एकादश समुल्लास भाग -4
(प्रश्न) माता पिता आदि की सेवा करें और मूर्त्तिपूजा भी करें तब तो कोई दोष नहीं?
(उत्तर) पाषाणादि मूर्त्तिपूजा तो सर्वथा छोड़ने और मातादि मूर्त्तिमानों की सेवा करने ही में कल्याण है। बड़े अनर्थ की बात है कि साक्षात् माता आदि प्रत्यक्ष सुखदायक देवों को छोड़ के अदेव पाषाणादि में शिर मारना स्वीकार किया। इसको लोगों ने इसीलिये स्वीकार किया है कि जो माता पितादि के सामने नैवेद्य वा भेंट पूजा धरेंगे तो वे स्वयं खा लेंगे और भेंट पूजा ले लेंगे तो हमारे मुख वा हाथ में कुछ न पड़ेगा। इससे पाषाणादि की मूर्त्ति बना, उस के आगे नैवेद्य धर, घण्टानाद टं टं पूं पूं और शखं बजा, कोलाहल कर, अंगूठा दिखला अर्थात् ‘त्वमङ्गुष्ठं गृहाण भोजनं पदार्थं वाऽहं ग्रहिष्यामि’ जैसे कोई किसी को छले वा चिढ़ावे कि तू घण्टा ले और अंगूठा दिखलावे उस के आगे से सब पदार्थ ले आप भोगे, वैसी ही लीला इन पूजारियों अर्थात् पूजा नाम सत्कर्म के शत्रुओं की है। ये लोग चटक मटक, चलक झलक मूर्त्तियों को बना ठना, आप ठगों के तुल्य बन ठन के विचारे निर्बुद्धि अनाथों का माल मारके मौज करते हैं। जो कोई धार्मिक राजा होता तो इन पाषाणप्रियों को पत्थर तोड़ने, बनाने और घर रचने आदि कामों में लगाके खाने पीने को देता; निर्वाह कराता।
(प्रश्न) जैसे स्त्री की पाषाणादि मूर्ति देखने से कामोत्पत्ति होती है वैसी वीतराग शान्त की मूर्त्ति देखने से वैराग्य और शान्ति की प्राप्ति क्यों न होगी?
(उत्तर) नहीं हो सकती। क्योंकि उस मूर्त्ति के जड़त्व धर्म आत्मा में आने से विचारशक्ति घट जाती है। विवेक के विना न वैराग्य और वैराग्य के विना विज्ञान, विज्ञान के विना शान्ति नहीं होती। और जो कुछ होता है सो उनके संग, उपदेश और उनके इतिहासादि के देखने से होता है क्योंकि जिस का गुण वा दोष न जानके उस की मूर्त्तिमात्र देखने से प्रीति नहीं होती। प्रीति होने का कारण गुणज्ञान है। ऐसे मूर्त्तिपूजा आदि बुरे कारणों ही से आर्य्यावर्त्त में निकम्मे पुजारी भिक्षुक आलसी पुरुषार्थ रहित क्रोड़ों मनुष्य हुए हैं। सब संसार में मूढ़ता उन्हीं ने फैलाई है। झूठ छल भी बहुत सा फैला है।
(प्रश्न) देखो! काशी में ‘औरंगजेब’ बादशाह को ‘लाटभैरव’ आदि ने बड़े-बड़े चमत्कार दिखलाये थे। जब मुसलमान उन को तोड़ने गये और उन्होंने जब उन पर तोप गोला आदि मारे तब बड़े-बड़े भमरे निकल कर सब फौज को व्याकुल कर भगा दिया।
(उत्तर) यह पाषाण का चमत्कार नहीं किन्तु वहां भमरे के छत्ते लग रहे होंगे। उन का स्वभाव ही क्रूर है। जब कोई उन को छेड़े तो वे काटने को दौड़ते हैं। और जो दूध की धारा का चमत्कार होता था वह पुजारी जी की लीला थी।
(प्रश्न) देखो! महादेव म्लेच्छ को दर्शन न देने के लिये कूप में और वेणीमाधव एक ब्राह्मण के घर में जा छिपे। क्या यह भी चमत्कार नहीं है?
(उत्तर) भला जिस के कोटपाल, कालभैरव, लाटभैरव आदि भूत प्रेत और गरुड़ आदि गणों ने मुसलमानों को लड़के क्यों न हटाये? जब महादेव और विष्णु की पुराणों में कथा है कि अनेक त्रिपुरासुर आदि बड़े भयंकर दुष्टों को भस्म कर दिया तो मुसलमानों को भस्म क्यों न किया? इस से यह सिद्ध होता है कि वे बिचारे पाषाण क्या लड़ते लड़ाते? जब मुसलमान मन्दिर और मूर्त्तियों को तोड़ते-फोड़ते हुए काशी के पास आए तब पूजारियों ने उस पाषाण के लिंग को कूप में डाल और वेणीमाधव को ब्राह्मण के घर में छिपा दिया। जब काशी में कालभैरव के डर के मारे यमदूत नहीं जाते और प्रलय समय में भी काशी का नाश होने नहीं देते तो म्लेच्छों के दूत क्यों न डराये? और अपने राज के मन्दिरों का क्यों नाश होने दिया? यह सब पोपमाया है।
(प्रश्न) गया में श्राद्ध करने से पितरों का पाप छूट कर वहां के श्राद्ध के पुण्य प्रभाव से पितर स्वर्ग में जाते और पितर अपना हाथ निकाल कर पिण्ड लेते हैं। क्या यह भी बात झूठी है?
(उत्तर) सर्वथा झूठ। जो वहां पिण्ड देने का वही प्रभाव है तो जिन पण्डों को पितरों के सुख के लिए लाखों रुपये देते हैं उन का व्यय गयावाले वेश्यागमनादि पाप में करते हैं वह पाप क्यों नहीं छूटता? और हाथ निकलता आज कल कहीं नहीं दीखता; विना पण्डों के हाथों के। यह कभी किसी धूर्त्त ने पृथिवी में गुफा खोद उस में एक मनुष्य बैठा दिया होगा। पश्चात् उस के मुख पर कुछ बिछा, पिण्ड दिया होगा और उस कपटी ने उठा लिया होगा। किसी आंख के अन्धे गांठ के पूरे को इस प्रकार ठगा हो तो आश्चर्य नहीं। वैसे ही वैजनाथ को रावण लाया था; यह भी मिथ्या बात है।
(प्रश्न) देखो! कलकत्ते की काली और कामाक्षा आदि देवी को लाखों मनुष्य मानते हैं। क्या यह चमत्कार नहीं है?
(उत्तर) कुछ भी नहीं। वे अन्धे लोग भेड़ के तुल्य एक के पीछे दूसरे चलते हैं। कूप खाड़े में गिरते हैं; हट नहीं सकते। वैसे ही एक मूर्ख के पीछे दूसरे चलकर मूर्त्तिपूजा रूप गढ़े में फंसकर दुःख पाते हैं।
(प्रश्न) भला यह तो जाने दो परन्तु जगन्नाथ जी में प्रत्यक्ष चमत्कार है। एक कलेवर बदलने के समय चन्दन का लकड़ा समुद्र में से स्वयमेव आता है। चूल्हे पर ऊपर-ऊपर सात हण्डे धरने से ऊपर-ऊपर के पहले-पहले पकते हैं। और जो कोई वहां जगन्नाथ की परसादी न खावे तो कुष्ठी हो जाता है और रथ आप से आप चलता पापी को दर्शन नहीं होता है। इन्द्रदमन के राज्य में देवताओं ने मन्दिर बनाया है। कलेवर बदलने के समय एक राजा, एक पण्डा, एक बढ़ई मर जाने आदि चमत्कारों को तुम झूठ न कर सकोगे?
(उत्तर) जिस ने बारह वर्ष पर्यन्त जगन्नाथ की पूजा की थी वह विरक्त हो कर मथुरा में आया था; मुझ से मिला था। मैंने इन बातों का उत्तर पूछा था। उस ने ये सब बातें झूठ बतलाईं। किन्तु विचार से निश्चय यह है-जब कलेवर बदलने का समय आता है तब नौका में चन्दन की लकड़ी ले समुद्र में डालते हैं वह समुद्र की लहरियों से किनारे लग जाती है। उस को ले सुतार लोग मूर्त्तियां बनाते हैं। जब रसोई बनती है तब कपाट बन्द करके रसोइयों के विना अन्य किसी को न जाने, न देखने देते हैं। भूमि पर चारों ओर छः और बीच में एक चक्राकार चूल्हे बनाते हैं। उन हण्डों के नीचे घी, मट्टी और राख लगा छः चूल्हों पर चावल पका, उनके तले मांज कर, उस बीच के हण्डे में उसी समय चावल डाल छः चूल्हों के मुख लोहे के तवों से बांध कर, दर्शन करने वालों को जो कि धनाढ्य हों, बुला के दिखलाते हैं। ऊपर-ऊपर के हण्डों से चावल निकाल, पके हुए चावलों को दिखला, नीचे के कच्चे चावल निकाल दिखा के उन से कहते हैं कि कुछ हण्डे के लिये रख दो। आंख के अन्धे गांठ के पूरे रुपया अशर्फी धरते और कोई-कोई मासिक भी बांध देते हैं। शूद्र नीच लोग मन्दिर में नैवेद्य लाते हैं। जब नैवेद्य हो चुकता है तब वे शूद्र नीच लोग झूठा कर देते हैं। पश्चात् जो कोई रुपया देकर हण्डा लेवे उस के घर पहुंचाते और दीन गृहस्थ और साधु सन्तों को लेके शूद्र और अन्त्यज पर्य्यन्त एक पंक्ति में बैठ झूंठा एक दूसरे का भोजन करते हैं। जब वह पंक्ति उठती है तब उन्हीं पत्तलों पर दूसरे को बैठाते जाते हैं। महा अनाचार है। और बहुतेरे मनुष्य वहाँ जाकर, उन का झूंठा न खाके, अपने हाथ बना खाकर चले आते हैं, कुछ भी कुष्ठादि रोग नहीं होते। और उस जगन्नाथपुरी में भी बहुत से परसादी नहीं खाते। उन को भी कुष्ठादि रोग नहीं होते। और उस जगन्नाथपुरी में भी बहुत से कुष्ठी हैं, नित्यप्रति झूंठा खाने से भी रोग नहीं छूटता। और यह जगन्नाथ में वाममार्गियों ने भैरवीचक्र बनाया है क्योंकि सुभद्रा, श्री कृष्ण और बलदेव की बहिन लगती है। उसी को दोनों भाइयों के बीच में स्त्री और माता के स्थान बैठाई है। जो भैरवीचक्र न होता तो यह बात कभी न होती। और रथ के पहिये के साथ कला बनाई है। जब उन को सूधी घुमाते हैं घूमती है, तब रथ चलता है। जब मेले के बीच में पहुंचता है तभी उस की कील को उल्टी घुमा देने से रथ खड़ा रह जाता है। पुजारी लोग पुकारते हैं दान देओ, पुण्य करो, जिस से जगन्नाथ प्रसन्न होकर अपना रथ चलावें, अपना धर्म रहै। जब तक भेंट आती जाती है तब तक ऐसे ही पुकारते जाते हैं। जब आ चुकती है तब एक व्रजवासी अच्छे कपड़े दुसाला ओढ़ कर आगे खड़ा रहके हाथ जोड़ स्तुति करता है कि ‘हे जगन्नाथ स्वामिन्! आप कृपा करके रथ को चलाइये, हमारा धर्म रक्खो’ इत्यादि बोल के साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कर रथ पर चढ़ता है। उसी समय कील को सूधा घुमा देते हैं और जय-जय शब्द बोल, सहस्रों मनुष्य रस्सा खीचते हैं, रथ चलता है। जब बहुत से लोग दर्शन को जाते हैं तब इतना बड़ा मन्दिर है कि जिस में दिन में भी अन्धेरा रहता है और दीपक जलाना पड़ता है। उन मूर्त्तियों के आगे पड़दे खैंच कर लगाने के पर्दे दोनों ओर रहते हैं। पण्डे पुजारी भीतर खड़े रहते हैं। जब एक ओर वाले ने पर्दे को खींचा, झट मूर्त्ति आड़ में आ जाती है। तब सब पण्डे पुजारी पुकारते हैं-तुम भेंट धरो, तुम्हारे पाप छूट जायेंगे, तब दर्शन होगा। शीघ्र करो। वे बिचारे भोले मनुष्य धूर्त्तों के हाथ लूटे जाते हैं। और झट पर्दा दूसरा खैंच लेते हैं तभी दर्शन होता है। तब जय शब्द बोल के प्रसन्न होकर धक्के खाके तिरस्कृत हो चले आते हैं। इन्द्रदमन वही है कि जिस के कुल के लोग अब तक कलकत्ते में हैं। वह धनाढ्य राजा और देवी का उपासक था। उसने लाखों रुपये लगा कर मन्दिर बनवाया था। इसलिये कि आर्यावर्त्त देश के भोजन का बखेड़ा इस रीति से छुड़ावें। परन्तु वे मूर्ख कब छोड़ते हैं? देव मानो तो उन्हीं कारीगरों को मानो कि जिन शिल्पियों ने मन्दिर बनाया। राजा, पण्डा और बढ़ई उस समय नहीं मरते परन्तु वे तीनों वहां प्रधान रहते हैं। छोटों को दुःख देते होंगे। उन्होंने सम्मति करके (उसी समय अर्थात् कलेवर बदलने के समय वे तीनों उपस्थित रहते हैं; मूर्त्ति का हृदय पोला रक्खा है। उस में सोने के सम्पुट में एक सालगराम रखते हैं कि जिस को प्रतिदिन धोकर चरणामृत बनाते हैं। उस पर रात्री की शयन आर्त्ती में उन लोगों ने विष का तेजाब लपेट दिया होगा। उस को धोके उन्हीं तीनों को पिलाया होगा कि जिस से वे कभी मर गये होंगे। मरे तो इस प्रकार और भोजनभट्टों ने प्रसिद्ध किया होगा कि जगन्नाथ जी अपने शरीर बदलने के समय तीनों भक्तों को भी साथ ले गये। ऐसी झूंठी बातें पराये धन ठगने के लिये बहुत सी हुआ करती हैं।
(प्रश्न) जो रामेश्वर में गंगोत्तरी के जल चढ़ाते समय लिंग बढ़ जाता है क्या यह भी बात झूंठी है?
(उत्तर) झूंठी! क्योंकि उस मन्दिर में भी दिन में अन्धेरा रहता है। दीपक रात दिन जला करते हैं। जब जल की धारा छोड़ते हैं तब उस जल में बिजुली के समान दीपक का प्रतिबिम्ब चलकता है और कुछ भी नहीं। न पाषाण घटे, न बढ़े, जितना का उतना रहता है। ऐसी लीला करके बिचारे निर्बुद्धियों को ठगते हैं।
(प्रश्न) रामेश्वर को रामचन्द्र ने स्थापन किया है। जो मूर्त्तिपूजा वेदविरुद्ध होती तो रामचन्द्र मूर्त्तिस्थापन क्यों करते और वाल्मीकि जी रामायण में क्यों लिखते?
(उत्तर) रामचन्द्र के समय में उस लिंग वा मन्दिर का नाम चिह्न भी न था किन्तु यह ठीक है कि दक्षिण देशस्थ रामनामक राजा ने मन्दिर बनवा, लिंग का नाम रामेश्वर धर दिया है। जब रामचन्द्र सीता जी को ले हनुमान् आदि के साथ लंका से चल आकाश मार्ग में विमान पर बैठ अयोध्या को आते थे तब सीता जी से कहा है कि-
अत्र पूर्वं महादेव प्रसादमकरोद्विभु ।
सेतुबन्ध इति विख्यातम्।। -वाल्मीकि रा०। लंका कां०।।
हे सीते! तेरे वियोग से हम व्याकुल होकर घूमते थे और इसी स्थान में चातुर्मास किया था और परमेश्वर की उपासना ध्यान भी करते थे। वही जो सर्वत्र विभु (व्यापक) देवों का देव महादेव परमात्मा है उस की कृपा से हम को सब सामग्री यहां प्राप्त हुई। और देख! यह सेतु हम ने बांध कर लंका में आके, उस रावण को मार, तुझ को ले आये। इसके सिवाय वहां वाल्मीकि ने अन्य कुछ भी नहीं लिखा।
(प्रश्न) ‘रंग है कालियाकन्त को जिसने हुक्का पिलाया सन्त को’। दक्षिण में एक कालियाकन्त की मूर्त्ति है। वह अब तक हुक्का पिया करती है। जो मूर्त्ति झूंठी हो तो यह चमत्कार भी झूंठ हो जाय।
(उत्तर) झूंठी-झूंठी। यह सब पोपलीला है। क्योंकि वह मूर्त्ति का मुख पोला होगा। उसका छिद्र पृष्ठ में निकाल के भित्ती के पार दूसरे मकान में नल लगा होगा। जब पुजारी हुक्का भरवा पेंचवां लगा, मुख में नली जमा के,पड़दे डाल निकल आता होगा तभी पीछे वाला आदमी मुख से खींचता होगा तो इधर हुक्का गड़-गड़ बोलता होगा। दूसरा छिद्र नाक और मुख के साथ लगा होगा। जब पीछे फूंकें मार देता होगा तब नाक और मुख के छिद्रों से धुआं निकलता होगा उस समय बहुत से मूढों को धनादि पदार्थों से लूट कर धनरहित करते होंगे।
(प्रश्न) देखो! डाकोर जी की मूर्त्ति द्वारिका से भगत के साथ चली आई। एक सवा रत्ती सोने में कई मन की मूर्त्ति तुल गई। क्या यह भी चमत्कार नहीं?
(उत्तर) नहीं! वह भक्त मूर्त्ति को चोर ले आया होगा और सवा रत्ती के बराबर मूर्त्ति का तुलना किसी भंगड़ आदमी ने गप्प मारा होगा।
(प्रश्न) देखो! सोमनाथ जी पृथिवी के ऊपर रहता था और बड़ा चमत्कार था क्या यह भी मिथ्या बात है?
(उत्तर) हां मिथ्या है। सुनो! ऊपर नीचे चुम्बक पाषाण लगा रक्खे थे। उसके आकर्षण से वह मूर्त्ति अधर खड़ी थी। जब ‘महमूद गजनवी’ आकर लड़ा तब यह चमत्कार हुआ कि उस का मन्दिर तोड़ा गया और पुजारी भक्तों की दुर्दशा हो गई और लाखों फौज दश सहस्र फौज से भाग गई। जो पोप पुजारी पूजा, पुरश्चरण, स्तुति, प्रार्थना करते थे कि ‘हे महादेव! इस म्लेच्छ को तू मार डाल, हमारी रक्षा कर, और वे अपने चेले राजाओं को समझाते थे ‘कि आप निश्चिन्त रहिये। महादेव जी, भैरव अथवा वीरभद्र को भेज देंगे। वे सब म्लेच्छों को मार डालेंगे वा अन्धा कर देंगे। अभी हमारा देवता प्रसिद्ध होता है। हनुमान्, दुर्गा और भैरव ने स्वप्न दिया है कि हम सब काम कर देंगे।’ वे विचारे भोले राजा और क्षत्रिय पोपों के बहकाने से विश्वास में रहे। कितने ही ज्योतिषी पोपों ने कहा कि अभी तुम्हारी चढ़ाई का मुहूर्त्त नहीं है। एक ने आठवां चन्द्रमा बतलाया, दूसरे ने योगिनी सामने दिखलाई। इत्यादि बहकावट में रहे। जब म्लेच्छों की फौज ने आकर घेर लिया तब दुर्दशा से भागे, कितने ही पोप पुजारी और उन के चेले पकड़े गये। पुजारियों ने यह भी हाथ जोड़ कर कहा कि तीन क्रोड़ रुपया ले लो मन्दिर और मूर्त्ति मत तोड़ो। मुसलमानों ने कहा कि हम ‘बुत्परस्त’ नहीं किन्तु ‘बुतशिकन् अर्थात् मूिऱ्त्तपूजक नहीं किन्तु मूर्त्तिभञ्जक हैं। जा के झट मन्दिर तोड़ दिया। जब ऊपर की छत टूटी तब चुम्बक पाषाण पृथक् होने से मूर्त्ति गिर पड़ी। जब मूर्त्ति तोड़ी तब सुनते हैं कि अठारह करोड़ के रत्न निकले। जब पुजारी और पोपों पर कोड़ा पड़े तो रोने लगे। कहा कि कोष बतलाओ। मार के मारे झट बतला दिया। तब सब कोष लूट मार कूट कर पोप और उन के चेलों को ‘गुलाम’ बिगारी बना, पिसना पिसवाया, घास खुदवाया, मल मूत्रदि उठवाया और चना खाने को दिये। हाय! क्यों पत्थर की पूजा कर सत्यानाश को प्राप्त हुए? क्यों परमेश्वर की भक्ति न की? जो म्लेच्छों के दांत तोड़ डालते और अपना विजय करते। देखो! जितनी मूर्त्तियाँ हैं उतनी शूरवीरों की पूजा करते तो भी कितनी रक्षा होती? पुजारियों ने इन पाषाणों की इतनी भक्ति की किन्तु मूर्त्ति एक भी उन के शिर पर उड़ के न लगी। जो किसी एक शूरवीर पुरुष की मूर्त्ति के सदृश सेवा करते तो वह अपने सेवकों को यथाशक्ति बचाता और उन शत्रुओं को मारता।
(प्रश्न) द्वारिका जी के रणछोड़ जी जिस ने ‘नर्सीमहिता’ के पास हुण्डी भेज दी और उस का ऋण चुका दिया इत्यादि बात भी क्या झूठ है?
(उत्तर) किसी साहूकार ने रुपये दे दिये होंगे। किसी ने झूठा नाम उड़ा दिया होगा कि श्री कृष्ण ने भेजे। जब संवत् १९१४ के वर्ष में तोपों के मारे मन्दिर मूर्त्तियां अंगरेजों ने उड़ा दी थीं तब मूर्त्ति कहां गई थीं? प्रत्युत बाघेर लोगों ने जितनी वीरता की और लड़े शत्रुओं को मारा परन्तु मूर्त्ति एक मक्खी की टांग भी न तोड़ सकी। जो श्रीकृष्ण के सदृश कोई होता तो इनके धुर्रे उड़ा देता और ये भागते फिरते। भला यह तो कहो कि जिस का रक्षक मार खाय उस के शरणागत क्यों न पीटे जायें?
(प्रश्न) ज्वालामुखी तो प्रत्यक्ष देवी है सब को खा जाती है। और प्रसाद देवें तो आधा खा जाती और आधा छोड़ देती है। मुसलमान बादशाहों ने उस पर जल की नहर छुड़वाई और लोहे के तवे जड़वाये थे तो भी ज्वाला न बुझी और न रुकी। वैसे हिगलाज भी आधी रात को सवारी कर पहाड़ पर दिखाई देती, पहाड़ को गर्जना कराती है। चन्द्रकूप बोलता और योनियन्त्र से निकलने से पुनर्जन्म नहीं होता, ठूमरा बांधने से पूरा महापुरुष कहाता। जब तक हिगलाज न हो आवे तब तक आधा महापुरुष बजता है। इत्यादि सब बातें क्या मानने योग्य नहीं?
(उत्तर) नहीं। क्योंकि वह ज्वालामुखी पहाड़ से आगी निकलती है। उस में पुजारी लोगों की विचित्र लीला है। जैसे बघार के घी के चमचे में ज्वाला आ जाती अलग करने से वा फूंक मारने से बुझ जाती और थोड़ा से घी को खा जाती, शेष छोड़ जाती है। उसी के समान वहां भी है। जैसे चूल्हे की ज्वाला में जो डाला जाय सब भस्म हो जाता, जंगल वा घर में लग जाने से सब को खा जाती है, इस से वहां क्या विशेष है? विना एक मन्दिर, कुण्ड और इधर उधर नल रचना के हिगलाज में न कोई सवारी होती और जो कुछ होता है वह सब पोप पुजारियों की लीला से दूसरा कुछ भी नहीं। एक जल और दलदल का कुण्ड बना रखा है, जिसके नीचे से बुद्बुदे उठते हैं। उस को सफल यात्र होना मूढ़ मानते हैं। योनि का यन्त्र उन लोगों ने धन हरने के लिये बनवा रखा है और ठुमरे भी उसी प्रकार पोपलीला के हैं। उस से महापुरुष हो तो एक पशु पर ठुमरे का बोझ लाद दें तो क्या महापुरुष हो जायगा? महापुरुष तो बड़े उत्तम धर्मयुक्त पुरुषार्थ से होता है।
(प्रश्न) अमृतसर का तालाब अमृतरूप, एक मुरेठी का फल आधा मीठा और एक भित्ती नमती और गिरती नहीं, रेवालसर में बेड़े तरते, अमरनाथ में आप से आप लिंग बन जाते, हिमालय से कबूतर के जोड़े आ के सब को दर्शन देकर चले जाते हैं, क्या यह भी मानने योग्य नहीं?
(उत्तर) नहीं। उस तालाब का नाममात्र अमृतसर है। जब कभी जंगल होगा तब उस का जल अच्छा होगा। इस से उस का नाम अमृतसर धरा होगा। जो अमृत होता तो पुराणियों के मानने के तुल्य कोई क्यों मरता। भित्ती की कुछ बनावट ऐसी होगी जिससे नमती होगी और गिरती न होगी। रीठे कलम के पैबन्दी होंगे अथवा गपोड़ा होगा। रेवालसर में बेड़ा तरने में कुछ कारीगरी होगी। अमरनाथ में बर्फ के पहाड़ बनते हैं तो जल जम के छोटे लिंग का बनना कौन आश्चर्य है? और कबूतर के जोड़े पालित होंगे, पहाड़ की आड़ में से मनुष्य छोड़ते होंगे, दिखला कर टका हरते होंगे।
(प्रश्न) हरद्वार स्वर्ग का द्वार हर की पैड़ी में स्नान करे तो पाप छूट जाते हैं और तपोवन में रहने से तपस्वी होता। देवप्रयाग, गंगोत्तरी में गोमुख, उत्तरकाशी में गुप्तकाशी, त्रियुगी नारायण के दर्शन होते हैं। केदार और बदरीनारायण की पूजा छः महीने तक मनुष्य और छः महीने तक देवता करते हैें। महादेव का मुख नैपाल में पशुपति, चूतड़ केदार और तुंगनाथ में, जानु और पग अमरनाथ में। इन के दर्शन, स्पर्शन, स्नान करने से मुक्ति हो जाती है। वहां केदार और बदरी से स्वर्ग जाना चाहै तो जा सकता है। इत्यादि बातें कैसी हैं?
(उत्तर) हरद्वार उत्तर पहाड़ों में जाने का एक मार्ग का आरम्भ है। हर की पैड़ी एक स्नान के लिये कुण्ड की सीढ़ियों को बनाया है। सच पूछो तो ‘हाड़पैड़ी’ है क्योंकि देशदेशान्तर के मृतकों के हाड़ उस में पड़ा करते हैं। पाप कभी कहीं नहीं छूट सकते, विना भोगे अथवा नहीं कटते। ‘तपोवन’ जब होगा तब होगा। अब तो ‘भिक्षुकवन’ है। तपोवन में जाने, रहने से तप नहीं होता किन्तु तप तो करने से होता है। क्योंकि वहाँ बहुत से दुकानदार झूठ बोलने वाले भी रहते हैं। ‘हिमवतः प्रभवति गंगा’ पहाड़ के ऊपर से जल गिरता है। गोमुख का आकार टका लेने वालों ने बनाया होगा और वही पहाड़ पोप का स्वर्ग है। वहाँ उत्तरकाशी आदि स्नान ध्यानियों के लिये अच्छा है परन्तु दुकानदारों के लिये वहां भी दुकानदारी है। देवप्रयाग पुराणों के गपोड़ों की लीला है अर्थात् जहां अलखनन्दा और गंगा मिली है इसलिये वहां देवता वसते हैं; ऐसे गपोड़े न मारें तो वहां कौन जाय? और टका कौन देवे? गुप्तकाशी तो नहीं है वह प्रसिद्ध काशी है। तीन युग की धूनी तो नहीं दीखती परन्तु पोपों की दश-बीस पीढ़ी की होगी। जैसी खाखियों की धूनी और पार्सियों की अग्यारी सदैव जलती रहती है। तप्तकुण्ड भी पहाड़ों के भीतर ऊष्मा गर्मी होती है उसमें तप कर जल आता है। उसके पास दूसरे कुण्ड में ऊपर का जल वा जहां गर्मी नहीं वहां का आता है; इस से ठण्डा है। केदार का स्थान वह भूमि बहुत अच्छी है। परन्तु वहां भी एक जमे हुए पत्थर पर पुजारी वा उनके चेलों ने मन्दिर बना रखा है। वहां महन्त पुजारी पण्डे आंख के अन्वमे गांठ के पूरों से माल लेकर विषयानन्द करते हैं। वैसे ही बदरीनारायण में ठग विद्यावाले बहुत से बैठे हैं। ‘रावल जी’ वहां के मुख्य हैं। एक स्त्री छोड़ अनेक स्त्री रख बैठे हैं। पशुपति एक मन्दिर और पञ्चमुखी मूर्त्ति का नाम धर रखा है। जब कोई न पूछे तभी ऐसी लीला बलवती होती है। परन्तु जैसे तीर्थ के लोग धूर्त धनहरे होते हैं वैसे पहाड़ी लोग नहीं होते। वहां की भूमि बड़ी रमणीय और पवित्र है।
(प्रश्न) विन्ध्याचल में विन्ध्येश्वरी काली अष्टभुजा प्रत्यक्ष सत्य है। विन्ध्येश्वरी तीन समय में तीन रूप बदलती है और उसके बाड़े में मक्खी एक भी नहीं होती। प्रयाग तीर्थराज वहां शिर मुण्डाये सिद्धि, गंगा यमुना के संगम में स्नान करने से इच्छासिद्धि होती है। वैसे ही अयोध्या कई बार उड़ कर सब बस्ती सहित स्वर्ग में चली गई। मथुरा सब तीर्थों से अधिक; वृन्दावन लीलास्थान और गोवर्द्धन व्रजयात्र बड़े भाग्य से होती है। सूर्यग्रहण में कुरुक्षेत्र में लाखों मनुष्यों का मेला होता है। क्या ये सब बातें मिथ्या हैं?
(उत्तर) प्रत्यक्ष तो आंखों से तीनों मूर्त्तियां दीखती हैं कि पाषाण की मूर्त्तियां हैं। और तीन काल में तीन प्रकार के रूप होने का कारण पुजारी लोगों के वस्त्र आदि आभूषण पहिराने की चतुराई है और मक्खियां सहस्रों लाखों होती हैं; मैंने अपनी आंखों से देखा है। प्रयाग में कोई नापित श्लोक बनानेहारा अथवा पोप जी को कुछ धन देके मुण्डन कराने का माहात्म्य बनाया वा बनवाया होगा। प्रयाग में स्नान करके स्वर्ग को जाता तो लौटकर घर में आता कोई भी नहीं दीखता किन्तु घर को सब आते हुए दीखते हैं। अथवा जो कोई वहां डूब मरता और उस का जीव भी आकाश में वायु के साथ घूम कर जन्म लेता होगा। तीर्थराज भी नाम टका लेने वालों ने धरा है। जड़ में राजा प्रजाभाव कभी नहीं हो सकता। यह बड़ी असम्भव बात है कि अयोध्या नगरी वस्ती, कुत्ते, गधे, भंगी, चमार, जाजरू सहित तीन बार स्वर्ग में चली गई। स्वर्ग में तो नहीं गई, वहीं की वहीं है परन्तु पोप जी के मुख गपोड़ों में अयोध्या स्वर्ग को उड़ गई। यह गपोड़ा शब्दरूप उड़ता फिरता है। ऐसी ही नैमिषारण्य आदि की भी पोपलीला जाननी। ‘मथुरा तीन लोक से निराली’ तो नहीं परन्तु उसमें तीन जन्तु बड़े लीला- धारी हैं कि जिन के मारे जल, स्थल और अन्तरिक्ष में किसी को सुख मिलना कठिन है। एक चौबे जो कोई स्नान करने जाय अपना कर लेने को खड़े रह कर बकते रहते हैं-‘लाओ यजमान। भांग मर्ची और लड्डू खावें, पीवें। यजमान की जै-जै मनावें।’ दूसरे जल में कछुवे काट ही खाते हैं, जिन के मारे स्नान करना भी घाट पर कठिन पड़ता है। तीसरे आकाश के ऊपर लालमुख के बन्दर पगड़ी, टोपी, गहने और जूते तक भी नहीं छोड़ें, काट खावें, धक्के दे, गिरा मार डालें और ये तीनों पोप और पोप जी के चेलों के पूजनीय हैं। मनों चना आदि अन्न कछुवे और बन्दरों को चना गुड़ आदि और चौबों की दक्षिणा और लड्डुओं से उन के सेवक सेवा किया करते हैं। और वृन्दावन जब था तब था अब तो वेश्यावनवत् लल्ला लल्ली और गुरु चेली आदि की लीला फैल रही है। वैसे ही दीपमालिका का मेला गोवर्द्धन और व्रजयात्र में भी पोपों की बन पड़ती है। कुरुक्षेत्र में भी वही जीविका की लीला समझ लो। इन में जो कोई धार्मिक परोपकारी पुरुष है इस पोपलीला से पृथक् हो जाता है।
(प्रश्न) यह मूर्त्तिपूजा और तीर्थ सनातन से चले आते हैं; झूठे क्योंकर हो सकते हैं?
(उत्तर) तुम सनातन किस को कहते हो। जो सदा से चला आता है। जो यह सदा से होता तो वेद और ब्राह्मणादि ऋषिमुनिकृत पुस्तकों में इन का नाम क्यों नहीं? यह मूर्त्तिपूजा अढ़ाई तीन सहस्र वर्ष के इधर-इधर वाममार्गी और जैनियों से चली है। प्रथम आर्य्यावर्त्त में नहीं थी। और ये तीर्थ भी नहीं थे। जब जैनियों ने गिरनार, पालिटाना, शिखर, शत्रुञ्जय और आबू आदि तीर्थ बनाये, उन के अनुकूल इन लोगों ने भी बना लिये। जो कोई इनके आरम्भ की परीक्षा करना चाहें वे पण्डों की पुरानी से पुरानी बही और तांबे के पत्र आदि लेख देखें तो निश्चय हो जायेगा कि ये सब तीर्थ पाँच सौ अथवा सहस्र वर्ष से इधर ही बने हैं। सहस्र वर्ष के उधर का लेख किसी के पास नहीं निकलता, इस से आधुनिक हैं।
(प्रश्न) जो-जो तीर्थ वा नाम का माहात्म्य अर्थात् जैसे ‘अन्यक्षेत्रे कृतं पापं काशीक्षेत्रे विनश्यति ।’ इत्यादि बातें हैं वे सच्ची हैं वा नहीं? (उत्तर) नहीं। क्योंकि जो पाप छूट जाते हों तो दरिद्रों को धन, राजपाट; अन्धों को आंख मिल जाती; कोढ़ियों का कोढ़ आदि रोग छूट जाता; ऐसा नहीं होता। इसलिये पाप वा पुण्य किसी का नहीं छूटता।
(प्रश्न) गंगा गंगेति यो ब्रूयाद्योजनानां शतैरपि ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति।।१।।
हरिर्हरति पापानि हरिरित्यक्षरद्वयम्।।२।।
प्रात काले शिवं दृष्ट्वा निशि पापं विनश्यति ।
आजन्मकृतं मध्याह्ने सायाह्ने सप्तजन्मनाम्।।३।।
इत्यादि श्लोक पोपपुराण के हैं। जो सैकड़ों सहस्रों कोश दूर से भी गंगा-गंगा कहै तो उस के सब पाप नष्ट होकर वह विष्णुलोक अर्थात् वैकुण्ठ को जाता है।।१।।
‘हरि’ इन दो अक्षरों का नामोच्चारण सब पाप को हर लेता है। वैसे ही राम, कृष्ण, शिव, भगवती आदि नामों का माहात्म्य है।।२।।
और जो मनुष्य प्रातःकाल में शिव अर्थात् लिंग वा उस की मूर्त्ति का दर्शन करे तो रात्रि में किया हुआ; मध्याह्न में दर्शन से जन्म भर का, सायंकाल में दर्शन करने से सात जन्मों का पाप छूट जाता है। यह दर्शन का माहात्म्य है।।३।।
क्या झूठा हो जायेगा?
(उत्तर) मिथ्या होने में क्या शंका? क्योंकि गंगा-गंगा वा हरे, राम, कृष्ण, नारायण, शिव और भगवती नामस्मरण से पाप कभी नहीं छूटता। जो छूटे तो दुःखी कोई न रहै। और पाप करने से कोई भी न डरे, जैसे आजकल पोपलीला में पाप बढ़ कर हो रहे हैं। मूढ़ों को विश्वास है कि हम पाप कर नामस्मरण वा तीर्थयात्र करेंगे तो पापों की निवृत्ति हो जायेगी। इसी विश्वास पर पाप करके इस लोक और परलोक का नाश करते हैं, पर किया हुआ पाप भोगना ही पड़ता है।
(प्रश्न) तो कोई तीर्थ नामस्मरण सत्य है वा नहीं?
(उत्तर) है-वेदादि सत्य शास्त्रें का पढ़ना-पढ़ाना, धार्मिक विद्वानों का संग, परोपकार, धर्मानुष्ठान, योगाभ्यास, निर्वैर, निष्कपट, सत्यभाषण, सत्य का मानना; सत्य करना; ब्रह्मचर्य्य, आचार्य्य, अतिथि, माता, पिता की सेवा; परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना; शान्ति, जितेन्द्रियता, सुशीलता, धर्मयुक्तपुरुषार्थ, ज्ञान-विज्ञान आदि शुभगुण, कर्म दुःखों से तारने वाले होने से तीर्थ हैं। और जो जल स्थलमय हैं वे तीर्थ कभी नहीं हो सकते क्योंकि ‘जना यैस्तरन्ति तानि तीर्थानि’ मनुष्य जिन करके दुःखों से तरें उन का नाम तीर्थ है। जल स्थल तराने वाले नहीं किन्तु डुबाकर मारने वाले हैं। प्रत्युत नौका आदि का नाम तीर्थ हो सकता है क्योंकि उन से भी समुद्र आदि को तरते हैं।
समानतीर्थे वासी।।१।। -अष्टा० ४। ४। १०७।।
नमस्तीर्थ्याय च ।।२।। यजुः० अ० १६।।
जो ब्रह्मचारी एक आचार्य्य से और एक शास्त्र को साथ-साथ पढ़ते हों वे सब सतीर्थ्य अर्थात् समानतीर्थसेवी होते हैं।।१।। जो वेदादि शास्त्र और सत्यभाषणादि धर्म लक्षणों में साधु हो उस को अन्नादि पदार्थ देना और उन से विद्या लेनी इत्यादि तीर्थ कहाते हैं।।२।। नामस्मरण इस को कहते हैं कि-
यस्य नाम महद्यशः ।। यजु०।।
परमेश्वर का नाम बड़े यश अर्थात् धर्मयुक्त कामों का करना है। जैसे ब्रह्म, परमेश्वर, ईश्वर, न्यायकारी, दयालु, सर्वशक्तिमान् आदि नाम परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव से हैं। जैसे ब्रह्म सब से बड़ा, परमेश्वर ईश्वरों का ईश्वर, ईश्वर सामर्थ्ययुक्त, न्यायकारी कभी अन्याय नहीं करता, दयालु सब पर कृपादृष्टि रखता, सर्वशक्तिमान् अपने सामर्थ्य ही से सब जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय करता, सहाय किसी का नहीं लेता। ब्रह्मा विविध जगत् के पदार्थों का बनानेहारा, विष्णु सब में व्यापक होकर रक्षा करता, महादेव सब देवों का देव, रुद्र प्रलय करनेहारा आदि नामों के अर्थों को अपने में धारण करे अर्थात् बड़े कामों से बड़ा हो, समर्थों में समर्थ हो, सामर्थ्यों को बढ़ाता जाय। अधर्म कभी न करे। सब पर दया रक्खे। सब प्रकार के साधनों को समर्थ करे। शिल्प विद्या से नाना प्रकार के पदार्थों को बनावे। सब संसार में अपने आत्मा के तुल्य सुख-दुःख समझे। सब की रक्षा करे। विद्वानों में विद्वान् होवे। दुष्ट कर्म और दुष्ट कर्म करने वालों को प्रयत्न से दण्ड और सज्जनों की रक्षा करे। इस प्रकार परमेश्वर के नामों का अर्थ जानकर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल अपने गुण, कर्म, स्वभाव को करते जाना ही परमेश्वर का नामस्मरण है।
(प्रश्न) गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वर ।
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नम ।।
इत्यादि गुरुमाहात्म्य तो सच्चा है? गुरु के पग धोके पीना, जैसी आज्ञा करे वैसा करना, गुरु लोभी हो तो वामन के समान, क्रोधी हो तो नरसिह के सदृश, मोही हो तो राम के तुल्य और कामी हो तो कृष्ण के समान गुरु को जानना। चाहै गुरु जी कैसा ही पाप करे तो भी अश्रद्धा न करनी। सन्त वा गुरु के दर्शन को जाने में पग-पग में अश्वमेध का फल होता है। यह बात ठीक है वा नहीं?
(उत्तर) ठीक नहीं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर और परब्रह्म परमेश्वर के नाम हैं। उसके तुल्य गुरु कभी नहीं हो सकता। यह गुरुमाहात्म्य गुरुगीता भी एक बड़ी पोपलीला है। गुरु तो माता, पिता, आचार्य और अतिथि होते हैं। उन की सेवा करनी, उन से विद्या, शिक्षा लेनी देनी, शिष्य और गुरु का काम है। परन्तु जो गुरु लोभी, क्रोधी, मोही और कामी हो तो उस को सर्वथा छोड़ देना, शिक्षा करनी, सहज शिक्षा से न माने तो अर्घ्य, पाद्य अर्थात् ताड़ना दण्ड प्राणहरण तक भी करने में कुछ भी दोष नहीं। जो विद्यादि सदगुणों में गुरुत्व नहीं है, झूठ-मूठ कण्ठी तिलक वेद-विरुद्ध मन्त्रेपदेश करने वाले हैं वे गुरु ही नहीं किन्तु गड़रिये जैसे हैं। जैसे गड़रिये अपनी भेड़ बकरियों से दूध आदि से प्रयोजन सिद्ध करते हैं वैसे ही शिष्यों के चेले चेलियों के धन हर के अपना प्रयोजन करते हैं। वे- दोन- गुरु लोभी चेला लालची, दोनों खेलें दाव ।
भवसागर में डूबते, बैठ पत्थर की नाव।।
गुरु समझें कि चेले चेली कुछ न कुछ देवें हींगे और चेला समझे कि चलो गुरु झूठे सोगन्द खाने, पाप छुड़ाने आदि लालच से दोनों कपटमुनि भवसागर के दुःख में डूबते हैं। जैसे पत्थर की नौका में बैठने वाले समुद्र में डूब मरते हैं। ऐसे गुरु और चेलों के मुख पर धूड़ राख पड़े। उन के पास कोई भी खड़ा न रहै जो रहै वह दुःखसागर में पड़ेगा। जैसी पोपलीला पुजारी पुराणियों ने चलाई है वैसी इन गड़रिये गुरुओं ने भी लीला मचाई है। यह सब काम स्वार्थी लोगों का है । जो परमार्थी लोग हैं वे आप दुःख पावें तो भी जगत् का उपकार करना नहीं छोड़ते। और गुरु माहात्म्य तथा गुरुगीता आदि भी इन्हीं लोभी कुकर्मी गुरुओं ने बनाई है ।
(प्रश्न) अष्टादशपुराणानां कर्त्ता सत्यवतीसुत ।।१।।
इतिहासपुराणाभ्यां वेदार्थमुपबृंहयेत्।।२।। -महाभारते।।
पुराणानि खिलानि च।।३।। -मनुन।।
इतिहासपुराण पञ्चमो वेदानां वेद ।।४।। -छान्दोग्य।।
दशमेऽहनि किञ्चित्पुराणमाचक्षीत।।५।।
पुराणविद्या वेद ।।६।। सूत्रम्।।
अठारह पुराणों के कर्त्ता व्यास जी हैं। व्यासवचन का प्रमाण अवश्य करना चाहिये।।१।। इतिहास, महाभारत, अठारह पुराणों से वेदों का अर्थ पढ़ें पढ़ावें क्योंकि इतिहास और पुराण वेदों ही के अर्थ के अनुकूल हैं।।२।।
पितृकर्म में पुराण और हरिवंश की कथा सुनें।।३।। इतिहास और पुराण पञ्चम वेद कहाते हैं।।४।। अश्वमेध की समाप्ति में दशमे दिन थोड़ी सी पुराण की कथा सुनें।।५।। पुराण विद्या वेदार्थ के जनाने ही से वेद हैं।।६।।
इत्यादि प्रमाणों से पुराणों का प्रमाण और इन के प्रमाणों से मूर्त्तिपूजा और तीर्थों का भी प्रमाण है क्योंकि पुराणों में मूर्त्तिपूजा और तीर्थों का विधान है।
(उत्तर) जो अठारह पुराणों के कर्त्ता व्यास जी होते तो उन में इतने गपोड़े न होते। क्योंकि शारीरक सूत्रें, योगशास्त्र के भाष्य आदि व्यासोक्त ग्रन्थों के देखने से विदित होता है कि व्यास जी बड़े विद्वान्, सत्यवादी, धार्मिक, योगी थे। वे ऐसी मिथ्या कथा कभी न लिखते। और इस से यह सिद्ध होता है कि जिन सम्प्रदायी परस्पर विरोधी लोगों ने भागवतादि नवीन कपोलकल्पित ग्रन्थ बनाये हैं उन में व्यास जी के गुणों का लेश भी नहीं था। और वेदशास्त्र विरुद्ध असत्यवाद लिखना व्यास जी सदृश विद्वानों का काम नहीं किन्तु यह काम वेदशास्त्र विरोधी, स्वार्थी, अविद्वान् लोगों का है। इतिहास और पुराण शिवपुराणादि का नाम नहीं । किन्तु-
ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानि कल्पान् गाथानाराशंसीरिति।।
यह ब्राह्मण और सूत्रें का वचन है। ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथ ब्राह्मण ग्रन्थों ही के इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी ये पांच नाम हैं। (इतिहास) जैसे जनक और याज्ञवल्क्य का संवाद। (पुराण) जगदुत्पत्ति आदि का वर्णन। (कल्प) वेद शब्दों के सामर्थ्य का वर्णन, अर्थ निरूपण करना (गाथा) किसी का दृष्टान्त दार्ष्टान्तरूप कथा प्रसंग कहना। (नाराशंसी) मनुष्यों के प्रशंनीय वा अप्रशंनीय कर्मों का कथन करना। इन ही से वेदार्थ का बोध होता है। पितृकर्म अर्थात् ज्ञानियों की प्रशंसा में कुछ सुनना। अश्वमेध के अन्त में भी इन्हीं का सुनना लिखा है क्योंकि जो व्यासकृत ग्रन्थ हैं उन का सुनना सुनाना व्यास जी के जन्म के पश्चात् हो सकता है; पूर्व नहीं। जब व्यास जी का जन्म भी नहीं था तब वेदार्थ को पढ़ते-पढ़ाते सुनते-सुनाते थे। इसीलिये सब से प्राचीन ब्राह्मण ग्रन्थों ही में यह सब घटना हो सकती हैं। इन नवीन कपोलकल्पित श्रीमद्भागवत शिवपुराणादि मिथ्या वा दूषित ग्रन्थों में नहीं घट सकती? जब व्यास जी ने वेद पढ़े और पढ़ा कर वेदार्थ फैलाया इसीलिये उन का नाम ‘वेदव्यास’ हुआ। क्योंकि व्यास कहते हैं वार पार की मध्य रेखा को अर्थात् ऋग्वेद के आरम्भ से लेकर अथर्ववेद के पार पर्यन्त चारों वेद पढ़े थे औेर शुकदेव तथा जैमिनि आदि शिष्यों को पढ़ाये भी थे। नहीं तो उन का जन्म का नाम ‘कृष्णद्वैपायन’ था जो कोई यह कहते हैं कि वेदों को व्यास जी ने इकट्ठे किये यह बात झूठी है क्योंकि व्यास जी के पिता, पितामह, प्रपितामह, पराशर, शक्ति वशिष्ठ और ब्रह्मा आदि ने भी चारों वेद पढ़े थे; यह बात क्योंकर घट सके ?
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Pitrukam means to hear something in praise of the learned. At the end of Ashwamedha, it is also written to listen to them because listening to those who are Vyasarika texts can be recited after the birth of Vyas ji; Not the former. When Vyas ji was not even born, he used to read and listen to Vedarth. That is why all these incidents can happen in the ancient Brahmin texts only. Can not these new fabled Srimad Bhagwat Shivpuranadi fall into false or corrupt texts?
Eleventh Chapter Part - 4 of Satyarth Prakash (the Light of Truth) | Arya Samaj Raipur | Arya Samaj Mandir Raipur | Arya Samaj Mandir Marriage Helpline Raipur | Aryasamaj Mandir Helpline Raipur | inter caste marriage Helpline Raipur | inter caste marriage promotion for prevent of untouchability in Raipur | Arya Samaj Raipur | Arya Samaj Mandir Raipur | arya samaj marriage Raipur | arya samaj marriage rules Raipur | inter caste marriage promotion for national unity by Arya Samaj Raipur | human rights in Raipur | human rights to marriage in Raipur | Arya Samaj Marriage Guidelines Raipur | inter caste marriage consultants in Raipur | court marriage consultants in Raipur | Arya Samaj Mandir marriage consultants in Raipur | arya samaj marriage certificate Raipur | Procedure of Arya Samaj Marriage Raipur | arya samaj marriage registration Raipur | arya samaj marriage documents Raipur | Procedure of Arya Samaj Wedding Raipur | arya samaj intercaste marriage Raipur | arya samaj wedding Raipur | arya samaj wedding rituals Raipur | arya samaj wedding legal Raipur | arya samaj shaadi Raipur | arya samaj mandir shaadi Raipur | arya samaj shadi procedure Raipur | arya samaj mandir shadi valid Raipur | arya samaj mandir shadi Raipur | inter caste marriage Raipur | validity of arya samaj marriage certificate Raipur | validity of arya samaj marriage Raipur | Arya Samaj Marriage Ceremony Raipur | Arya Samaj Wedding Ceremony Raipur | Documents required for Arya Samaj marriage Raipur | Arya Samaj Legal marriage service Raipur | Arya Samaj Pandits Helpline Raipur | Arya Samaj Pandits Raipur | Arya Samaj Pandits for marriage Raipur | Arya Samaj Temple Raipur | Arya Samaj Pandits for Havan Raipur | Arya Samaj Pandits for Pooja Raipur | Pandits for marriage Raipur | Pandits for Pooja Raipur | Arya Samaj Pandits for vastu shanti havan | Vastu Correction without Demolition Raipur | Arya Samaj Pandits for Gayatri Havan Raipur | Vedic Pandits Helpline Raipur | Hindu Pandits Helpline Raipur | Pandit Ji Raipur, Arya Samaj Intercast Matrimony Raipur | Arya Samaj Hindu Temple Raipur | Hindu Matrimony Raipur | सत्यार्थप्रकाश | वेद | महर्षि दयानन्द सरस्वती | विवाह समारोह, हवन | आर्य समाज पंडित | आर्य समाजी पंडित | अस्पृश्यता निवारणार्थ अन्तरजातीय विवाह | आर्य समाज मन्दिर | आर्य समाज मन्दिर विवाह | वास्तु शान्ति हवन | आर्य समाज मन्दिर आर्य समाज विवाह भारत | Arya Samaj Mandir Marriage Raipur Chhattisgarh India
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