एकादश समुल्लास भाग -9
(प्रश्न) पंजाब देश में नानक जी ने एक मार्ग चलाया है। क्योंकि वे भी मूर्त्ति का खण्डन करते थे। मुसलमान होने से बचाये। वे साधु भी नहीं हुए किन्तु गृहस्थ बने रहे। देखो! उन्होंने यह मन्त्र उपदेश किया है इसी से विदित होता है कि उन का आशय अच्छा था-
ओं सत्यनाम कर्त्ता पुरुष निर्भो निर्वैर अकालमूर्त्त अजोनि सहभं गुरु प्रसाद जप आदिसच जुगादि सच है भी सच नानक होसी भी सच।।
(ओ३म्) जिस का सत्य नाम है वह कर्त्ता पुरुष भय और वैररहित अकाल मूर्त्ति जो काल में और जोनि में नहीं आता; प्रकाशमान है उसी का जप गुरु की कृपा से कर। वह परमात्मा आदि में सच था; जुगों की आदि में सच; वर्त्तमान में सच; और होगा भी सच।
(उत्तर) नानक जी का आशय तो अच्छा था परन्तु विद्या कुछ भी नहीं थी। हां! भाषा उस देश की जो कि ग्रामों की है उसे जानते थे। वेदादि शास्त्र और संस्कृत कुछ भी नहीं जानते थे। जो जानते होते तो ‘निर्भय’ शब्द को ‘निर्भो’ क्यों लिखते? और इस का दृष्टान्त उन का बनाया संस्कृती स्तोत्र है। चाहते थे कि मैं संस्कृत में भी ‘पग अड़ाऊं’ परन्तु विना पढ़े संस्कृत कैसे आ सकता है? हां उन ग्रामीणों के सामने कि जिन्होंने संस्कृत कभी सुना भी नहीं था ‘संस्कृती’ बना कर संस्कृत के भी पण्डित बन गये होंगे। यह बात अपने मान प्रतिष्ठा और अपनी प्रख्याति की इच्छा के बिना कभी न करते। उन को अपनी प्रतिष्ठा की इच्छा अवश्य थी। नहीं तो जैसी भाषा जानते थे कहते रहते और यह भी कह देते कि मैं संस्कृत नहीं पढ़ा। जब कुछ अभिमान था तो मान प्रतिष्ठा के लिये कुछ दम्भ भी किया होगा। इसीलिये उन के ग्रन्थ में जहां तहां वेदों की निन्दा और स्तुति भी है; क्योंकि जो ऐसा न करते तो उन से भी कोई वेद का अर्थ पूछता, जब न आता तब प्रतिष्ठा नष्ट होती। इसीलिये पहले ही अपने शिष्यों के सामने कहीं-कहीं वेदों के विरुद्ध बोलते थे और कहीं-कहीं वेद के लिये अच्छा भी कहा है। क्योंकि जो कहीं अच्छा न कहते तो लोग उन को नास्तिक बनाते। जैसे-
वेद पढ़त ब्रह्मा मरे चारों वेद कहानि ।
सन्त कि महिमा वेद न जानी।।
ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर।।
क्या वेद पढ़ने वाले मर गये और नानक जी आदि अपने को अमर समझते थे। क्या वे नहीं मर गये? वेद तो सब विद्याओं का भण्डार है परन्तु जो चारों वेदों को कहानी कहे उस की सब बातें कहानी हैं। जो मूर्खों का नाम सन्त होता है वे विचारे वेदों की महिमा कभी नहीं जान सकते। जो नानक जी वेदों ही का मान करते तो उन का सम्प्रदाय न चलता, न वे गुरु बन सकते थे क्योंकि संस्कृत विद्या तो पढ़े ही नहीं थे तो दूसरे को पढ़ा कर शिष्य कैसे बना सकते थे? यह सच है कि जिस समय नानक जी पंजाब में हुए थे उस समय पंजाब संस्कृत विद्या से सर्वथा रहित मुसलमानों से पीड़ित था।
उस समय उन्होंने कुछ लोगों को बचाया। नानक जी के सामने कुछ उन का सम्प्रदाय वा बहुत से शिष्य नहीं हुए थे। क्योंकि अविद्वानों में यह चाल है कि मरे पीछे उन को सिद्ध बना लेते हैं, पश्चात् बहुत सा माहात्म्य करके ईश्वर के समान मान लेते हैं। हां! नानक जी बड़े धनाढ्य और रईस भी नहीं थे परन्तु उन के चेलों ने ‘नानकचन्द्रोदय’ और ‘जन्मशाखी’ आदि में बड़े सिद्ध और बड़े-बड़े ऐश्वर्य वाले थे; लिखा है। नानक जी ब्रह्मा आदि से मिले; बड़ी बातचीत की, सब ने इन का मान्य किया। नानक जी के विवाह में बहुत से घोड़े, रथ, हाथी, सोने, चांदी, मोती, पन्ना, आदि रत्नों से सजे हुए और अमूल्य रत्नों का पारावार न था; लिखा है। भला ये गपोड़े नहीं तो क्या हैं? इस में इनके चेलों का दोष है, नानक जी का नहीं। दूसरा जो उन के पीछे उनके लड़के से उदासी चले। और रामदास आदि से निर्मले। कितने ही गद्दीवालों ने भाषा बनाकर ग्रन्थ में रक्खी है। अर्थात् इन का गुरु गोविन्दसिह जी दशमा हुआ। उन के पीछे उस ग्रन्थ में किसी की भाषा नहीं मिलाई गई किन्तु वहां तक के जितने छोटे-छोटे पुस्तक थे उन सब को इकट्ठे करके जिल्द बंधवा दी। इन लोगों ने भी नानक जी के पीछे बहुत सी भाषा बनाई। कितनों ही ने नाना प्रकार की पुराणों की मिथ्या कथा के तुल्य बना दिये।
परन्तु ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर बन के उस पर कर्म उपासना छोड़कर इन के शिष्य झुकते आये इस ने बहुत बिगाड़ कर दिया। नहीं, जो नानक जी ने कुछ भक्ति विशेष ईश्वर की लिखी थी उसे करते आते तो अच्छा था। अब उदासी कहते हैं हम बड़े, निर्मले कहते हैं हम बड़े, अकाली तथा सूतरहसाई कहते हैं कि सर्वोपरि हम हैं। इन में गोविन्दसिह जी शूरवीर हुए। जो मुसलमानों ने उनके पुरुषाओं को बहुत सा दुःख दिया था। उन से वैर लेना चाहते थे परन्तु इन के पास कुछ सामग्री न थी और इधर मुसलमानों की बादशाही प्रज्वलित हो रही थी। इन्होंने एक पुरश्चरण करवाया। प्रसिद्धि की कि मुझ को देवी ने वर और खड्ग दिया है कि तुम मुसलमानों से लड़ो; तुम्हारा विजय होगा। बहुत से लोग उन के साथी हो गये और उन्होंने; जैसे वाममार्गियों ने ‘पञ्च मकार’ चक्रांकितों ने ‘पञ्च संस्कार’ चलाये थे वैसे ‘पञ्च ककार’ चलाये। अर्थात् इनके पञ्च ककार युद्ध में उपयोगी थे। एक ‘केश’ अर्थात् जिस के रखने से लड़ाई में लकड़ी और तलवार से कुछ बचावट हो। दूसरा ‘कंगण’ जो शिर के ऊपर पगड़ी में अकाली लोग रखते हैं और हाथ में ‘कड़ा’ जिस से हाथ और शिर बच सकें। तीसरा ‘काछ’ अर्थात् जानु के ऊपर एक जांघिया कि जो दौड़ने और कूदने में अच्छा होता है बहुत करके अखाड़मल्ल और नट भी इस को धारण इसीलिये करते हैं कि जिस से शरीर का मर्मस्थान बचा रहै और अटकाव न हो। चौथा ‘कंगा’ कि जिस से केश सुधरते हैं। पांचवां ‘काचू’ कि जिस से शत्रु से भेंट भड़क्का होने से लड़ाई में काम आवे। इसीलिये यह रीति गोविन्दसिह जी ने अपनी बुद्धिमत्ता से उस समय के लिये की थी। अब इस समय में उन का रखना कुछ उपयोगी नहीं है। परन्तु अब जो युद्ध के प्रयोजन के लिये बातें कर्त्तव्य थीं उन को धर्म के साथ मान ली हैं।
मूर्त्तिपूजा तो नहीं करते किन्तु उस से विशेष ग्रन्थ की पूजा करते हैं, क्या यह मूर्त्तिपूजा नहीं है? किसी जड़ पदार्थ के सामने शिर झुकाना वा उस की पूजा करनी सब मूर्त्तिपूजा है। जैसे मूर्त्तिवालों ने अपनी दुकान जमाकर जीविका ठाड़ी की है वैसे इन लोगों ने भी कर ली है। जैसे पूजारी लोग मूर्त्ति का दर्शन कराते; भेंट चढ़वाते हैं वैसे नानकपन्थी लोग ग्रन्थ की पूजा करते; कराते; भेंट भी चढ़वाते हैं। अर्थात् मूर्त्तिपूजा वाले जितना वेद का मान्य करते हैं उतना ये लोग ग्रन्थसाहब वाले नहीं करते। हां! यह कहा जा सकता है कि इन्होंने वेदों को न सुना न देखा; क्या करें? जो सुनने और देखने में आवें तो बुद्धिमान् लोग जो कि हठी दुराग्रही नहीं हैं वे सब सम्प्रदाय वाले वेदमत में आ जाते हैं। परन्तु इन सब ने भोजन का बखेड़ा बहुत सा हटा दिया है। जैसे इस को हटाया वैसे विषयासक्ति दुरभिमान को भी हटाकर वेदमत की उन्नति करें तो बहुत अच्छी बात है।
(प्रश्न) दादूपन्थी का मार्ग तो अच्छा है?
(उत्तर) अच्छा तो वेदमार्ग है, जो पकड़ा जाय तो पकड़ो, नहीं तो सदा गोते खाते रहोगे। इनके मत में दादू जी का जन्म गुजरात में हुआ था। पुनः जयपुर के पास ‘आमेर’ में रहते थे। तेली का काम करते थे। ईश्वर की सृष्टि की विचित्र लीला है कि दादू जी भी पुजाने लग गये। अब वेदादि शास्त्रें की सब बातें छोड़कर ‘दादूराम-दादूराम’ में ही मुक्ति मान ली है। जब सत्योपदेशक नहीं होता तब ऐसे-ऐसे ही बखेड़े चला करते हैं। थोडे़ दिन हुए कि एक ‘रामसनेही’ मत शाहपुरा से चला है। उन्होंने सब वेदोक्त धर्म को छोड़के ‘राम-राम’ पुकारना अच्छा माना है। उसी में ज्ञान, ध्यान, मुक्ति मानते हैं। परन्तु जब भूख लगती है तब ‘रामनाम’ में से रोटी शाक नहीं निकलता क्योंकि खानपान आदि तो गृहस्थों के घर ही में मिलते हैं। वे भी मूर्त्तिपूजा को धिक्कारते हैं परन्तु आप स्वयं मूर्त्ति बन रहे हैं। स्त्रियों के संग में बहुत रहते हैं, क्योंकि राम जी को ‘राम की’ के विना आनन्द ही नहीं मिल सकता। एक रामचरण नामक साधु हुआ है जिस का मत मुख्य कर ‘शाहपुरा’ स्थान मेवाड़ से चला है। वे ‘राम-राम’ कहने ही को परममन्त्र और इसी को सिद्धान्त मानते हैं। उन का एक ग्रन्थ कि जिस में सन्त दास जी आदि की वाणी हैं। ऐसा लिखते हैं- उनका वचन
भरम रोग तब ही मिट्या, रट्या निरंजन राइ ।
तब जम का कागज फट्या, कट्या कर्म तब जाइ।।१।। साखी ६।।
अब बुद्धिमान् लोग विचार लेवें कि ‘राम-राम’ करने से भ्रम जो कि अज्ञान है, वा यमराज का पापानुकूल शासन अथवा किये हुए कर्म कभी छूट सकते हैं वा नहीं? यह केवल मनुष्यों को पापों में फंसाना और मनुष्यजन्म को नष्ट कर देना है। अब इन का जो मुख्य गुरु हुआ है-‘रामचरण’ उसके वचन-
महमा नांव प्रताप की, सुणौ सरवण चित लाइ।
रामचरण रसना रटौ, क्रम सकल झड़ जाइ।।
जिन जिन सुमिर्या नांवकूं, सो सब उतर्या पार।
रांमचरण जो वीसर्या, सो ही जम के द्वार।।
रांम विना सब झूठ बतायो। रांम भजत छूट्या सब क्रम्मा।।
चंद अरु सूर देइ परकम्मा। राम कहे तिन कूं भै नाहीं।।
तीन लोक में कीरति गाहीं। रांम रटत जम जोर न लागै।।
रांम नाम लिख पथर तराई। भगति हेति औतार ही धरही।।
ऊंच नीच कुल भेद बिचारै। सो तो जनम आपणो हारै।।
सन्तां कै कुल दीसै नाहीं। रांम रांम कह राम सम्हांहीं।।
ऐसो कुण जो कीरति गावै। हरि हरिजन की पार न पावै।।
रांम संतां का अन्त न आवै। आप आपकी बुद्धि सम गावै।।
इनका खण्डन-प्रथम तो रामचरण आदि के ग्रन्थ देखने से विदित होता है कि यह ग्रामीण एक सादा सीधा मनुष्य था। न वह कुछ पढ़ा था; नहीं तो ऐसी गपड़चौथ क्यों लिखता? यह केवल इन को भ्रम है कि राम-राम कहने से कर्म छूट जायें। केवल ये अपना और दूसरों का जन्म खोते हैं। जम का भय बड़ा भारी है परन्तु राजसिपाही, चोर, डाकू, व्याघ्र, सर्प, बीछू और मच्छर आदि का भय कभी नहीं छूटता। चाहे रात दिन राम-राम किया करे कुछ भी नहीं होगा। जैसे ‘सक्कर-सक्कर’ कहने से मुख मीठा नहीं होता वैसे सत्यभाषणादि कर्म किये विना राम-राम करने से कुछ भी नहीं होगा। और यदि राम-राम करना, इन का राम नहीं सुनता तो जन्म भर कहने से भी नहीं सुनेगा और जो सुनता है तो दूसरी वार भी राम-राम कहना व्यर्थ है। इन लोगों ने अपना पेट भरने और दूसरों का भी जन्म नष्ट करने के लिये एक पाखण्ड खड़ा किया है। सो यह बड़ा आश्चर्य हम सुनते और देखते हैं कि नाम तो धरा रामस्नेही और काम करते हैं रांडसनेही का। जहां देखो वहां रांड ही रांड सन्तों को घेर रही हैं।
यदि ऐसे-ऐसे पाखण्ड न चलते तो आर्य्यावर्त्त देश की दुर्दशा क्यों होती? ये लोग अपने चेलों को झूंठन खिलाते हैं और स्त्रियां भी लम्बी पड़ के दण्डवत् प्रणाम करती हैं। एकान्त में भी स्त्रियों और साधुओं की बैठक होती रहती है। अब दूसरी इन की शाखा ‘खेड़ापा’ ग्राम मारवाड़ देश से चली है। उस का इतिहास-एक रामदास नामक जाति का ढेढ़ बड़ा चालाक था। उस के दो स्त्रियां थीं। वह प्रथम बहुत दिन तक औघड़ होकर कुत्तों के साथ खाता रहा। पीछे वामी कूण्डापंथी। पीछे ‘रामदेव’ का ‘कामड़िया’१ बना। अपनी दोनों स्त्रियों के साथ गाता था। ऐसे घूमता-घूमता ‘सीथल’२ में ढेढ़ों का गुरु ‘हररामदास’ था; उस से मिला। उस ने उस को ‘रामदेव’ का पन्थ बता के अपना चेला बनाया। उस रामदास ने खेड़ापा ग्राम में जगह बनाई और इस का इधर मत चला। उधर शाहपुरे में रामचरण का।
उस का भी इतिहास ऐसा सुना है कि वह जयपुर का बनियां था। उसने ‘दांतड़ा’ ग्राम में एक साधु से वेष लिया और उस को गुरु किया और शाहपुरे में आके टिक्की जमाई। भोले मनुष्यों में पाखण्ड की जड़ शीघ्र जम जाती है; जम गई। इन सब में ऊपर के रामचरण के वचनों के प्रमाण से चेला करके ऊंच नीच का कुछ भेद नहीं। ब्राह्मण से अन्त्यज पर्यन्त इन में चेले बनते हैं। अब भी कूण्डापन्थी से ही हैं क्योंकि मट्टी के कूण्डों में ही खाते हैं। और साधुओं की झूठन खाते हैं। वेदधर्म से, माता, पिता संसार के व्यवहार से बहका कर छुड़ा देते और चेला बना लेते हैं, अब राम नाम को महामन्त्र मानते हैं और इसी को ‘छुच्छम’३ वेद भी कहते
१- राजपूताने में ‘चमार’ लोग भगवे वस्त्र रंग कर ‘रामदेव’ आदि के गीत, जिन को वे ‘शब्द’ कहते हैं, चमारों और अन्य जातियों को सुनाते हैं वे ‘कामड़िये’ कहलाते हैं।
२- ‘सीथल’ जोधपुर के राज्य में एक बड़ा ग्राम है।
३- छुच्छम अर्थात् सूक्ष्म ।
हैं। राम-राम कहने से अनन्त जन्मों के पाप छूट जाते हैं। इस के विना मुक्ति किसी की नहीं होती। जो श्वास और प्रश्वास के साथ राम-राम कहना बतावे उस को सत्यगुरु कहते हैं और सत्यगुरु को परमेश्वर से भी बड़ा मानते हैं और उस की मूर्त्ति का ध्यान करते हैं। साधुओं के चरण धो के पीते हैं। जब गुरु से चेला दूर जावे तो गुरु के नख और डाढ़ी के बाल अपने पास रख लेवे। उस का चरणामृत नित्य लेवे, रामदास और हररामदास के वाणी के पुस्तक को वेद से अधिक मानते हैं। उस की परिक्रमा और आठ दण्डवत् प्रणाम करते हैं और जो गुरु समीप हो तो गुरु को दण्डवत् प्रणाम कर लेते हैं। स्त्री वा पुरुष को राम-राम एक सा ही मन्त्रेपदेश करते हैं और नामस्मरण ही से कल्याण मानते हैं। पुनः पढ़ने में पाप समझते हैं। उन की साखी-
पंडताइ पाने पड़ी, ओ पूरब लो पाप ।
राम-राम सुमर्यां विना, रइग्यौ रीतो आप।।१।।
वेद पुराण पढ़े पढ़ गीता, रांमभजन बिन रइ गये रीता।।
ऐसे-ऐसे पुस्तक बनाये हैं। स्त्री को पति की सेवा करने में पाप और गुरु साधु की सेवा में धर्म बतलाते हैं। वर्णाश्रम को नहीं मानते। जो ब्राह्मण रामस्नेही न हो तो उस को नीच और चाण्डाल रामस्नेही हो तो उस को उत्तम जानते हैं। अब ईश्वर का अवतार नहीं मानते और रामचरण का वचन जो ऊपर लिख आये कि- भगति हेति औतार ही धरही।।
भक्ति और सन्तों के हित अवतार को भी मानते हैं। इत्यादि पाखण्ड प्रप/ इन का जितना है सो आर्य्यावर्त्त देश का अहितकारक है। इतने ही से बुद्धिमान् बहुत सा समझ लेंगे।
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Eleventh Chapter Part - 9 of Satyarth Prakash (the Light of Truth) | Arya Samaj Raipur | Arya Samaj Mandir Raipur | Arya Samaj Mandir Marriage Helpline Raipur | Aryasamaj Mandir Helpline Raipur | inter caste marriage Helpline Raipur | inter caste marriage promotion for prevent of untouchability in Raipur | Arya Samaj Raipur | Arya Samaj Mandir Raipur | arya samaj marriage Raipur | arya samaj marriage rules Raipur | inter caste marriage promotion for national unity by Arya Samaj Raipur | human rights in Raipur | human rights to marriage in Raipur | Arya Samaj Marriage Guidelines Raipur | inter caste marriage consultants in Raipur | court marriage consultants in Raipur | Arya Samaj Mandir marriage consultants in Raipur | arya samaj marriage certificate Raipur | Procedure of Arya Samaj Marriage Raipur | arya samaj marriage registration Raipur | arya samaj marriage documents Raipur | Procedure of Arya Samaj Wedding Raipur | arya samaj intercaste marriage Raipur | arya samaj wedding Raipur | arya samaj wedding rituals Raipur | arya samaj wedding legal Raipur | arya samaj shaadi Raipur | arya samaj mandir shaadi Raipur | arya samaj shadi procedure Raipur | arya samaj mandir shadi valid Raipur | arya samaj mandir shadi Raipur | inter caste marriage Raipur | validity of arya samaj marriage certificate Raipur | validity of arya samaj marriage Raipur | Arya Samaj Marriage Ceremony Raipur | Arya Samaj Wedding Ceremony Raipur | Documents required for Arya Samaj marriage Raipur | Arya Samaj Legal marriage service Raipur | Arya Samaj Pandits Helpline Raipur | Arya Samaj Pandits Raipur | Arya Samaj Pandits for marriage Raipur | Arya Samaj Temple Raipur | Arya Samaj Pandits for Havan Raipur | Arya Samaj Pandits for Pooja Raipur | Pandits for marriage Raipur | Pandits for Pooja Raipur | Arya Samaj Pandits for vastu shanti havan | Vastu Correction without Demolition Raipur | Arya Samaj Pandits for Gayatri Havan Raipur | Vedic Pandits Helpline Raipur | Hindu Pandits Helpline Raipur | Pandit Ji Raipur, Arya Samaj Intercast Matrimony Raipur | Arya Samaj Hindu Temple Raipur | Hindu Matrimony Raipur | सत्यार्थप्रकाश | वेद | महर्षि दयानन्द सरस्वती | विवाह समारोह, हवन | आर्य समाज पंडित | आर्य समाजी पंडित | अस्पृश्यता निवारणार्थ अन्तरजातीय विवाह | आर्य समाज मन्दिर | आर्य समाज मन्दिर विवाह | वास्तु शान्ति हवन | आर्य समाज मन्दिर आर्य समाज विवाह भारत | Arya Samaj Mandir Marriage Raipur Chhattisgarh India
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