड़ा सा पढ़ा वही उस देश के लिये अधिक है। परन्तु आर्य्यावर्त्त देश की ओर देखें तो उन की बहुत न्यून गणना है। क्योंकि मैंने जर्मनी देशनिवासी के एक ‘प्रिन्सिपल’ के पत्र से जाना कि जर्मनी देश में संस्कृत चिट्ठी का अर्थ करने वाले भी बहुत कम हैं। और मोक्षमूलर साहब के संस्कृत साहित्य और थोड़ी सी वेद की व्याख्या देख कर मुझ को विदित होता है कि मोक्षमूलर साहब ने इधर उधर आर्य्यावर्त्तीय लोगों की की हुई टीका देख कर कुछ-कुछ यथा तथा लिखा है। जैसा कि-

युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः । रोचन्ते रोचना दिवि ।।

इस मन्त्र का अर्थ घोड़ा किया है। इस से तो जो सायणाचार्य्य ने सूर्य्य अर्थ किया है सो अच्छा है। परन्तु इसका ठीक अर्थ परमात्मा है सो मेरी बनाई ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ में देख लीजिये। उस में इस मन्त्र का अर्थ यथार्थ किया है। इतने से जान लीजिये कि जर्मनी देश और मोक्षमूलर साहब में संस्कृत विद्या का कितना पाण्डित्य है।

यह निश्चय है कि जितनी विद्या और मत भूगोल में फैले हैं वे सब आर्य्यावर्त्त देश ही से प्रचरित हुए हैं। देखो! एक गोल्डस्टकर साहब पैरस अर्थात् फ्रांस देश निवासी अपनी ‘बायबिल इन इण्डिया’ में लिखते हैं कि सब विद्या और भलाइयों का भण्डार आर्य्यावर्त्त देश है और सब विद्या तथा मत इसी देश से फैले हैं। और परमात्मा की प्रार्थना करते हैं कि हे परमेश्वर! जैसी उन्नति आर्य्यावर्त्त देश की पूर्वकाल में थी वैसी ही हमारे देश की कीजिये; लिखते हैं उस ग्रन्थ में देख लो। तथा ‘दाराशिकोह’ बादशाह ने भी यही निश्चय किया था कि जैसी पूरी विद्या संस्कृत में है वैसी किसी भाषा में नहीं। वे ऐसा उपनिषदों के भाषान्तर में लिखते हैं कि मैंने अर्बी आदि बहुत सी भाषा पढ़ीं परन्तु मेरे मन का सन्देह छूट कर आनन्द न हुआ । जब संस्कृत देखा और सुना तब निस्सन्देह हो कर मुझ को बड़ा आनन्द हुआ है।

देखो काशी के ‘मानमन्दिर’ में शिशुमारचक्र को कि जिस की पूरी रक्षा भी नहीं रही है तो भी कितना उत्तम है जिस में अब तक भी खगोल का बहुत सा वृत्तान्त विदित होता है। जो ‘सवाई जयपुराधीश’ उस को संभाल और टूटे फूटे को बनवाया करेंगे तो बहुत अच्छा होगा । परन्तु ऐसे शिरोमणि देश को महाभारत के युद्ध ने ऐसा धक्का दिया कि अब तक भी यह अपनी पूर्व दशा में नहीं आया । 

क्योंकि जब भाई को भाई मारने लगे तो नाश होने में क्या सन्देह?

विनाशकाले विपरीतबुद्धि । -यह किसी कवि का वचन है। जब नाश होने का समय निकट आता है तब उल्टी बुद्धि होकर उल्टे काम करते हैं। कोई उन को सूधा समझावे तो उलटा मानें और उलटा समझावें उस को सूधी मानें। जब बड़े-बड़े विद्वान्, राजा, महाराजा, ऋषि, महर्षि लोग महाभारत युद्ध में बहुत से मारे गये और बहुत से मर गये तब विद्या और वेदोक्त धर्म का प्रचार नष्ट हो चला। ईर्ष्या, द्वेष, अभिमान, आपस में करने लगे। जो बलवान् हुआ वह देश को दाब कर राजा बन बैठा। वैसे ही सर्वत्र आर्यावर्त्त देश में खण्ड-बण्ड राज्य हो गया। पुनः द्वीपद्वीपान्तर के राज्य की व्यवस्था कौन करे! 

जब ब्राह्मण लोग विद्याहीन हुए तब क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के अविद्वान् होने में कथा ही क्या कहनी? जो परम्परा से वेदादि शास्त्रें का अर्थसहित पढ़ने का प्रचार था वह भी छूट गया। केवल जीविकार्थ पाठमात्र ब्राह्मण लोग पढ़ते रहे सो पाठमात्र भी क्षत्रिय आदि को न पढ़ाया। क्योंकि जब अविद्वान् हुए गुरु बन गये तब छल, कपट, अधर्म भी उन में बढ़ता चला। ब्राह्मणों ने विचारा कि अपनी जीविका का प्रबन्ध बांधना चाहिये। सम्मति करके यही निश्चय कर क्षत्रिय आदि को उपदेश करने लगे कि हम ही तुम्हारे पूज्यदेव हैं। विना हमारी सेवा किये तुम को स्वर्ग वा मुक्ति न मिलेगी। किन्तु जो तुम हमारी सेवा न करोगे तो घोर नरक में पड़ोगे। जो-जो पूर्ण विद्या वाले धार्मिकों का नाम ब्राह्मण और पूजनीय वेद और ऋषि मुनियों के शास्त्र में लिखा था उन को अपने मूर्ख, विषयी, कपटी, लम्पट, अधर्मियों पर घटा बैठे। भला वे आप्त विद्वानों के लक्षण इन मूर्खों में कब घट सकते हैं ? परन्तु जब क्षत्रियादि यजमान संस्कृत विद्या से अत्यन्त रहित हुए तब उनके सामने जो-जो गप्प मारी सो-सो विचारों ने सब मान ली। तब इन नाममात्र ब्राह्मणों की बन पड़ी। सब को अपने वचन जाल में बांध कर वशीभूत कर लिया और कहने लगे कि- ब्रह्मवाक्यं जनार्दन ।

अर्थात् जो कुछ ब्राह्मणों के मुख में से वचन निकलता है वह जानो साक्षात् भगवान् के मुख से निकला। जब क्षत्रियादि वर्ण आंख के अन्धे और गांठ के पूरे अर्थात् भीतर विद्या की आंख फूटी हुई और जिन के पास धन पुष्कल है ऐसे-ऐसे चेले मिले। फिर इन व्यर्थ ब्राह्मण नाम वालों को विषयानन्द का उपवन मिल गया। यह भी उन लोगों ने प्रसिद्ध किया कि जो कुछ पृथिवी में उत्तम पदार्थ हैं वे सब ब्राह्मणों के लिये हैं। अर्थात् जो गुण, कर्म, स्वभाव से ब्राह्मणादि वर्णव्यवस्था थी उस को नष्ट कर जन्म पर रक्खी और मृतकपर्यन्त का भी दान यजमानों से लेने लगे। जैसी अपनी इच्छा हुई वैसा करते चले। यहां तक किया कि ‘हम भूदेव हैं’ हमारी सेवा के विना देवलोक किसी को नहीं मिल सकता। इन से पूछना चाहिये कि तुम किस लोक में पधारोगे? तुम्हारे काम तो घोर नरक भोगने के हैं; कृमि, कीट, पतंगादि बनोगे। तब तो बड़े क्रोधित होकर कहते हैं-हम ‘शाप’ देंगे तो तुम्हारा नाश हो जायेगा क्योंकि लिखा है-‘ब्रह्मद्रोही विनश्यति’ कि जो ब्राह्मणों से द्रोह करता है उस का नाश हो जाता है। हां! 

यह बात तो सच्ची है कि जो पूर्ण वेद और परमात्मा को जानने वाले, धर्मात्मा सब जगत् के उपकारक पुरुषों से कोई द्वेष करेगा, वह अवश्य नष्ट होगा। परन्तु जो ब्राह्मण नहीं हों, उन का न ब्राह्मण नाम और न उन की सेवा करनी योग्य है।

(प्रश्न) तो हम कौन हैं?

(उत्तर) तुम पोप हो।

(प्रश्न) पोप किस को कहते हैं?

(उत्तर) उस की सूचना रूमन् भाषा में तो बड़ा और पिता का नाम पोप है परन्तु अब छल कपट से दूसरे को ठग कर अपना प्रयोजन साधने वाले को पोप कहते हैं।

(प्रश्न) हम तो ब्राह्मण और साधु हैं क्योंकि हमारा पिता ब्राह्मण और माता ब्राह्मणी तथा हम अमुक साधु के चेले हैं।

(उत्तर) यह सत्य है परन्तु सुनो भाई! माँ बाप ब्राह्मण होने से और किसी साधु के शिष्य होने पर ब्राह्मण वा साधु नहीं हो सकते किन्तु ब्राह्मण और साधु अपने उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव से होते हैं जो कि परोपकारी हों। सुना है कि जैसे रूम के ‘पोप’ अपने चेलों को कहते थे कि तुम अपने पाप हमारे सामने कहोगे तो हम क्षमा कर देंगे। विना हमारी सेवा और आज्ञा के कोई भी स्वर्ग में नहीं जा सकता। 

जो तुम स्वर्ग में जाना चाहो तो हमारे पास जितने रुपये जमा करोगे उतने ही की सामग्री स्वर्ग में तुम को मिलेगी। ऐसा सुन कर जब कोई आंख के अन्धे और गांठ के पूरे स्वर्ग में जाने की इच्छा करके ‘पोप जी’ को यथेष्ट रुपया देता था तब वह ‘पोप जी’ ईसा और मरियम की मूर्त्ति के सामने खड़ा होकर इस प्रकार की हुण्डी लिखकर देता था-‘हे खुदावन्द ईसामसी! अमुक मनुष्य ने तेरे नाम पर लाख रुपये स्वर्ग में आने के लिये हमारे पास जमा कर दिये हैं। जब वह स्वर्ग में आवे तब तू अपने पिता के स्वर्ग के राज्य में पच्चीस सहस्र रुपयों में बागबगीचा और मकानात, पच्चीस सहस्र में सवारी शिकारी और नौकर चाकर, पच्चीस सहस्र रुपयों में खाना पीना कपड़ा लत्ता और पच्चीस सहस्र रुपये इस के इष्ट मित्र भाई बन्धु आदि के जियाफत के वास्ते दिला देना।’ फिर उस हुण्डी के नीचे पोप जी अपनी सही करके हुण्डी उसके हाथ में देकर कह देते थे कि ‘जब तू मरे तब इस हुण्डी को कबर में अपने सिराने धर लेने के लिए अपने कुटुम्ब को कह रखना। फिर तुझे ले जाने के लिये फरिश्ते आवेंगे तब तुझे और तेरी हुण्डी को स्वर्ग में ले जा कर लिखे प्रमाणे सब चीजें तुझ को दिला देंगे।’

अब देखिये जानो स्वर्ग का ठेका पोप जी ने ही ले लिया हो। जब तक यूरोप देश में मूर्खता थी तभी तक वहां पोप जी की लीला चलती थी परन्तु अब विद्या के होने से पोप जी की झूठी लीला बहुत नहीं चलती किन्तु निर्मूल भी नहीं हुई। वैसे ही आर्य्यावर्त्त देश में भी जानो पोप जी ने लाखों अवतार लेकर लीला फैलाई हो। अर्थात् राजा और प्रजा को विद्या न पढ़ने देना, अच्छे पुरुषों का संग न होने देना, रात दिन बहकाने के सिवाय दूसरा कुछ भी काम नहीं करना है। परन्तु यह बात ध्यान में रखना कि जो-जो छलकपटादि कुत्सित व्यवहार करते हैं वे ही पोप कहाते हैं। जो कोई उन में भी धार्मिक विद्वान् परोपकारी हैं वे सच्चे ब्राह्मण और साधु हैं।

अब उन्हीं छली कपटी स्वार्थी लोगों (मनुष्यों को ठग कर अपना प्रयोजन सिद्ध करने वालों ही का ग्रहण ‘पोप’ शब्द से करना और ब्राह्मण तथा साधु नाम से उत्तम पुरुषों का स्वीकार करना योग्य है। देखो! जो कोई भी उत्तम ब्राह्मण वा साधु न होता तो वेदादि सत्यशास्त्रें के पुस्तक स्वरसहित का पठन-पाठन जैन, मुसलमान, ईसाई आदि के जाल से बचाकर आर्यों को वेदादि सत्यशास्त्रें में प्रीतियुक्त वर्णाश्रमों में रखना ऐसा कौन कर सकता? सिवाय ब्राह्मण साधुओं के! ‘विषादप्यमृतं ग्राह्यम्।’ मनु०।। विष से भी अमृत के ग्रहण करने के समान पोपलीला से बहकाने में से भी आर्य्यों का जैन आदि मतों से बचा रहना जानो विष में अमृत के समान गुण समझना चाहिये। जब यजमान विद्याहीन हुए और आप कुछ पाठ पूजा पढ़ कर अभिमान में आके सब लोगों ने परस्पर सम्मति करके राजा आदि से कहा कि ब्राह्मण और साधु अदण्ड्य हैं। देखो-‘ब्राह्मणो न हन्तव्य ’ ‘साधुर्न हन्तव्य ’ ऐसे ऐसे वचन जो कि सच्चे ब्राह्मण और सच्चे साधुओं के विषय में थे सो पोपों ने अपने पर घटा लिये। और भी झूठे-झूठे वचनयुक्त ग्रन्थ रच कर उन में ऋषि मुनियों के नाम धर के उन्हीं के नाम से सुनाते रहे। उन प्रतिष्ठित ऋषि महर्षियों के नाम से अपने पर से दण्ड की व्यवस्था उठवा दी। पुनः यथेष्टाचार करने लगे अर्थात् ऐसे करडे नियम चलाये कि उन पोपों की आज्ञा के विना सोना, उठना, बैठना, जाना, आना, खाना, पीना, आदि भी नहीं कर सकते थे। राजाओं को ऐसा निश्चय कराया कि पोप संज्ञक कहने मात्र के ब्राह्मण साधु चाहे सो करें। उन को कभी दण्ड न देना अर्थात् उन पर मन में भी दण्ड देने की इच्छा न करनी चाहिये। जब ऐसी मूर्खता हुई तब जैसी पोपों की इच्छा हुई वैसा करने कराने लगे। अर्थात् इस बिगाड़ के मूल महाभारत युद्ध से पूर्व एक सहस्र वर्ष से प्रवृत्त हुए थे। क्योंकि उस समय में ऋषि मुनि भी थे तथापि कुछ-कुछ आलस्य, प्रमाद, ईर्ष्या, द्वेष के अंकुर उगे थे वे बढ़ते-बढ़ते वृद्ध हो गये। जब सच्चा उपदेश न रहा तब आर्य्यावर्त्त में अविद्या फैलकर परस्पर लड़ने झगड़ने लगे। क्योंकि- उपदेश्योपदेष्टृत्वात् तत्सिद्धि ।। इतरथान्धपरम्परा।। -सांख्यसू०।।

अर्थात् जब उत्तम-उत्तम उपदेशक होते हैं तब अच्छे प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सिद्ध होते हैं। और जब उत्तम उपदेशक और श्रोता नहीं रहते तब अन्ध परम्परा चलती है। फिर भी जब सत्पुरुष उत्पन्न होकर सत्योपदेश करते हैं तभी अन्धपरम्परा नष्ट होकर प्रकाश की परम्परा चलती है। पुनः वे पोप लोग अपनी और अपने चरणों की पूजा कराने लगे और कहने लगे कि इसी में तुम्हारा कल्याण है। जब ये लोग इन के वश में हो गये तब प्रमाद और विषयासक्ति में निमग्न होकर गड़रिये के समान झूठे गुरु और चेले फंसे। विद्या, बल, बुद्धि, पराक्रम, शूरवीरतादि शुभगुण सब नष्ट होते चले। पश्चात् जब विषयासक्त हुए तो मांस, मद्य का सेवन गुप्त-गुप्त करने लगे। पश्चात् उन्हीं में से एक ने वाममार्ग खड़ा किया। ‘शिव उवाच’ ‘पार्वत्युवाच’ ‘भैरव उवाच’ इत्यादि नाम लिख कर उन का तन्त्र नाम धरा। उन में ऐसी-ऐसी विचित्र लीला की बातें लिखीं कि-

मद्यं मांसं च मीनं च मुद्रा मैथुनमेव च।
एते पञ्च मकारा स्युर्मोक्षदा हि युगे युगे।।१।।
प्रवृत्ते भैरवीचक्रे सर्वे वर्णा द्विजातय ।
निवृत्ते भैरवीचक्रे सर्वे वर्णा पृथक् पृथक्।।२।।
पीत्वा पीत्वा पुन पीत्वा यावत्पतति भूतले।
पुनरुत्थाय वै पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते।।३।।
मातृयोनि परित्यज्य विहरेत् सर्वयोनिषु।।४।।
वेदशास्त्रपुराणानि सामान्यगणिका इव ।
एकैव शाम्भवी मुद्रा गुप्ता कुलवधूरिव।।५।।

अर्थात् देखो इन गवर्गण्ड पोपों की लीला जो कि वेदविरुद्ध महा अधर्म के काम हैं उन्हीं को श्रेष्ठ वाममर्गियों ने माना। मद्य, मांस, मीन अर्थात् मच्छी, मुद्रा पूरी कचौरी और बड़े रोटी आदि चर्वण, योनि, पात्रधार, मुद्रा और पांचवां मैथुन अर्थात् पुरुष सब शिव और स्त्री सब पार्वती के समान मान कर-

अहं भैरवस्त्वं भैरवी ह्यावयोरस्तु संगमः ।।

चाहे कोई पुरुष वा स्त्री हो इस ऊटपटांग वचन को पढ़ के समागम करने में वे वाममार्गी दोष नहीं मानते । अर्थात् जिन नीच स्त्रियों को छूना नहीं उनको अतिपवित्र उन्होंने माना है। जैसे शास्त्रें में रजस्वला आदि स्त्रियों के स्पर्श का निषेध है उन को वाममार्गियों ने अतिपवित्र माना है। सुनो इन का श्लोक खण्ड बण्ड-

रजस्वला पुष्करं तीर्थं चाण्डाली तु स्वयं काशी । चर्मकारी प्रयाग स्याद्रजकी मथुरा मता ।। अयोध्या पुक्कसी प्रोक्ता।। इत्यादि । रजस्वला के साथ समागम करने से जानो पुष्कर का स्नान, चाण्डाली से समागम में काशी की यात्र, चमारी से समागम करने से मानो प्रयागस्नान, धोबी की स्त्री के साथ समागम करने में मथुरा यात्र और कंजरी के साथ लीला करने से मानो अयोध्या तीर्थ कर आये। मद्य का नाम धरा ‘तीर्थ’, मांस का नाम शुद्धि और ‘पुष्प’ मच्छी का नाम ‘तृतीया’ और ‘जलतुम्बिका’, मुद्रा का नाम ‘चतुर्थी’, मैथुन का नाम ‘पञ्चमी’। इसलिये ऐसे-ऐसे नाम धरे हैं कि जिस से दूसरा न समझ सके। अपने कौल, आर्द्रवीर, शाम्भव और गण आदि नाम रक्खे हैं। और जो वाममार्ग मत में नहीं हैं, उनका ‘कण्टक’ ‘विमुख’, शुष्कपशु’ आदि नाम धरे हैं। और कहते हैं कि जब भैरवीचक्र हो तब उस में ब्राह्मण से लेकर चाण्डालपर्यन्त का नाम द्विज हो जाता है । और जब भैरवीचक्र से अलग हों तब सब अपने-अपने वर्णस्थ हो जायें। भैरवीचक्र में वाममार्गी लोग भूमि वा पट्टे पर एक विन्दु त्रिकोण, चतुष्कोण, वर्त्तुलाकार बना कर उस पर मद्य का घड़ा रखके उस की पूजा करते हैं। फिर ऐसा मन्त्र पढ़ते हैं-‘ब्रह्मशापं विमोचथ’ हे मद्य! तू ब्रह्मा आदि के शाप से रहित हो। एक गुप्त स्थान में कि जहां सिवाय वाममार्गी के दूसरे को नहीं आने देते वहां स्त्री और पुरुष इकट्ठे होते हैं। वहां एक स्त्री को नंगी कर पूजते और स्त्री लोग किसी पुरुष को नंगा कर पूजती हैं। पुनः कोई किसी की स्त्री कोई अपनी वा दूसरे की कन्या, कोई किसी की वा अपनी माता, भगिनी, पुत्रवधू आदि आती हैं।

पश्चात् एक पात्र में मद्य भरके मांस और बड़े आदि एक स्थाली में धर रखते हैं। उस मद्य के प्याले को जो कि उन का आचार्य्य होता है वह हाथ में लेकर बोलता है कि-‘भैरवोऽहम्’ ‘शिवोऽहम्’ मैं भैरव वा शिव हूं कह कर पी जाता है। फिर उसी झूठे पात्र से सब पीते हैं। और जब किसी की स्त्री वा वेश्या नंगी कर अथवा किसी पुरुष को नंगा कर हाथ में तलवार दे के उस का नाम देवी और पुरुष का नाम महादेव धरते हैं। उन के उपस्थ इन्द्रिय की पूजा करते हैं तब उस देवी वा शिव को मद्य का प्याला पिला कर उसी झूठे पात्र से सब लोग एक-एक प्याला पीते हैं। फिर उसी प्रकार क्रम से पी-पी के उन्मत्त होकर चाहें कोई किसी की बहिन, कन्या वा माता क्यों न हो, जिस की जिस के साथ इच्छा हो उस के साथ कुकर्म करते हैं। कभी-कभी बहुत नशा चढ़ने से जूते, लात, मुक्कामुक्की, केशाकेशी, आपस में लड़ते हैं किसी-किसी को वहीं वमन होता है। उन में जो पहुंचा हुआ अघोरी अर्थात् सब में सिद्ध गिना जाता है; वह वमन हुई चीज को भी खा लेता है। अर्थात् इन के सबसे बडे़ सिद्ध की ये बातें हैं कि-

हालां पिबति दीक्षितस्य मन्दिरे सुप्तो निशायां गणिकागृहेषु।
विराजते कौलवचक्रवर्ती।।

जो दीक्षित अर्थात् कलार के घर में जाके बोतल पर बोतल चढ़ावे। रण्डियों के घर में जाके उन से कुकर्म करके सोवे जो इत्यादि कर्म निर्लज्ज, निःशंक होकर करे वही वाममार्गियों में सर्वोपरि मुख्य चक्रवर्ती राजा के समान माना जाता है। अर्थात् जो बड़ा कुकर्मी वही उन में बड़ा और जो अच्छे काम करे और बुरे कामों से डरे वही छोटा। क्योंकि- पाशबद्धो भवेज्जीव पाशमुक्त सदा शिव ।। ऐसा तन्त्र में कहते हैं कि जो लोकलज्जा, शास्त्रलज्जा, कुललज्जा, देशलज्जा आदि पाशों में बंधा है वह जीव और जो निर्लज्ज होकर बुरे काम करे वही सदा शिव है। उड्डीस तन्त्र आदि में एक प्रयोग लिखा है कि एक घर में चारों ओर आलय हों। उन में मद्य के बोतल भर के धर देवे। इस आलय से एक बोतल पी के दूसरे आलय पर जावे। उसमें से पी तीसरे और तीसरे में से पीके चौथे आलय में जावे। खड़ा-खड़ा तब तक मद्य पीवे कि जब तक लकड़ी के समान पृथिवी में न गिर पड़े। फिर जब नशा उतरे तब उसी प्रकार पीकर गिर पड़े। पुनः तीसरी वार इसी प्रकार पीके गिर के उठे तो उस का पुनर्जन्म न हो अर्थात् सच तो यह है कि ऐसे-ऐसे मनुष्यों का पुनः मनुष्यजन्म होना ही कठिन है किन्तु नीच योनि में पड़ कर बहुकालपर्यन्त पड़ा रहेगा।

वामियों के तन्त्र ग्रन्थों में यह नियम है कि एक माता को छोड़ के किसी स्त्री को भी न छोड़ना चाहिये अर्थात् चाहे कन्या हो वा भगिनी आदि क्यों न हो; सब के साथ संगम करना चाहिये। इन वाममर्गियों में दश महाविद्या प्रसिद्ध हैं उनमें से एक मातंगी विद्यावाला कहता है कि ‘मातरमपि न त्यजेत्’ अर्थात् माता को भी समागम किये विना न छोड़ना चाहिये। और स्त्री पुरुष के समागम समय में मन्त्र जपते हैं कि हम को सिद्धि प्राप्त हो जायें। ऐसे पागल महामूर्ख मनुष्य भी संसार में बहुत न्यून होंगे!!! जो मनुष्य झूंठ चलाना चाहता है वह सत्य की निन्दा अवश्य ही करता है। देखो! वाममार्गी क्या कहते हैं ? वेद, शास्त्र और पुराण ये सब सामान्य वेश्याओं के समान हैं और जो यह शाम्भवी वाममार्ग की मुद्रा है वह गुप्त कुल की स्त्री के तुल्य है। इसीलिये इन लोगों ने केवल वेद-विरुद्ध मत खड़ा किया है। पश्चात् इन लोगों का मत बहुत चला। तब धूर्त्तत्ता करके वेदों के नाम से भी वाममार्ग की थोड़ी-थोड़ी लीला चलाई। अर्थात्-

सौत्रमण्यां सुरां पिबेत् । प्रोक्षितं भक्षयेन्मांसम्।
वैदिकी हिसा हिसा न भवति।।
न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला।। मनु०।।

सौत्रमणि यज्ञ में मद्य पीवे। इस का अर्थ तो यह है कि सौत्रमणि यज्ञ में सोमरस अर्थात् सोमवल्ली का रस पीये। प्रोक्षित अर्थात् यज्ञ में मांस खाने में दोष नहीं ऐसी पामरपन की बातें वाममार्गियों ने चलाई हैं। उन से पूछना चाहिये कि जो वैदिकी हिसा हिसा न हो तो तुझ और तेरे कुटुम्ब को मार के होम कर डालें तो क्या चिन्ता है ? मांसभक्षण करने, मद्य पीने, परस्त्रीगमन करने आदि में दोष नहीं है; यह कहना छोकड़पन है। क्योंकि विना प्राणियों के पीड़ा दिये मांस प्राप्त नहीं होता और विना अपराध के पीड़ा देना धर्म का काम नहीं। मद्यपान का तो सर्वथा निषेध ही है क्योंकि अब तक वाममार्गियों के विना किसी ग्रन्थ में नहीं लिखा किन्तु सर्वत्र निषेध है। और विना विवाह के मैथुन में भी दोष है। इस को निर्दोष कहनेवाला सदोष है। ऐसे-ऐसे वचन भी ऋषियों के ग्रन्थ में डाल के कितने ही ऋषि मुनियों के नाम से ग्रन्थ बना कर गोमेध, अश्वमेध नाम यज्ञ भी कराने लगे थे। अर्थात् इन पशुओं को मारके होम करने से यजमान और पशु को स्वर्ग की प्राप्ति होती है; ऐसी प्रसिद्धि की। निश्चय तो यह है कि जो ब्राह्मणग्रन्थों में अश्वमेध, गोमेध, नरमेध आदि शब्द हैं उन का ठीक-ठीक अर्थ नहीं जाना है क्योंकि जो जानते तो ऐसा अनर्थ क्यों करते?
(प्रश्न) अश्वमेध, गोमेध, नरमेध आदि शब्दों का अर्थ क्या है?

(उत्तर) इन का अर्थ तो यह है कि-

राष्ट्रं वा अश्वमेध । अन्नँ्हि गौ ।
अग्निर्वा अश्व । आज्यं मेध ।। शतपथब्राह्मणे।।

घोड़े, गाय आदि पशु तथा मनुष्य मार के होम करना कहीं नहीं लिखा। केवल वाममार्गियों के ग्रन्थो में ऐसा अनर्थ लिखा है। किन्तु यह भी बात वाममार्गियों ने चलाई। और जहाँ-जहाँ लेख है वहाँ-वहाँ भी वाममार्गियों ने प्रक्षेप किया है। देखो ! राजा न्याय धर्म से प्रजा का पालन करे, विद्यादि का देनेहारा और यजमान द्वारा अग्नि में घी आदि का होम करना अश्वमेध, अन्न, इन्द्रियां, किरण, पृथिवी आदि को पवित्र रखना गोमेध; जब मनुष्य मर जाय तब उसके शरीर का विधिपूर्वक दाह करना नरमेध कहाता है।

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Do not write anywhere to kill animals, animals and horses etc. Only the scriptures of the left-wingers have written such a meaning. But this was also done by the leftists. And wherever the article is there, the leftists have also launched there. Look! The king should obey the people with justice, the home of giver etc. in the fire by the giver of knowledge and the yajaman, to keep ashwamedha, grain, senses, rays, earth etc. holy; When a person dies, then the burning of his body methodically is called Narimedha.

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