एकादश समुल्लास भाग -10
(प्रश्न) गोकुलिये गुसांइयों का मत तो बहुत अच्छा है। देखो! कैसा ऐश्वर्य भोगते हैं। क्या यह ऐश्वर्य लीला के विना ऐसा हो सकता है?
(उत्तर) यह ऐश्वर्य गृहस्थ लोगों का है। गुसांइयों का कुछ नहीं।
(प्रश्न) वाह-वाह! गुसांइयों के प्रताप से है। क्योंकि ऐसा ऐश्वर्य दूसरों को क्यों नहीं मिलता?
(उत्तर) दूसरे भी इसी प्रकार का छल प्रपंच रचें तो ऐश्वर्य मिलने में क्या सन्देह है? और जो इन से अधिक धूर्त्तता करते तो अधिक भी ऐश्वर्य्य हो सकता है।
(प्रश्न) वाह जी वाह! इस में क्या धूर्त्तता है? यह तो सब गोलोक की लीला है।
(उत्तर) गोलोक की लीला नहीं किन्तु गुसांइयों की लीला है। जो गोलोक की लीला है तो गोलोक भी ऐसा ही होगा। यह मत ‘तैलंग’ देश से चला है। क्योंकि एक तैलंगी लक्ष्मणभट्ट नामक ब्राह्मण विवाह कर किसी कारण से माता पिता और स्त्री को छोड़ काशी में जा के उस ने संन्यास ले लिया था और झूठ बोला था कि मेरा विवाह नहीं हुआ। दैवयोग से उस के माता, पिता और स्त्री ने सुना कि काशी में संन्यासी हो गया है। उसके माता-पिता और स्त्री काशी में पहुंच कर जिस ने उस को संन्यास दिया था उस से कहा कि इस को संन्यासी क्यों किया?
देखो! इस की यह युवति स्त्री है और स्त्री ने कहा कि यदि आप मेरे पति को मेरे साथ न करें तो मुझ को भी संन्यास दे दीजिये। तब तो उस को बुला के कहा कि-तू बड़ा मिथ्यावादी है। संन्यास छोड़ गृहाश्रम कर क्योंकि तूने झूठ बोल कर संन्यास लिया। उसने पुनः वैसा ही किया। संन्यास छोड़ उसके साथ हो लिया। देखो! इस मत का मूल ही झूठ कपट से जमा। जब तैलंग देश में गये उसको जाति में किसी ने न लिया। तब वहां से निकल कर घूमने लगे। ‘चरणार्गढ़’ जो काशी के पास है उस के समीप ‘चम्पारण्य’ नामक जंगल में चले जाते थे। वहां कोई एक लड़के को जंगल में छोड़ चारों ओर दूर-दूर आगी जला कर चला गया था। क्योंकि छोड़ने वाले ने यह समझा था जो आगी न जलाऊंगा तो अभी कोई जीव मार डालेगा। लक्ष्मणभट्ट और उस की स्त्री ने लड़के को लेकर अपना पुत्र बना लिया। फिर काशी में जा रहे। जब वह लड़का बड़ा हुआ तब उस के मां, बाप का शरीर छूट गया। काशी में बाल्यावस्था से युवावस्था तक कुछ पढ़ता भी रहा, फिर और कहीं जा के एक विष्णुस्वामी के मन्दिर में चेला हो गया। वहां से कभी कुछ खटपट होने से काशी को फिर चला गया और संन्यास ले लिया। फिर कोई वैसा ही जातिबहिष्कृत ब्राह्मण काशी में रहता था। उसकी लड़की युवति थी। उस ने इस से कहा कि तू संन्यास छोड़ मेरी लड़की से विवाह कर ले। वैसा ही हुआ। जिस के बाप ने जैसी लीला की थी वैसी पुत्र क्यों न करे? उस स्त्री को लेके वहीं चला गया कि जहां प्रथम विष्णुस्वामी के मन्दिर में चेला हुआ था। विवाह करने से उन को वहां से निकाल दिया। फिर ब्रज देश में कि जहां अविद्या ने घर कर रखा है; जाकर अपना प्रपञ्च अनेक प्रकार की छल युक्तियों से फैलाने लगा और मिथ्या बातों की प्रसिद्धि करने लगा कि श्रीकृष्ण मुझ को मिले और कहा कि ‘जो गोलोक से ‘दैवी जीव’ मर्त्यलोक में आये हैं उन को ब्रह्मसम्बन्ध आदि से पवित्र करके गोलोक में भेजो।’ इत्यादि मूर्खों को प्रलोभन की बातें सुना के थोड़े से लोगों को अर्थात् ८४ चौरासी वैष्णव बनाये और निम्नलिखित मन्त्र बना लिये और उन में भी भेद रक्खा। जैसे-
श्रीकृष्ण शरणं मम।।१।।
क्लीं कृष्णाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा।।२।।
ये दोनों साधारण मन्त्र हैं परन्तु अगला मन्त्र ब्रह्मसम्बन्ध और समर्पण कराने का है-
श्रीकृष्ण शरणं मम सहस्रपरिवत्सरमितकालजातकृष्णवियोगजनित-
तापक्लेशानन्ततिरोभावोऽहं भगवते कृष्णाय देहेन्द्रियप्राणान्त करणतद्धर्मांश्च
दारागारपुत्रप्तवित्तेह पराण्यात्मना सह समर्प्पयामि दासोऽहं कृष्ण तवास्मि।।
इस मन्त्र का उपदेश करके शिष्य, शिष्याओं को समर्पण कराते हैं। ‘क्लीं कृष्णायेति’-यह ‘क्लीं’ तन्त्र ग्रन्थ का है। इस से विदित होता है कि यह वल्लभ मत भी वाममार्गियों का भेद है। इसी से स्त्री-संग गुसाईं लोग बहुधा करते हैं। ‘गोपीवल्लभेति’-क्या कृष्ण गोपियों ही को प्रिय थे; अन्य को नहीं? स्त्रियों को प्रिय वह होता है जो स्त्रैण अर्थात् स्त्रीभोग में फंसा हो। क्या श्रीकृष्ण जी ऐसे थे? अब ‘सहस्रपरिवत्सरेति’-सहप् वर्षों की गणना व्यर्थ है क्योंकि वल्लभ और उस के शिष्य कुछ सर्वज्ञ नहीं हैं। क्या कृष्ण का वियोग सहस्र वर्षों से हुआ और आज लों अर्थात् जब लों वल्लभ का मत न था; न वल्लभ जन्मा था; उस के पूर्व अपने दैवी जीवों के उद्धार करने को क्यों न आया? ‘ताप’ और ‘क्लेश’ ये दोनों पर्यायवाची हैं। इन में से एक का ग्रहण करना उचित था; दो का नहीं। ‘अनन्त’ शब्द का पाठ करना व्यर्थ है, क्योंकि जो अनन्त शब्द रक्खो तो ‘सहस्र’ शब्द का पाठ न रखना चाहिये और जो सहस्र शब्द का पाठ रक्खो तो अनन्त शब्द का पाठ रखना सर्वथा व्यर्थ है। और जो अनन्तकाल लों ‘तिरोहित’ अर्थात् आच्छादित रहै उस की मुक्ति के लिये वल्लभ का होना भी व्यर्थ है, क्योंकि अनन्त का अन्त नहीं होता। भला! देहेन्द्रिय, प्राणान्तःकरण और उसके धर्म स्त्री, स्थान, पुत्र, प्राप्तधन का अर्पण कृष्ण को क्यों करना? क्योंकि कृष्ण पूर्णकाम होने से किसी के देहादि की इच्छा नहीं कर सकते और देहादि का अर्पण करना भी नहीं हो सकता क्योंकि देह के अर्पण से; नखशिखाग्रपर्यन्त देह कहाता है; उस में जो कुछ अच्छी बुरी वस्तु है मल मूत्रदि का भी अर्पण कैसे कर सकोगे? और जो पाप पुण्यरूप कर्म होते हैं उन को कृष्णार्पण करने से उन के फलभागी भी कृष्ण ही होवें अर्थात् नाम तो कृष्ण का लेते हैं और समर्पण अपने लिये कराते हैं। जो कुछ देह में मलमूत्रदि हैं वह भी गोसाईं जी के अर्पण क्यों नहीं होता? ‘क्या मीठा-मीठा गड़प्प और कडुवा-कडुवा थू? ’ और यह भी लिखा है कि गोसाईं जी के अर्पण करना, अन्य मत वाले के नहीं। यह सब स्वार्थसिन्धुपन और पराये धनादि पदार्थ हरने और वेदोक्त धर्मनाश करने की लीला रची है। देखो! यह वल्लभ का प्रपंच-
श्रावणस्यामले पक्षे, एकादश्यां महानिशि ।
साक्षाद्भगवता प्रोक्तं तदक्षरश उच्यते।।१।।
ब्रह्मसम्बन्धकरणात्सर्वेषां देहजीवयो ।
सर्वदोषनिवृत्तिर्हि दोषा पञ्चविधा स्मृता ।।२।।
सहजा देशकालोत्था लोकवेदनिरूपिता ।
संयोगजा स्पर्शजाश्च न मन्तव्या कदाचन।।३।।
अन्यथा सर्वदोषाणां न निवृत्ति कथञ्चन ।
असमिर्पतवस्तूनां तस्माद्वर्ज्जनमाचरेत्।।४।।
निवेदिभि समर्प्यैव सर्वं कुर्यादिति स्थिति ।
न मतं देवदेवस्य स्वामिभुक्तिसमर्प्पणम्।।५।।
तस्मादादौ सर्वकार्ये सर्ववस्तुसमर्प्पणम् ।
दत्तापहारवचनं तथा च सकलं हरे ।।६।।
न ग्राह्यमिति वाक्यं हि भिन्नमार्गपरं मतम् ।
सेवकानां यथा लोके व्यवहार प्रसिध्यति।।७।।
तथा कार्य्यं समर्प्यैव सर्वेषां ब्रह्मता तत ।
गंगात्वे गुणदोषाणां गुणदोषादिवर्णनम्।।८।।
इत्यादि श्लोक गोसांइयों के सिद्धान्तरहस्यादि ग्रन्थों में लिखे हैं। यही गोसांइयों के मत का मूल तत्त्व है। भला इन से कोई पूछे कि श्रीकृष्ण के देहान्त हुए कुछ कम पांच सहस्र वर्ष बीते; वह वल्लभ से श्रावण मास की आधी रात को कैसे मिल सके? ।।१।।
जो गोसाईं का चेला होता है और उस को सब पदार्थों का समर्पण करता है उस के शरीर और जीव के सब दोषों की निवृत्ति हो जाती है। यही वल्लभ का प्रपञ्च मूर्खों को बहका कर अपने मत में लाने का है। जो गोसाईं के चेले चेलियों के सब दोष निवृत्त हो जावें तो रोग दारिद्र्यादि दुःखों से पीड़ित क्यों रहैं? और वे दोष पांच प्रकार के होते हैं।।२।।
एक-सहज दोष जो कि स्वाभाविक अर्थात् काम, क्रोधादि से उत्पन्न होते हैं। दूसरे-किसी देश काल में नाना प्रकार के पाप किये जायें। तीसरे-लोक में जिन को भक्ष्याभक्ष्य कहते और वेदोक्त जो कि मिथ्याभाषणादि हैं। चौथे-संयोगज जो कि बुरे संग से अर्थात् चोरी, जारी, माता, भगिनी, कन्या, पुत्रवधू, गुरुपत्नी आदि से संयोग करना। पांचवें-स्पर्शज अस्पर्शनीयों को स्पर्श करना। इन पांच दोषों को गोसाईं लोगों के मत वाले कभी न मानें अर्थात् यथेष्टाचार करें।।३।। अन्य कोई प्रकार दोषों की निवृत्ति के लिये नहीं है विना गोसाईं जी के मत के। इसलिये विना समर्पण किये पदार्थ को गोसाईं जी के चेले न भोगें। इसीलिये इनके चेले अपनी स्त्री, कन्या, पुत्रवधू और धनादि पदार्थों को भी समिर्पत करते हैं परन्तु समर्पण का नियम यह है कि जब लों गोसाईं जी की चरणसेवा में समिर्पत न होवे तब लों उस का स्वामी स्वस्त्री को स्पर्श न करे।।४।। इस से गोसाइयों के चेले समर्पण करके पश्चात् अपने-अपने पदार्थ का भोग करें क्योंकि स्वामी के भोग करे पश्चात् समर्पण नहीं हो सकता।।५।। इस से प्रथम सब कामों में सब वस्तुओं का समर्पण करें। प्रथम गोसाईं जी को भार्यादि समर्पण करके पश्चात् ग्रहण करें वैसे ही हरि को सम्पूर्ण पदार्थ समर्पण करके ग्रहण करें।।६।। गोसाईं जी के मत से भिन्न मार्ग के वाक्यमात्र को भी गोसांइयों के चेला, चेली कभी न सुनें, न ग्रहण करें। यही उन के शिष्यांे का व्यवहार प्रसिद्ध है।।७।। वैसे ही सब वस्तुओं का समर्पण करके सब के बीच में ब्रह्मबुद्धि करे। उस के पश्चात् जैसे गंगा में अन्य जल मिलकर गंगारूप हो जाते हैं वैसे ही अपने मत में गुण और दूसरे के मत में दोष हैं इसलिये अपने मत में गुणों का वर्णन किया करें।।८।। अब देखिये! गोसांइयों का मत सब मतों से अधिक अपना प्रयोजन सिद्ध करनेहारा है। भला इन गोसांइयों को कोई पूछे कि ब्रह्म का एक लक्षण भी तुम नहीं जानते तो शिष्य शिष्याआंे को ब्रह्मसम्बन्ध कैसे करा सकोगे? जो कहो कि हम ही ब्रह्म हैं हमारे साथ सम्बन्ध होने से ब्रह्मसम्बन्ध हो जाता है। सो तुम में ब्रह्म के गुण, कर्म, स्वभाव एक भी नहीं है, पुनः क्या तुम केवल भोग विलास के लिये ब्रह्म बन बैठे हो? भला! शिष्य, शिष्याओं को तो तुम अपने साथ समिर्पत करके शुद्ध करते हो परन्तु तुम और तुम्हारी स्त्री, कन्या तथा पुत्रवधू आदि असमिर्पत रह जाने से अशुद्ध रह गये वा नहीं? और तुम असमिर्पत वस्तु को अशुद्ध मानते हो पुनः उन से उत्पन्न हुए तुम लोग अशुद्ध क्यों नहीं? इसलिये तुम को भी उचित है कि अपनी स्त्री, कन्या तथा पुत्रवधू आदि को अन्य मत वालों के साथ समिर्पत कराया करो।
जो कहो कि नहीं-नहीं तो तुम भी अन्य स्त्री पुरुष धनादि पदार्थों को समिर्पत करना कराना छोड़ देओ। भला अब लों जो हुआ सो हुआ परन्तु अब अपनी मिथ्या प्रपंचादि बुराइयों को छोड़ो और सुन्दर ईश्वरोक्त वेदविहित सुपथ में आकर अपने मनुष्यरूपी जन्म को सफल कर धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इस चतुष्टय फल को प्राप्त होकर आनन्द भोगो। और देखिये! ये गोसाईं लोग अपने सम्प्रदाय को ‘पुष्टि’ मार्ग कहते हैं अर्थात् खाने, पीने, पुष्ट होने और सब स्त्रियों के संग यथेष्ट भोग विलास करने को पुष्टिमार्ग कहते हैं परन्तु इनसे पूछना चाहिये कि जब बड़े दुःखदायी भगन्दरादि रोगग्रस्त होकर ऐसे झींक-झींक मरते हैं कि जिस को ये ही जानते होंगे। सच पूछो तो पुष्टिमार्ग नहीं किन्तु कुष्ठिमार्ग है। जैसे कुष्ठी के शरीर की सब धातु पिघल-पिघल कर निकल जाती हैं और विलाप करता हुआ शरीर छोड़ता है ऐसी ही लीला इन की भी देखने में आती है। इसलिये नरकमार्ग भी इसी को कहना संघटित हो सकता है। क्योंकि दुःख का नाम नरक और सुख का नाम स्वर्ग है। इसी प्रकार मिथ्या जाल रच के विचारे भोले-भोले मनुष्यों को जाल में फंसाया और अपने आपको श्रीकृष्ण मान कर सब के स्वामी बनते हैं। यह कहते हैं कि जितने दैवी जीव गोलोक से यहां आये हैं उन के उद्धार करने के लिये हम लीला पुरुषोत्तम जन्मे हैं। जब लों हमारा उपदेश न ले तब लों गोलोक की प्राप्ति नहीं होती। वहां एक श्रीकृष्ण पुरुष और सब स्त्रियां हैं। वाह जी वाह! भला तुम्हारा मत है!! गोसांइयों के जितने चेले हैं वे सब गोपियां बन जावेंगी। अब विचारिये! भला जिस पुरुष के दो स्त्री होती हैं उस की बड़ी दुर्दशा हो जाती है तो जहां एक पुरुष और क्रोड़ों स्त्री एक के पीछे लगी हैं उस के दुःख का क्या पारावार है? जो कहो कि श्रीकृष्ण में बड़ा भारी सामर्थ्य है, सब को प्रसन्न करते हैं तो जो उस की स्त्री जिस को स्वामिनी जी कहते हैं उस में भी श्रीकृष्ण के समान सामर्थ्य होगा क्योंकि वह उन की अर्द्धांगी है। जैसे यहाँ स्त्री पुरुष की कामचेष्टा तुल्य अथवा पुरुष से स्त्री की अधिक होती है तो गोलोक में क्यों नहीं? जो ऐसा है तो अन्य स्त्रियों के साथ स्वामिनी जी की अत्यन्त लड़ाई बखेड़ा मचता होगा क्योंकि सपत्नीभाव बहुत बुरा होता है। पुनः गोलोक स्वर्ग की अपेक्षा नरकवत् हो गया होगा अथवा जैसे बहुत स्त्रीगामी पुरुष भगन्दरादि रोगों से पीड़ित रहता है वैसा ही गोलोक में भी होगा। छि! छि!! छि!!! ऐसे गोलोक से मर्त्यलोक ही विचारा भला है। देखो! जैसे यहां गोसाईं जी अपने को श्रीकृष्ण मानते हैं और बहुत स्त्रियों के साथ लीला करने से भगन्दर तथा प्रमेहादि रोगों से पीड़ित होकर महादुःख भोगते हैं। अब कहिये जिन का स्वरूप गोसाईं पीड़ित होता है तो गोलोक का स्वामी श्रीकृष्ण इन रोगों से पीड़ित क्यों न होगा? और जो नहीं है तो उन का स्वरूप गोसाईं जी पीड़ित क्यों होते हैं?
(प्रश्न) मर्त्यलोक में लीलावतार धारण करने से रोग दोष होता है; गोलोक में नहीं। क्योंकि वहां रोग दोष ही नहीं है।
(उत्तर) ‘भोगे रोगभयम्’। जहां भोग है वहां रोग अवश्य होता है। और श्रीकृष्ण के क्रोड़ान् क्रोड़ स्त्रियों से सन्तान होते हैं वा नहीं और जो होते हैं तो लड़के-लड़के होते हैं वा लड़की-लड़की? अथवा दोनों? जो कहो कि लड़कियां ही लड़कियां होती हैं तो उन का विवाह किन के साथ होता होगा? क्योंकि वहां विना श्रीकृष्ण के दूसरा कोई पुरुष नहीं। जो दूसरा है तो तुम्हारी प्रतिज्ञा हानि हुई। जो कहो लड़के ही लड़के होते हैं तो भी यही दोष आन पड़ेगा कि उन का विवाह कहां और किन के साथ होता है? अथवा घर के घर में ही गटपट कर लेते हैं अथवा अन्य किसी की लड़कियां वा लड़के हैं तो भी तुम्हारी प्रतिज्ञा ‘गोलोक में एक ही श्रीकृष्ण पुरुष नष्ट हो जायेगी और जो कहो कि सन्तान होते ही नहीं तो श्रीकृष्ण में नपुंसकत्व और स्त्रियों में बन्ध्यापन दोष आवेगा। भला यह गोलोक क्या हुआ? जानो दिल्ली के बादशाहों की बीबियों की सेना हुई। अब जो गोसाईं लोग शिष्य और शिष्याओं का तन, मन तथा धन अपने अर्पण करा लेते हैं। सो भी ठीक नहीं क्योंकि तन तो विवाह समय में स्त्री और पति के समर्पण हो जाता है। पुनः मन भी दूसरे के समर्पण नहीं हो सकता क्योंकि मन ही के साथ तन का भी समर्पण करना बन सकता है और जो करें तो व्यभिचारी कहावेंगे। अब रहा धन उस की भी यही लीला समझो अर्थात् मन के विना कुछ भी अर्पण नहीं हो सकता। इन गोसांइयों का अभिप्राय यह है कि कमावें तो चेला और आनन्द करें हम। जितने वल्लभ सम्प्रदायी गोसाईं लोग हैं वे अब लों तैलंगी जाति में नहीं हैं और जो कोई इन को भूले भटके लड़की देता है वह भी जातिबाह्य होकर भ्रष्ट हो जाता है क्योंकि ये जाति से पतित किये गये और विद्याहीन रात दिन प्रमाद में रहते हैं। और देखिये! जब कोई गोसाईं जी की पधरावनी करता है तब उसके घर पर जाकर, चुपचाप काठ की पुतली के समान बैठा रहता है; न कुछ बोलता न चालता। बिचारा बोले तो तब जो मूर्ख न होवे। ‘मूर्खाणां बलं मौनम्’ क्योंकि मूर्खों का बल मौन है जो बोले तो उस की पोल निकल जाय परन्तु स्त्रियों की ओर खूब ध्यान लगा के ताकता रहता है। और जिस की ओर गोसाईं जी देखें तो जानो बड़े ही भाग्य की बात है और उसका पति, भाई, बन्धु, माता, पिता बड़े प्रसन्न होते हैं। वहां सब स्त्रियां गोसाईं जी के पग छूती हैं। जिस पर गोसाईं जी का मन लगे वा कृपा हो उस की अंगुली पैर से दबा देते हैं। वह स्त्री और उस के पति आदि अपना धन्य भाग्य समझते हैं और उस स्त्री से उस के पति आदि सब कहते हैं कि तू गोसाईं जी की चरणसेवा में जा। और जहां कहीं उस के पति आदि प्रसन्न नहीं होते वहां दूती और कुटनियों से काम सिद्ध करा लेते हैं। सच पूछो तो ऐसे काम करने वाले उन के मन्दिरों में और उन के समीप बहुत से रहा करते हैं। अब इन की दक्षिणा की लीला अर्थात् इस प्रकार मांगते हैं-लाओ भेंट गोसाईं जी की, बहू जी की, लाल जी की, बेटी जी की, मुखिया जी की, बाहरिया जी की, गवैया जी की और ठाकुर जी की। इन सात-आठ दुकानों से यथेष्ट माल मारते हैं। जब कोई गोसाईं जी का सेवक मरने लगता है तब उस की छाती में पग गोसाईं जी धरते हैं और जो कुछ मिलता है उस को गोसाईं जी ‘गड़क्क’ कर जाते हैं। क्या यह काम महाब्राह्मण और कर्टिया वा मुर्दावली के समान नहीं है? कोई-कोई चेला विवाह में गुसाईं जी को बुला कर उन्हीं से लड़के-लड़की का पाणिग्रहण कराते हैं और कोई-कोई सेवक जब केशरिया स्नान अर्थात् गोसाईं जी के शरीर पर स्त्री लोग केशर का उबटना करके फिर एक बड़े पात्र में पट्टा रख के गोसाईं जी को स्त्री पुरुष मिल के स्नान कराते हैं परन्तु विशेष स्त्रीजन स्नान कराती हैं। पुनः जब गोसाईं जी पीताम्बर पहिर और खड़ाऊं पर चढ़ बाहर निकल आते हैं और धोती उसी में पटक देते हैं। फिर उस जल का आचमन उस के सेवक करते हैं और अच्छे मसाला धरके पान बीड़ा गोसाईं जी को देते हैं। वह चाब कर कुछ निगल जाते हैं, शेष एक चांदी के कटोरे में जिस को उन का सेवक मुख के आगे कर देता है उस में पीक उगल देते हैं। उस की भी प्रसादी बंटती है जिस को ‘खास’ प्रसादी कहते हैं। अब विचारिये कि ये लोग किस प्रकार के मनुष्य हैं। जो मूढ़पन और अनाचार होगा तो इतना ही होगा! बहुत से समर्पण लेते हैं। उन में से कितने ही वैष्णवों के हाथ का खाते हैं। अन्य का नहीं। कितने ही वैष्णवों के हाथ का भी नहीं खाते; लकड़े लों धो लेते हैं परन्तु आटा, गुड़, चीनी, घी आदि धोये विना उनका अस्पर्श बिगड़ जाता है। क्या करें विचारे! जो इन को धोवें तो पदार्थ ही हाथ से खो बैठें। वे कहते हैं कि हम ठाकुर जी के रंग, राग, भोग में बहुत सा धन लगा देते हैं परन्तु वे रंग, राग भोग आप ही करते हैं। और सच पूछो तो बड़े-बड़े अनर्थ होते हैं। अर्थात् होली के समय पिचकारियां भर कर स्त्रियों के अस्पर्शनीय अवयव अर्थात् जो गुप्त स्थान हैं उन पर मारते हैं। और रसविक्रय ब्राह्मण के लिए निषिद्ध कर्म है उस को भी करते हैं।
(प्रश्न) गुसाईं जी रोटी, दाल, कढ़ी, भात, शाक और मठरी तथा लड्डू आदि को प्रत्यक्ष हाट में बैठ के तो नहीं बेचते किन्तु अपने नौकर चाकरों को पत्तलें बांट देते हैं वे लोग बेचते हैं गुसाईं जी नहीं।
(उत्तर) गोसाईं जी उन को मासिक रुपये देवें तो वे पत्तलें क्यों लेवें? गुसाईं जी अपने नौकरों के हाथ दाल, भात आदि नौकरी के बदले में बेच देते हैं तो वे ले जाकर हाट बाजार में बेचते हैं। जो गुसाईं जी स्वयं बाहर बेचते तो नौकर जो ब्राह्मणादिक हैं वे तो रसविक्रय दोष से बच जाते। और अकेले गोसाईं जी ही रसविक्रयरूपी पाप के भागी होते। प्रथम तो इस पाप में आप डूबे फिर औरों को भी समेटा और कहीं-कहीं नाथद्वारा आदि में गोसाईं जी भी बेचते हैं। रसविक्रय करना नीचों का काम है, उत्तमों का नहीं। ऐसे-ऐसे लोगों ने इस आर्य्यावर्त्त की अधोगति कर दी।
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All the disciples of Gosaini will become gopis. Now consider! Well, a man who has two women has a great predicament, so where is the grief of a man and a crooked woman following one? If you say that there is great power in Shri Krishna, then if you please everyone, then the woman who is called Swamini will also have the same strength as Shri Krishna because she is his half-heartedness.
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महर्षि दयानन्द की मानवीय संवेदना महर्षि स्वामी दयानन्द अपने करुणापूर्ण चित्त से प्रेरित होकर गुरुदेव की आज्ञा लेकर देश का भ्रमण करने निकल पड़े। तथाकथित ब्राह्मणों का समाज में वर्चस्व था। सती प्रथा के नाम पर महिलाओं को जिन्दा जलाया जा रहा था। स्त्रियों को पढने का अधिकार नहीं था। बालविवाह, नारी-शिक्षा,...