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एकादश समुल्लास भाग -5

(प्रश्न) पुराणों में सब बातें झूठी हैं वा कोई सच्ची भी है?

(उत्तर) बहुत सी बातें झूठी हैं और कोई घुणाक्षरन्याय से सच्ची भी हैं। जो सच्ची हैं वे वेदादि सत्यशास्त्रें की और जो झूठी हैं वे इन पोपों के पुराणरूप घर की हैं। जैसे शिवपुराण में शैवों ने शिव को परमेश्वर मान के विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, गणेश और सूर्य्यादि को उन के दास ठहराये। वैष्णवों ने विष्णुपुराण आदि में विष्णु को परमात्मा माना और शिव आदि को विष्णु के दास। देवीभागवत में देवी को परमेश्वरी और शिव, विष्णु आदि को उस के किंकर बनाये। गणेशखण्ड में गणेश को ईश्वर और शेष सब को दास बनाये। भला यह बात इन सम्प्रदायी लोगों की नहीं तो किन की है? एक मनुष्य के बनाने में ऐसी परस्पर विरुद्ध बात नहीं होती तो विद्वान् के बनाये में कभी नहीं आ सकती। इस में एक बात को सच्ची मानें तो दूसरी झूठी और जो दूसरी को सच्ची मानें तो तीसरी झूठी और जो तीसरी को सच्ची मानें अन्य सब झूठी होती हैं। शिवपुराणवाले ने शिव से, विष्णुपुराणवालों ने विष्णु से, देवीपुराणवाले ने देवी से, गणेशखण्डवाले ने गणेश से, सूर्य्यपुराणवाले ने सूर्य्य से और वायुपुराणवाले ने वायु से सृष्टि की उत्पत्ति प्रलय लिखके पुनः एक-एक से एक-एक जो जगत् के कारण लिखे उन की उत्पत्ति एक-एक से लिखी। कोई पूछे कि जो जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय करनेवाला है वह उत्पन्न और जो उत्पन्न होता है वह सृष्टि का कारण कभी हो सकता है वा नहीं? तो केवल चुप रहने के सिवाय कुछ भी नहीं कह सकते औेर इन सब के शरीर की उत्पत्ति भी इसी से हुई होगी । 

फिर वे आप सृष्टि पदार्थ और परिच्छिन्न होकर संसार की उत्पत्ति के कर्त्ता क्योंकर हो सकते हैं? और उत्पत्ति भी विलक्षण-विलक्षण प्रकार से मानी है जो कि सर्वथा असम्भव है। जैसे- शिवपुराण में शिव ने इच्छा की कि मैं सृष्टि करूं तो एक नारायण जलाशय को उत्पन्न कर उस की नाभि से कमल, कमल में से ब्रह्मा उत्पन्न हुआ। उस ने देखा कि सब जलमय है। जल की अंजलि उठा देख जल में पटक दी। उस से एक बुद्बुदा उठा और बुद्बुदे में से एक पुरुष उत्पन्न हुआ। उस ने ब्रह्मा से कहा कि हे पुत्र ! सृष्टि उत्पन्न कर। ब्रह्मा ने उस से कहा कि मैं तेरा पुत्र नहीं किन्तु तू मेरा पुत्र है। उन में विवाद हुआ और दिव्यसहस्रवर्षपर्यन्त दोनों जल पर लड़ते रहे। तब महादेव ने विचार किया कि जिन को मैंने सृष्टि करने के लिये भेजा था वे दोनों आपस में लड़ झगड़ रहे हैं। तब उन दोनों के बीच में से एक तेजोमय लिंग उत्पन्न हुआ और वह शीघ्र आकाश में चला गया। उस को देख के दोनों साश्चर्य हो गये। विचारा कि इस का आदि अन्त लेना चाहिये। जो आदि अन्त लेके शीघ्र आवे वह पिता और पीछे वा थाह लेके न आवे वह पुत्र कहावे। विष्णु कूर्म का स्वरूप धर के नीचे को चला और ब्रह्मा हंस का शरीर धारण करके ऊपर को उड़ा। दोनों मनोवेग से चले। दिव्यसहस्रवर्ष पर्य्यन्त दोनों चलते रहे तो भी उस का अन्त न पाया। तब नीचे से ऊपर विष्णु और ऊपर से नीचे ब्रह्मा चला। ब्रह्मा ने विचारा कि जो वह छेड़ा ले आया होगा तो मुझ को पुत्र बनना पड़ेगा। ऐसा सोच रहा था कि उसी समय एक गाय और केतकी का वृक्ष ऊपर से उतर आया। उन से ब्रह्मा ने पूछा कि तुम कहां से आये? उन्होंने कहा हम सहस्र वर्षों से इस लिंग के आधार से चले आते हैं। ब्रह्मा ने पूछा कि इस लिंग का थाह है वा नहीं? उन्होंने कहा कि नहीं। ब्रह्मा ने उन से कहा कि तुम हमारे साथ चलो और ऐसी साक्षी देओ कि मैं इस लिंग के शिर पर दूध की धारा वर्षाती थी और वृक्ष कहे कि मैं फूल वर्षाता था; ऐसी साक्षी देओ तो मैं तुम को ठिकाने पर ले चलूं। उन्होंने कहा कि हम झूठी साक्षी नहीं देंगे। तब ब्रह्मा कुपित होकर बोला जो साक्षी नहीं देओगे तो मैं तुम को अभी भस्म करे देता हूं। तब दोनों ने डर के कहा कि हम जैसी तुम कहते हो वैसी साक्षी देवेंगे। तब तीनों नीचे की ओर चले।

विष्णु प्रथम ही आ गये थे, ब्रह्मा भी पहुंचा। विष्णु से पूछा कि तू थाह ले आया वा नहीं? तब विष्णु बोला मुझ को इसका थाह नहीं मिला। ब्रह्मा ने कहा मैं ले आया। विष्णु ने कहा कोई साक्षी देओ। 

तब गाय और वृक्ष ने साक्षी दी। हम दोनों लिंग के सिर पर थे। तब लिंग में से शब्द निकला और वृक्ष को शाप दिया कि जिस से तू झूठ बोला इसलिये तेरा फूल मुझ पर वा अन्य देवता पर जगत् में कहीं नहीं चढ़ेगा और जो कोई चढ़ावेगा उस का सत्यानाश होगा। गाय को शाप दिया जिस मुख से तू झूठ बोली उसी से विष्ठा खाया करेगी। तेरे मुख की पूजा कोई नहीं करेगा किन्तु पूँछ की करेंगे। 

और ब्रह्मा को शाप दिया कि तू मिथ्या बोला इसलिये तेरी पूजा संसार में कहीं न होगी। और विष्णु को वर दिया तू सत्य बोला इस से तेरी पूजा सर्वत्र होगी। पुनः दोनों ने लिंग की स्तुति की। उस से प्रसन्न होकर उस लिंग से एक जटाजूट मूर्त्ति निकल आई और कहा कि तुम को मैंने सृष्टि करने के लिये भेजा था; झगड़े में क्यों लगे रहे? ब्रह्मा और विष्णु ने कहा कि हम विना सामग्री सृष्टि कहां से करें। तब महादेव ने अपनी जटा में से एक भस्म का गोला निकाल कर दिया कि जाओ इस में से सब सृष्टि बनाओ; इत्यादि। भला कोई इन पुराणों के बनाने वालों से पूछे कि जब सृष्टि तत्त्व और पञ्चमहाभूत भी नहीं थे तो ब्रह्मा, विष्णु, महादेव के शरीर, जल, कमल, लिंग, गाय और केतकी का वृक्ष और भस्म का गोला क्या तुम्हारे बाबा के घर में से आ गिरे?

वैसे ही भागवत में विष्णु की नाभि से कमल, कमल से ब्रह्मा और ब्रह्मा के दहिने पग के अंगूठे से स्वायम्भव और बायें अंगूठे से शतरूपा राणी, ललाट से रुद्र और मरीचि आदि दश पुत्र, उन से दक्ष प्रजापति, उन की तेरह लड़कियों का विवाह कश्यप से, उनमें से दिति से दैत्य, दनु से दानव, अदिति से आदित्य, विनता से पक्षी, कद्र्रू से सर्प, सरमा से कुत्ते, स्याल आदि और अन्य स्त्रियों से हाथी, घोड़े, ऊंट, गधा, भैंसा, घास, फूस और बबूल आदि वृक्ष कांटे सहित उत्पन्न हो गये। वाह रे वाह! भागवत के बनाने वाले लालभुजक्कड़? क्या कहना! तुझ को ऐसी-ऐसी मिथ्या बातें लिखने में तनिक भी लज्जा और शर्म न आई, निपट अन्धा ही बन गया। स्त्री पुरुष के रजवीर्य के संयोग से मनुष्य तो बनते ही हैं परमेश्वर की सृष्टिक्रम के विरुद्ध पशु, पक्षी, सर्प आदि कभी उत्पन्न नहीं हो सकते। और हाथी, ऊँट, सिह, कुत्ता, गधा और वृक्षादि का स्त्री के गर्भाशय में स्थित होने का अवकाश कहां हो सकता है? और सिह आदि उत्पन्न होकर अपने मां बाप को क्यों न खा गये? और मनुष्य-शरीर से पशु पक्षी वृक्षादि का उत्पन्न होना क्यों कर सम्भव हो सकता है? शोक है, इन लोगों की रची हुई इस महा असम्भव लीला पर जिस ने संसार को अभी तक भ्रमा रक्खा है! भला इन महाझूठ बातों को वे अन्धे पोप और बाहर भीतर की फूटी आंखों वाले उन के चेले सुनते और मानते हैं। बडे़ ही आश्चर्य की बात है कि ये मनुष्य हैं वा अन्य कोई!!! इन भागवतादि पुराणों के बनाने हारे जन्मते ही क्यों नहीं गर्भ ही में नष्ट हो गये? वा जन्मते समय मर क्यों न गये? क्योंकि इन पापों से बचते तो आर्यावर्त्त देश दुःखों से बच जाता।

(प्रश्न) इन बातों में विरोध नहीं आ सकता क्योंकि ‘जिसका विवाह उसी के गीत’ जब विष्णु की स्तुति करने लगे तब विष्णु को परमेश्वर अन्य को दास; जब शिव के गुण गाने लगे तब शिव को परमात्मा अन्य को किंकर बनाया। और परमेश्वर की माया में सब बन सकता है। मनुष्य से पशु आदि और पशु आदि से मनुष्यादि की उत्पत्ति परमेश्वर कर सकता है। देखो! विना कारण अपनी माया से सब सृष्टि खड़ी कर दी है। उस में कौन सी बात अघटित है? जो करना चाहै सो सब कर सकता है।

(उत्तर) अरे भोले लोगो! विवाह में जिस के गीत गाते हैं उस को सब से बड़ा और दूसरों को छोटा वा निन्दा अथवा उस को सब का बाप तो नहीं बनाते? कहो पोप जी। तुम भाट और खुशामदी चारणों से भी बढ़ कर गप्पी हो अथवा नहीं? कि जिस के पीछे लगो उसी को सब से बड़ा बनाओ और जिस से विरोध करो उस को सब से नीचे ठहराओ। तुम को सत्य और धर्म से क्या प्रयोजन? किन्तु तुम को तो अपने स्वार्थ ही से काम है। माया मनुष्य में हो सकती है। जो कि छली कपटी हैं उन्हीं को मायावी कहते हैं। परमेश्वर में छल कपटादि दोष न होने से उस को मायावी नहीं कह सकते। जो आदि सृष्टि में कश्यप और कश्यप की स्त्रियों से पशु, पक्षी, सर्प्प, वृक्षादि हुए होते तो आजकल भी वैसे सन्तान क्यों नहीं होते? सृष्टिक्रम जो पहले लिख आये; वही ठीक है। और अनुमान है कि पोप जी यहीं से धोखा खाकर बके होंगे-

तस्मात् काश्यप्य इमा प्रजा ।।
शतपथ में यह लिखा है कि यह सब सृष्टि कश्यप की बनाई हुई है।
कश्यप कस्मात् पश्यको भवतीति।। -निरु०।।
सृष्टिकर्त्ता परमेश्वर का नाम कश्यप इसलिये है कि पश्यक अर्थात् ‘पश्यतीति पश्य एव पश्यक ’ जो निर्भ्रम होकर चराचर जगत्, सब जीव और इन के कर्म, सकल विद्याओं को यथावत् देखता है और ‘आद्यन्तविपर्ययश्च’ इस महाभाष्य के वचन से आदि का अक्षर अन्त और अन्त का वर्ण आदि में आने से ‘पश्यक’ से ‘कश्यप’ बन गया है। इस का अर्थ न जान के भांग के लोटे चढ़ा अपना जन्म सृष्टिविरुद्ध कथन करने में नष्ट किया। जैसे मार्कण्डेयपुराण के दुर्गापाठ में देवों के शरीरों से तेज निकल के एक देवी बनी। उस ने महिषासुर को मारा। रक्तबीज के शरीर से एक बिन्दु भूमि में पड़ने से उस के सदृश रक्तबीज के उत्पन्न होने से सब जग्त में रक्तबीज भर जाना, रुधिर की नदी का बह चलना आदि गपोड़े बहुत से लिख रक्खे हैं। जब रक्तबीज से सब जगत् भर गया था तो देवी और देवी का सिह और उस की सेना कहां रही थी? जो कहो कि देवी से दूर-दूर रक्तबीज थे तो सब जगत् रक्तबीज से नहीं भरा था? जो भर जाता तो पशु, पक्षी, मनुष्यादि प्राणी और जलस्थ मगरमच्छ, कच्छप, मत्स्यादि, वनस्पति आदि वृक्ष कहां रहते? यहां यही निश्चित जानना कि दुर्गापाठ बनाने वाले पोप के घर में भाग कर चले गये होंगे!!! देखिये! क्या ही असम्भव कथा का गपोड़ा भंग की लहरी में उड़ाया जिसका ठौर न ठिकाना। अब जिस को ‘श्रीमद्भागवत’ कहते हैं उस की लीला सुनो! ब्रह्मा जी को नारायण ने चतुःश्लोकी भागवत का उपदेश किया-

ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम् ।
सरहस्यं तदंगञ्च गृहाण गदितं मया।। -भागवत।।

अर्थ- हे ब्रह्मा जी! तू मेरा परमगुह्य ज्ञान जो विज्ञान और रहस्ययुक्त और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का अंग है उसी का मुझ से ग्रहण कर। जब विज्ञानयुक्त ज्ञान कहा तो परम अर्थात् ज्ञान का विशेषण रखना व्यर्थ है और गुह्य विशेषण से रहस्य भी पुनरुक्त है। जब मूल श्लोक अनर्थक हैं तो ग्रन्थ अनर्थक क्यों नहीं? जब भागवत का मूल ही झूठा है तो उस का वृक्ष क्यों न झूठा होगा? ब्रह्मा जी को वर दिया कि- भवान् कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति किर्हचित्।। -भाग०।।

आप कल्प सृष्टि और विकल्प प्रलय में भी मोह को कभी न प्राप्त होंगे ऐसा लिख के पुनः दशमस्कन्ध में मोहित होके वत्सहरण किया। इन दोनों में से एक बात सच्ची दूसरी झूठी। ऐसा होकर दोनों बात झूठी। जब वैकुण्ठ में राग, द्वेष, क्रोध, ईर्ष्या, दुःख नहीं है तो सनकादिकों को वैकुण्ठ के द्वार में क्रोध क्यों हुआ? जो क्रोध हुआ तो वह स्वर्ग ही नहीं। तब जय विजय द्वारपाल थे। स्वामी की आज्ञा पालनी अवश्य थी। उन्होंने सनकादिकों को रोका तो क्या अपराध हुआ ? इस पर विना अपराध शाप ही नहीं लग सकता। जब शाप लगा कि तुम पृथिवी में गिर पड़ो, इस कहने से यह सिद्ध होता है कि वहां पृथिवी न होगी। आकाश, वायु, अग्नि और जल होगा तो ऐसा द्वार मन्दिर और जल किस के आधार थे? पुनः जय विजय ने सनकादिकों की स्तुति की कि महाराज! पुनः हम वैकुण्ठ में कब आवेंगे ? उन्होंने उन से कहा कि जो प्रेम से नारायण की भक्ति करोगे तो सातवें जन्म और जो विरोध से भक्ति करोगे तो तीसरे जन्म वैकुण्ठ को प्राप्त होओगे। इस में विचारना चाहिये कि जय विजय नारायण के नौकर थे। उन की रक्षा और सहाय करना नारायण का कर्त्तव्य काम था। जो अपने नौकरों को विना अपराध दुःख देवें उन को उन का स्वामी दण्ड न देवे तो उस के नौकरों की दुर्दशा सब कोई कर डाले। नारायण को उचित था कि जय विजय का सत्कार और सनकादिकों को खूब दण्ड देते, क्योंकि उन्होंने भीतर आने के लिये हठ क्यों किया? और नौकरों से लड़े, क्यों शाप दिया? उन के बदले सनकादिकों को पृथिवी में डाल देना नारायण का न्याय था? जब इतना अन्धेर नारायण के घर में है तो उस के सेवक जो कि वैष्णव कहाते हैं उनकी जितनी दुर्दशा हो उतनी थोड़ी है। पुनः वे हिरण्याक्ष और हिण्यकशिपु उत्पन्न हुए। उन में से हिरण्याक्ष को वराह ने मारा। उस की कथा इस प्रकार से लिखी हेै कि वह पृथिवी को चटाई के समान लपेट शिराने धर सो गया। विष्णु ने वराह का स्वरूप धारण करके शिर के नीचे से पृथिवी को मुख में धर लिया। वह उठा। दोनों की लड़ाई हुई। वराह ने हिरण्याक्ष को मार डाला। इन से कोई पूछे पृथिवी गोल है वा चटाई के समान? तो कुछ न कह सकेंगे, क्योंकि पौराणिक लोग भूगोलविद्या के शत्रु हैं। भला जब लपेट कर शिराने धर ली, आप किस पर सोया? और वराह जी किस पर पग धर के दौड़ आये? पृथिवी को तो वराह जी ने मुख में रक्खी फिर दोनों किस पर खड़े होके लड़े। वहां तो और कोई ठहरने की जगह नहीं थी। किन्तु भागवतादि पुराण बनाने वाले पोप जी की छाती पर ठड़े होके लड़े होंगे? परन्तु पोप जी किस पर सोया होगा? यह बात-जैसे ‘गप्पी के घर गप्पी आये बोले गप्पी जी’ जब मिथ्यावादियों के घर में दूसरे गप्पी लोग आते हैं फिर गप्प मारने में क्या कमती, इसी प्रकार की है! अब रहा हिरण्यकशिपु, उस का लड़का जो प्रह्लाद था वह भक्त हुआ था। उस का पिता पढ़ाने को पाठशाला में भेजता था। तब वह अध्यापकों से कहता था कि मेरी पट्टी में राम-राम लिख देओ। जब उस के बाप ने सुना, उस से कहा- तू हमारे शत्रु का भजन क्यों करता है? छोकरे ने न माना। तब उस के बाप ने उस को बांध के पहाड़ से गिराया, कूप में डाला परन्तु उस को कुछ न हुआ। तब उसने एक लोहे का खम्भा आगी में तपाके उस से बोला जो तेरा इष्टदेव राम सच्चा हो तो तू इस को पकड़ने से न जलेगा। प्रह्लाद पकड़ने को चला। मन में शंका हुई जलने से बचूंगा वा नहीं? नारायण ने उस खम्भे पर छोटी-छोटी चीटियों की पंक्ति चलाई। उस को निश्चय हुआ, झट खम्भे को जा पकड़ा। वह फट गया। उस में से नृसिह निकला और उस के बाप को पकड़ पेट फाड़ मार डाला। पश्चात् प्रह्लाद को लाड़ से चाटने लगा। प्रह्लाद से कहा वर मांग। उस ने अपने पिता की सद्गति होनी मांगी। नृसिह ने वर दिया कि तेरे इक्कीस पुरुषे सद्गति को गये। अब देखो! यह भी दूसरे गपोड़े का भाई गपोड़ा है। किसी भागवत सुनने वा बांचनेवाले को पकड़ पहाड़ के ऊपर से गिरावे तो कोई न बचावे चकनाचूर होकर मर ही जावे। प्रह्लाद को उस का पिता पढ़ने के लिये भेजता था; क्या बुरा काम किया था? और वह प्रह्लाद ऐसा मूर्ख पढ़ना छोड़ वैरागी होना चाहता था। जो जलते हुए खम्भे से कीड़ी चढ़ने लगी और प्रह्लाद स्पर्श करने से न जला। इस बात को जो सच्ची माने उस को भी खम्भे के साथ लगा देना चाहिये। जो यह न जले तो जानो वह भी न जला होगा और नृसिह भी क्यों न जला? प्रथम तीसरे जन्म में वैकुण्ठ में आने का वर सनकादिक का था। क्या उस को तुम्हारा नारायण भूल गया? भागवत की रीति से ब्रह्मा, प्रजापति, कश्यप, हिरण्यकशिपु चौथी पीढ़ी में होता है। इक्कीस पीढ़ी प्रह्लाद की हुई भी नहीं पुनः इक्कीस पुरुषे सद्गति को गये कह देना कितना प्रमाद है। और फिर वे ही हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, रावण, कुम्भकरण, पुनः शिशुपाल, दन्तवक्त्र उत्पन्न हुए तो नृसिह का वर कहां उड़ गया? ऐसी प्रमाद की बात प्रमादी करते, सुनते और मानते हैं; विद्वान् नहीं।

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Whose songs you sing in marriage do not make it the greatest of all and others are small or blasphemy or father of all? Say Pope Are you more confidant than Bhat and Kshamadi Bardan? Make the person behind whom you are the greatest, and the one you protest against, put him below everyone. What do you want from truth and religion? But you have work for your own self. Maya can be in humans. Those who are false hypocrites are called elusive. God cannot be called elusive because of the lack of deceit in guilt.

 

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