चौदहवें समुल्लास भाग -4
५१- जिस समय कहा फरिश्तों ने कि ऐ मर्य्यम तुझ को अल्लाह ने पसन्द किया और पवित्र किया ऊपर जगत् की स्त्रियों के।। - मं० १। सि० ३। सू० ३। आ० ४५।।
(समीक्षक) भला जब आज कल खुदा के फरिश्ते और खुदा किसी से बातें करने को नहीं आते तो प्रथम कैसे आये होंगे? जो कहो कि पहले के मनुष्य पुण्यात्मा थे अब के नहीं तो यह बात मिथ्या है। किन्तु जिस समय ईसाई और मुसलमानों का मत चला था उस समय उन देशों में जंगली और विद्याहीन मनुष्य अधिक थे इसी लिये ऐसे विद्या-विरुद्ध मत चल गये। अब विद्वान् अधिक हैं इसलिये नहीं चल सकता। किन्तु जो-जो ऐसे पोकल मजहब हैं वे भी अस्त होते जाते हैं; वृद्धि की तो कथा ही क्या है।।५१।।
५२- उसको कहता है कि हो बस हो जाता है।। काफिरों ने धोखा दिया, ईश्वर ने धोखा दिया, ईश्वर बहुत मकर करने वाला है।। - मं० १। सि० ३। सू० ३। आ० ५३। ५४।।
(समीक्षक) जब मुसलमान लोग खुदा के सिवाय दूसरी चीज नहीं मानते तो खुदा ने किस से कहा? और उस के कहने से कौन हो गया? इस का उत्तर मुसलमान सात जन्म में भी नहीं दे सकेंगे। क्योंकि विना उपादान कारण के कार्य कभी नहीं हो सकता। विना कारण के कार्य कहना जानो अपने माँ बाप के विना मेरा शरीर हो गया ऐसी बात है। जो धोखा देता और मकर अर्थात् छल और दम्भ करता है वह ईश्वर तो कभी नहीं हो सकता किन्तु उत्तम मनुष्य भी ऐसा काम नहीं करता।।५२।।
५३- क्या तुम को यह बहुत न होगा कि अल्लाह तुम को तीन हजार फरिश्तों के साथ सहाय देवे।। - मं० १। सि० ४। सू० ३। आ० १२४।।
(समीक्षक) जो मुसलमानों को तीन हजार फरिश्तों के साथ सहाय देता था तो अब मुसलमानों की बादशाही बहुत सी नष्ट हो गई और होती जाती है क्यों सहाय नहीं देता? इसलिये यह बात केवल लोभ देके मूर्खों को फंसाने के लिये महा अन्याय की है।।५३।।
५४- और काफिरों पर हम को सहाय कर।। अल्लाह तुम्हारा उत्तम सहायक और कारसाज है।। जो तुम अल्लाह के मार्ग में मारे जाओ वा मर जाओ, अल्लाह की दया बहुत अच्छी है।। - मं० १। सि० ४। सू० ३। आ० १४७। १५०। १५८।।
(समीक्षक) अब देखिये मुसलमानों की भूल कि जो अपने मत से भिन्न हैं उन के मारने के लिये खुदा की प्रार्थना करते हैं। क्या परमेश्वर भोला है जो इन की बात मान लेवे? यदि मुसलमानों का कारसाज अल्लाह ही है तो फिर मुसलमानों के कार्य नष्ट क्यों होते हैं? और खुदा भी मुसलमानों के साथ मोह से फंसा हुआ दीख पड़ता है, जो ऐसा पक्षपाती खुदा है तो धर्मात्मा पुरुषों का उपासनीय कभी नहीं हो सकता।।५४।।
५५- और अल्लाह तुम को परोक्षज्ञ नहीं करता परन्तु अपने पैगम्बरों से जिस को चाहे पसन्द करे। बस अल्लाह और उस के रसूल के साथ ईमान लाओ।। - मं० १। सि० ४। सू० ३। आ० १७९।।
(समीक्षक) जब मुसलमान लोग सिवाय खुदा के किसी के साथ ईमान नहीं लाते और न किसी को खुदा का साझी मानते हैं तो पैगम्बर साहेब को क्यों ईमान में खुदा के साथ शरीक किया? अल्लाह ने पैगम्बर के साथ ईमान लाना लिखा, इसी से पैगम्बर भी शरीक हो गया, पुनः लाशरीक का कहना ठीक न हुआ । यदि इस का अर्थ यह समझा जाय कि मुहम्मद साहेब के पैगम्बर होने पर विश्वास लाना चाहिये तो यह प्रश्न होता है कि मुहम्मद साहब के होने की क्या आवश्यकता है? यदि खुदा उन को पैगम्बर किये विना अपना अभीष्ट कार्य नहीं कर सकता तो अवश्य असमर्थ हुआ।।५५।।
५६- ऐ ईमानवालो! सन्तोष करो परस्पर थामे रक्खो और लड़ाई में लगे रहो। अल्लाह से डरो कि तुम छुटकारा पाओ।। - मं० १। सि० ४। सू० ३। आ० १८६।।
(समीक्षक) यह कुरान का खुदा और पैगम्बर दोनों लड़ाईबाज थे। जो लड़ाई की आज्ञा देता है वह शान्तिभंग करने वाला होता है। क्या नाम मात्र खुदा से डरने से छुटकारा पाया जाता है? वा अधर्मयुक्त लड़ाई आदि से डरने से? जो प्रथम पक्ष है तो डरना न डरना बराबर और जो द्वितीय पक्ष है तो ठीक है।।५६।।
५७- ये अल्लाह की हदें हैं जो अल्लाह और उनके रसूल का कहा मानेगा वह बहिश्त में पहुँचेगा जिन में नहरें चलती हैं और यही बड़ा प्रयोजन है।। जो अल्लाह की और उस के रसूल की आज्ञा भंग करेगा और उस की हदों से बाहर हो जायगा वो सदैव रहने वाली आग में जलाया जावेगा और उस के लिये खराब करने वाला दुःख है।। - मं० १। सि० ४। सू० ४। आ० १३। १४।।
(समीक्षक) खुदा ही ने मुहम्मद साहेब पैगम्बर को अपना शरीक कर लिया है और खुद कुरान ही मेंं लिखा है। और देखो! खुदा पैगम्बर साहेब के साथ कैसा फंसा है कि जिस ने बहिश्त में रसूल का साझा कर दिया है। किसी एक बात में भी मुसलमानों का खुदा स्वतन्त्र नहीं तो लाशरीक कहना व्यर्थ है। ऐसी-ऐसी बातें ईश्वरोक्त पुस्तक में नहीं हो सकतीं।।५७।।
५८- और एक त्रसरेणु की बराबर भी अल्लाह अन्याय नहीं करता । और जो भलाई होवे उस का दुगुण करेगा उस को।। - मं० १। सि० ५। सू० ४। आ० ४०।।
(समीक्षक) जो एक त्रसरेणु के बराबर भी खुदा अन्याय नहीं करता तो पुण्य को द्विगुण क्यों देता? और मुसलमानों का पक्षपात क्यों करता है? वास्तव में द्विगुण वा न्यून फल कर्मों का देवे तो खुदा अन्यायी हो जावे।।५८।।
५९- जब तेरे पास से बाहर निकलते हैं तो तेरे कहने के सिवाय (विपरीत) शोचते हैं। अल्लाह उन की सलाह को लिखता है।। अल्लाह ने उन की कमाई वस्तु के कारण से उन को उलटा किया। क्या तुम चाहते हो कि अल्लाह के गुमराह किये हुए को मार्ग पर लाओ? बस जिस को अल्लाह गुमराह करे उसको कदापि मार्ग न पावेगा।। - मं० १। सि० ५। सू० ४। आ० ८१-८८।।
(समीक्षक) जो अल्लाह बातों को लिख बहीखाता बनाता जाता है तो सर्वज्ञ नहीं। जो सर्वज्ञ है तो लिखने का क्या काम? और जो मुसलमान कहते हैं कि शैतान ही सब को बहकाने से दुष्ट हुआ है तो जब खुदा ही जीवों को गुमराह करता है तो खुदा और शैतान में क्या भेद रहा? हां! इतना भेद कह सकते हैं कि खुदा बड़ा शैतान, वह छोटा शैतान। क्योंकि मुसलमानों ही का कौल है कि जो बहकाता है वही शैतान है तो इस प्रतिज्ञा से खुदा को भी शैतान बना दिया।।५९।।
६०- और अपने हाथों को न रोकें तो उन को पकड़ लो और जहाँ पाओ मार डालो।। मुसलमान को मुसलमान का मारना योग्य नहीं। जो कोई अनजाने से मार डाले बस एक गर्दन मुसलमान का छोड़ना है और खून बहा उन लोगों की ओर सौंपी हुई जो उस कौम से होवें, और तुम्हारे लिये दान कर देवें, जो दुश्मन की कौम से।। और जो कोई मुसलमान को जान कर मार डाले वह सदैव काल दोजख में रहेगा, उस पर अल्लाह का क्रोध और लानत है।। - मं० १। सि० ५। सू० ४। आ० ९१। ९२। ९३।।
(समीक्षक) अब देखिये महा पक्षपात की बात कि जो मुसलमान न हो उस को जहाँ पाओ मार डालो और मुसलमानों को न मारना। भूल से मुसलमानों के मारने में प्रायश्चित्त और अन्य को मारने से बहिश्त मिलेगा ऐसे उपदेश को कुए में डालना चाहिये। ऐसे-ऐसे पुस्तक ऐसे-ऐसे पैगम्बर ऐसे-ऐसे खुदा और ऐसे-ऐसे मत से सिवाय हानि के लाभ कुछ भी नहीं। ऐसों का न होना अच्छा और ऐसे प्रामादिक मतों से बुद्धिमानों को अलग रह कर वेदोक्त सब बातों को मानना चाहिये क्योंकि उस में असत्य किञ्चिन्मात्र भी नहीं है। और जो मुसलमान को मारे उस को दोजख मिले और दूसरे मत वाले कहते हैं कि मुसलमान को मारे तो स्वर्ग मिले। अब कहो इन दोनों मतों में से किस को मानें किस को छोड़ें? किन्तु ऐसे मूढ़ प्रकल्पित मतों को छोड़ कर वेदोक्त मत स्वीकार करने योग्य सब मनुष्यों के लिये है कि जिस में आर्य्य मार्ग अर्थात् श्रेष्ठ पुरुषों के मार्ग में चलना और दस्यु अर्थात् दुष्टों के मार्ग से अलग रहना लिखा है; सर्वोत्तम है।।६०।।
६१- और शिक्षा प्रकट होने के पीछे जिस ने रसूल से विरोध किया और मुसलमानों से विरुद्ध पक्ष किया; अवश्य हम उनको दोजख में भेजेंगे।। - मं० १। सि० ५। सू० ४। आ० ११५।।
(समीक्षक) अब देखिये खुदा और रसूल की पक्षपात की बातें! मुहम्मद साहेब आदि समझते थे कि जो खुदा के नाम से ऐसी हम न लिखेंगे तो अपना मजहब न बढ़ेगा और पदार्थ न मिलेंगे, आनन्द भोग न होगा। इसी से विदित होता है कि वे अपने मतलब करने में पूरे थे और अन्य के प्रयोजन बिगाड़ने में। इस से ये अनाप्त थे। इन की बात का प्रमाण आप्त विद्वानों के सामने कभी नहीं हो सकता।।६१।।
६२- जो अल्लाह फरिश्तों किताबों रसूलों और कयामत के साथ कुफ्र करे निश्चय वह गुमराह है।। निश्चय जो लोग ईमान लाये फिर काफिर हुए फिर-फिर ईमान लाये पुनः फिर गये और कुफ्र में अधिक बढ़े। अल्लाह उन को कभी क्षमा न करेगा और न मार्ग दिखलावेगा।। - मं० १। सि० ५। सू० ४। आ० १३६। १३७।।
(समीक्षक) क्या अब भी खुदा लाशरीक रह सकता है? क्या लाशरीक कहते जाना और उस के साथ बहुत से शरीक भी मानते जाना यह परस्पर विरुद्ध बात नहीं है? क्या तीन बार क्षमा के पश्चात् खुदा क्षमा नहीं करता? और तीन वार कुफ्र करने पर रास्ता दिखलाता है? वा चौथी बार से आगे नहीं दिखलाता? यदि चार-चार बार भी कुफ्र सब लोग करें तो कुफ्र बहुत ही बढ़ जाये।।६२।।
६३- निश्चय अल्लाह बुरे लोगों और काफिरों को जमा करेगा दोजख में।। निश्चय बुरे लोग धोखा देते हैं अल्लाह को और उन को वह धोखा देता है।। ऐ ईमान वालो! मुसलमानों को छोड़ काफिरों को मित्र मत बनाओ।। - मं० १। सि० ५। सू० ४। आ० १४०। १४२। १४४।।
(समीक्षक) मुसलमानों के बहिश्त और अन्य लोगों के दोज़ख में जाने का क्या प्रमाण? वाह जी वाह! जो बुरे लोगों के धोखे में आता और अन्य को धोखा देता है ऐसा खुदा हम से अलग रहे किन्तु जो धोखेबाज हैं उन से जाकर मेल करे और वे उस से मेल करें । क्योंकि- “दृशी शीतलादेवी तादृश खरवाहन ।”
जैसे को तैसा मिले तभी निर्वाह होता है। जिस का खुदा धोखेबाज है उस के उपासक लोग धोखेबाज क्यों न हों? क्या दुष्ट मुसलमान हो उस से मित्रता और अन्य श्रेष्ठ मुसलमान भिन्न से शत्रुता करना किसी को उचित हो सकती है? ।।६३।।
६४- ऐ लोगो! निश्चय तुम्हारे पास सत्य के साथ खुदा की ओर से पैगम्बर आया। बस तुम उन पर ईमान लाओ।। अल्लाह माबूद अकेला है।। - मं० १। सि० ६। सू० ४। आ० १७०। १७१।।
(समीक्षक) क्या जब पैगम्बरों पर ईमान लाना लिखा तो ईमान में पैगम्बर खुदा का शरीक अर्थात् साझी हुआ वा नहीं। जब अल्लाह एकदेशी है, व्यापक नहीं, तभी तो उस के पास से पैगम्बर आते जाते हैं तो वह ईश्वर भी नहीं हो सकता। कहीं सर्वदेशी लिखते हैं, कहीं एकदेशी। इस से विदित होता है कि कुरान एक का बनाया नहीं किन्तु बहुतों ने बनाया है।।६४।।
६५- तुम पर हराम किया गया मुर्दार, लोहू, सूअर का मांस जिस पर अल्लाह के विना कुछ और पढ़ा जावे, गला घोटे, लाठी मारे, ऊपर से गिर पड़े, सींग मारे और दरन्दे का खाया हुआ।। - मं० २। सि० ६। सू० ५। आ० ३।।
(समीक्षक) क्या इतने ही पदार्थ हराम हैं? अन्य बहुत से पशु तथा तिर्य्यक् जीव कीड़ी आदि मुसलमानों को हलाल होंगे? इस वास्ते यह मनुष्यों की कल्पना है; ईश्वर की नहीं। इस से इस का प्रमाण भी नहीं।।६५।।
६६- और अल्लाह को अच्छा उधार दो अवश्य मैं तुम्हारी बुराई दूर करूंगा और तुम्हें बहिश्तों में भेजूंगा।। - मं० २। सि० ६। सू० ५। आ० १२।।
(समीक्षक) वाह जी! मुसलमानों के खुदा के घर में कुछ भी धन विशेष नहीं रहा होगा। जो विशेष होता तो उधार क्यों मांगता? और उन को क्यों बहकाता कि तुम्हारी बुराई छुड़ा के तुम को स्वर्ग में भेजूंगा? यहां विदित होता है कि खुदा के नाम से मुहम्मद साहेब ने अपना मतलब साधा है।।६६।।
६७- जिस को चाहता है क्षमा करता है जिस को चाहे दुःख देता है।। जो कुछ किसी को भी न दिया वह तुम्हें दिया।। - मं० २। सि० ६। सू० ५। आ० १८। २०।।
(समीक्षक) जैसे शैतान जिस को चाहता पापी बनाता वैसे ही मुसलमानों का खुदा भी शैतान का काम करता है ! जो ऐसा है तो फिर बहिश्त और दोजख में खुदा जावे क्योंकि वह पाप पुण्य करने वाला हुआ, जीव पराधीन है। जैसी सेना सेनापति के आवमीन रक्षा करती और किसी को मारती है, उस की भलाई बुराई सेनापति को होती है; सेना पर नहीं।।६७।।
६८- आज्ञा मानो अल्लाह की और आज्ञा मानो रसूल की।। - मं० २। सि० ७। सू० ५। आ० ९२।।
(समीक्षक) देखिये! यह बात खुदा के शरीक होने की है। फिर खुदा को ‘लाशरीक’ मानना व्यर्थ है।।६८।।
६९- अल्लाह ने माफ किया जो हो चुका और जो कोई फिर करेगा अल्लाह उस से बदला लेगा।। - मं० २। सि० ७। सू० ५। आ० ९५।।
(समीक्षक) किये हुए पापों का क्षमा करना जानो पापों को करने की आज्ञा देके बढ़ाना है। पाप क्षमा करने की बात जिस पुस्तक में हो वह न ईश्वर और न किसी विद्वान् का बनाया है किन्तु पापवर्द्धक है। हां ! आगामी पाप छुड़वाने के लिये किसी से प्रार्थना और स्वयं छोड़ने के लिये पुरुषार्थ पश्चात्ताप करना उचित है परन्तु केवल पश्चात्ताप करता रहे, छोड़े नहीं, तो भी कुछ नहीं हो सकता।।६९।।
७०- और उस मनुष्य से अधिक पापी कौन है जो अल्लाह पर झूठ बांध लेता है और कहता है कि मेरी ओर वही की गई परन्तु वही उस की ओर नहीं की गई और जो कहता है कि मैं भी उतारूँगा कि जैसे अल्लाह उतारता है।। - मं० २। सि० ७। सू० ६। आ० ९३।।
(समीक्षक) इस बात से सिद्ध होता है कि जब मुहम्मद साहेब कहते थे कि मेरे पास खुदा की ओर से आयतें आती हैं तब किसी दूसरे ने भी मुहम्मद साहेब के तुल्य लीला रची होगी कि मेरे पास भी आयतें उतरती हैं, मुझ को भी पैगम्बर मानो। इस को हटाने और अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये मुहम्मद साहेब ने यह उपाय किया होगा।।७०।।
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When Muslims do not believe in anyone except God and do not consider anyone as a partner of God, then why did the Prophet Saheb join God in faith? Allah wrote to the Prophet, believing this, the Prophet also joined in, again it was not right to say the dead body. If the meaning of this is to be understood that one should believe in the presence of Prophet Muhammad, then the question is, what is the need of Muhammad Sahab? If God could not do his intended work without prophet them, then he was definitely unable.
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