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नवम समुल्लास भाग -3

(प्रश्न) मनुष्य और अन्य पश्वादि के शरीर में जीव एक सा है वा भिन्न-भिन्न जाति के?

(उत्तर) जीव एक से हैं परन्तु पाप पुण्य के योग से मलिन और पवित्र होते हैं।

(प्रश्न) मनुष्य का जीव पश्वादि में और पश्वादि का मनुष्य के शरीर में और स्त्री का पुरुष के और पुरुष का स्त्री के शरीर में जाता आता है वा नहीं?

(उत्तर) हां! जाता आता है। क्योंकि जब पाप बढ़ जाता पुण्य न्यून होता है तब मनुष्य का जीव पश्वादि नीच शरीर और जब धर्म अधिक तथा अधर्म न्यून होता है तब देव अर्थात् विद्वानों का शरीर मिलता और जब पुण्य पाप बराबर होता है तब साधारण मनुष्य जन्म होता है। इस में भी पुण्य पाप के उत्तम, मध्यम और निकृष्ट होने से मनुष्यादि में भी उत्तम, मध्यम, निकृष्ट शरीरादि सामग्री वाले होते हैं। और जब अधिक पाप का फल पश्वादि शरीर में भोग लिया है पुनः पाप पुण्य के तुल्य रहने से मनुष्य शरीर में आता है और पुण्य के फल भोग कर फिर भी मध्यस्थ मनुष्य के शरीर में आता है। जब शरीर से निकलता है उसी का नाम ‘मृत्यु’ और शरीर के साथ संयोग होने का नाम ‘जन्म’ है। जब शरीर छोड़ता तब यमालय अर्थात् आकाशस्थ वायु में रहता है क्योंकि ‘यमेन वायुना’ वेद में लिखा है कि यम नाम वायु का है; गरुड़ पुराण का कल्पित यम नहीं। इस का विशेष खण्डन मण्डन ग्यारहवें समुल्लास में लिखेंगे। पश्चात् धर्मराज अर्थात् परमेश्वर उस जीव के पाप पुण्यानुसार जन्म देता है। वह वायु, अन्न, जल अथवा शरीर के छिद्र द्वारा दूसरे के शरीर में ईश्वर की प्रेरणा से प्रविष्ट होता है। जो प्रविष्ट होकर क्रमशः वीर्य्य में जा गर्भ में स्थित हो, शरीर धारण कर, बाहर आता है। 

जो स्त्री के शरीर धारण करने योग्य कर्म हों तो स्त्री और पुरुष के शरीर धारण करने योग्य कर्म हों तो पुरुष के शरीर में प्रवेश करता है। और नपुंसक गर्भ की स्थिति-समय स्त्री पुरुष के शरीर में सम्बन्ध करके रज वीर्य के बराबर होने से होता है। इसी प्रकार नाना प्रकार के जन्म मरण में तब तक जीव पड़ा रहता है कि जब तक उत्तम कर्मोपासना ज्ञान को करके मुक्ति को नहीं पाता। क्योंकि उत्तम कर्मादि करने से मनुष्यों में उत्तम जन्म और मुक्ति में महाकल्प पर्यन्त जन्म मरण दुःखों से रहित होकर आनन्द में रहता है।

(प्रश्न) मुक्ति एक जन्म में होती है वा अनेकों में ?

(उत्तर) अनेक जन्मों में। क्योंकि-

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे पराऽवरे।।१।।
-मुण्डक।।

जब इस जीव के हृदय की अविद्या अज्ञानरूपी गांठ कट जाती, सब संशय छिन्न होते और दुष्ट कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं तभी उस परमात्मा जो कि अपने आत्मा के भीतर और बाहर व्याप रहा है; उस में निवास करता है। (प्रश्न) मुक्ति में परमेश्वर में जीव मिल जाता है वा पृथक् रहता है ? (उत्तर) पृथक् रहता है। क्योंकि जो मिल जाय तो मुक्ति का सुख कौन भोगे और मुक्ति के जितने साधन हैं वे सब निष्फल हो जावें। वह मुक्ति तो नहीं किन्तु जीव का प्रलय जानना चाहिये। जब जीव परमेश्वर की आज्ञापालन, उत्तम कर्म, सत्संग, योगाभ्यास पूर्वोक्त सब साधन करता है वही मुक्ति को पाता है।

सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्।
सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेति।।
-तैनिरीन।।

जो जीवात्मा अपनी बुद्धि और आत्मा में स्थित सत्य ज्ञान और अनन्त आनन्दस्वरूप परमात्मा को जानता है वह उस व्यापकरूप ब्रह्म में स्थित होके उस ‘विपश्चित्’ अनन्तविद्यायुक्त ब्रह्म के साथ कामों को प्राप्त होता है। अर्थात् जिस-जिस आनन्द की कामना करता है उस-उस आनन्द को प्राप्त होता है। यही मुक्ति कहाती है।

(प्रश्न) जैसे शरीर के विना सांसारिक सुख नहीं भोग सकता वैसे मुक्ति में विना शरीर आनन्द कैसे भोग सकेगा?

(उत्तर) इस का समाधान पूर्व कह आये हैं और इतना अधिक सुनो- जैसे सांसारिक सुख शरीर के आधार से भोगता है वैसे परमेश्वर के आधार मुक्ति के आनन्द को जीवात्मा भोगता है। वह मुक्त जीव अनन्त व्यापक ब्रह्म में स्वच्छन्द घूमता, शुद्ध ज्ञान से सब सृष्टि को देखता, अन्य मुक्तों के साथ मिलता, सृष्टिविद्या को क्रम से देखता हुआ सब लोकलोकान्तरों में अर्थात् जितने ये लोक दीखते हैं, और नहीं दीखते उन सब में घूमता है। वह सब पदार्थों को जो कि उस के ज्ञान के आगे हैं सब को देखता है। जितना ज्ञान अधिक होता है उसको उतना ही आनन्द अधिक होता है। मुक्ति में जीवात्मा निर्मल होने से पूर्ण ज्ञानी होकर उस को सब सन्निहित पदार्थों का भान यथावत् होता है। यही सुखविशेष स्वर्ग और विषय तृष्णा में फंस कर दुःखविशेष भोग करना नरक कहाता है। ‘स्वः’ सुख का नाम है। ‘स्वः सुखं गच्छति यस्मिन् स स्वर्गः’ ‘अतो विपरीतो दुःखभोगो नरक इति’ जो सांसारिक सुख है वह सामान्य स्वर्ग और जो परमेश्वर की प्राप्ति से आनन्द है वही विशेष स्वर्ग कहाता है। सब जीव स्वभाव से सुखप्राप्ति की इच्छा और दुःख का वियोग होना चाहते हैं परन्तु जब तक धर्म नहीं करते और पाप नहीं छोड़ते तब तक उन को सुख का मिलना और दुःख का छूटना न होगा। क्योंकि जिस का कारण अर्थात् मूल होता है वह नष्ट कभी नहीं होता। जैसे -

छिन्ने मूले वृक्षो नश्यति तथा पापे क्षीणे दुःखं नश्यति।

जैसे मूल कट जाने से वृक्ष नष्ट हो जाता है वैसे पाप को छोड़ने से दुःख नष्ट होता है। देखो! मनुस्मृति में पाप और पुण्य की बहुत प्रकार की गति-

मानसं मनसैवायमुपभुङ्क्ते शुभाऽशुभम्।
वाचा वाचा कृतं कर्म कायेनैव च कायिकम्।।१।।

शरीरजैः कर्मदोषैर्याति स्थावरतां नरः।
वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिताम्।।२।।

यो यदैषां गुणो देहे साकल्येनातिरिच्यते।
स तदा तद्गुणप्रायं तं करोति शरीरिणम्।।३।।

सत्त्वं ज्ञानं तमोऽज्ञानं रागद्वेषौ रजःस्मृतम्।
एतद्व्याप्तिमदेतेषां सर्वभूताश्रितं वपुः।।४।।

तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं किञ्चिदात्मनि लक्षयेत्।
प्रशान्तमिव शुद्धाभं सत्त्वं तदुपधारयेत्।।५।।

यत्तु दुःखसमायुक्तम् अप्रीतिकरमात्मनः।
तद्रजोऽप्रतिघं विद्यात् सततं हारि देहिनाम्।।६।।

यत्तु स्यान्मोहसंयुक्तमव्यक्तं विषयात्मकम्।
अप्रतर्क्यम् अविज्ञेयं तमस्तद् उपधारयेत्।।७।।

त्रयाणामपि चैतेषां गुणानां यः फलोदयः।
अग्र्यो मध्यो जघन्यश्च तं प्रवक्ष्याम्यशेषतः।।८।।

वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धर्मक्रियात्मचिन्ता च सात्त्विकं गुणलक्षणम्।।९।।

आरम्भरुचिताऽधैर्य्यम् असत्कार्यपरिग्रहः ।
विषयोपसेवा चाजस्रं राजसं गुणलक्षणम्।।१०।।

लोभः स्वप्नोऽधृतिः क्रौर्यं नास्तिक्यं भिन्नवृत्तिता।
याचिष्णुता प्रमादश्च तामसं गुणलक्षणम्।।११।।

यत्कर्म कृत्वा कुर्वंश्च करिष्यंश्चैव लज्जति।
तज्ज्ञेयं विदुषा सर्वं तामसं गुणलक्षणम्।।१२।।

येनास्मिन्कर्मणा लोके ख्यातिमिच्छति पुष्कलाम्।
न च शोचत्यसम्पत्तौ तद्विज्ञेयं तु राजसम्।।१३।।

यत्सर्वेणेच्छति ज्ञातुं यन्न लज्जति चाचरन्।
तेन तुष्यति चात्मास्य तत्सत्त्वगुणलक्षणम्।।१४।।

तमसो लक्षणं कामो रजसस्त्वर्थ उच्यते।
सत्त्वस्य लक्षणं धर्मः श्रैष्ठ्यमेषां यथोत्तरम्।।१५।।
मनु० अ० १२।।

अर्थात् मनुष्य इस प्रकार अपने श्रेष्ठ, मध्य और निकृष्ट स्वभाव को जानकर उत्तम स्वभाव का ग्रहण; मध्य और निकृष्ट का त्याग करे और यह भी निश्चय जाने कि यह जीव मन से जिस शुभ वा अशुभ कर्म को करता है उस को मन, वाणी से किये को वाणी और शरीर से किये को शरीर से अर्थात् सुख दुःख को भोगता है।।१।।

जो नर शरीर से चोरी, परस्त्रीगमन, श्रेष्ठों को मारने आदि दुष्ट कर्म करता है उस को वृक्षादि स्थावर का जन्म; वाणी से किये पाप कर्मों से पक्षी और मृगादि तथा मन से किये दुष्ट कर्मों से चाण्डाल आदि का शरीर मिलता है।।२।।

जो गुण इन जीवों के देह में अधिकता से वर्त्तता है वह गुण उस जीव को अपने सदृश कर देता है।।३।।

जब आत्मा में ज्ञान हो तब सत्त्व; जब अज्ञान रहे तब तम; और जब राग द्वेष में आत्मा लगे तब रजोगुण जानना चाहिये। ये तीन प्रकृति के गुण सब संसारस्थ पदार्थों में व्याप्त हो कर रहते हैं।।४।।

उस का विवेक इस प्रकार करना चाहिये कि जब आत्मा में प्रसन्नता मन प्रसन्न प्रशान्त के सदृश शुद्धभानयुक्त वर्त्ते तब समझना कि सत्त्वगुण प्रधान और रजोगुण तथा तमोगुण अप्रधान हैं।।५।।

जब आत्मा और मन दुःखसंयुक्त प्रसन्नतारहित विषय में इधर उधर गमन आगमन में लगे तब समझना कि रजोगुण प्रधान, सत्त्वगुण और तमोगुण अप्रधान है।।६।।

जब मोह अर्थात् सांसारिक पदार्थों में फंसा हुआ आत्मा और मन हो, जब आत्मा और मन में कुछ विवेक न रहै; विषयों में आसक्त तर्क वितर्क रहित जानने के योग्य न हो; तब निश्चय समझना चाहिये कि इस समय मुझ में तमोगुण प्रधान और सत्त्वगुण तथा रजोगुण अप्रधान है।।७।।

अब जो इन तीनों गुणों का उत्तम, मध्यम और निकृष्ट फलोदय होता है उस को पूर्णभाव से कहते हैं।।८।।

जो वेदों का अभ्यास, धर्मानुष्ठान, ज्ञान की वृद्धि, पवित्रता की इच्छा, इन्द्रियों का निग्रह, धर्म क्रिया और आत्मा का चिन्तन होता है यही सत्त्वगुण का लक्षण है।।९।।

जब रजोगुण का उदय, सत्त्व और तमोगुण का अन्तर्भाव होता है तब आरम्भ में रुचिता, धैर्य-त्याग, असत् कर्मों का ग्रहण, निरन्तर विषयों की सेवा में प्रीति होती है तभी समझना कि रजोगुण प्रधानता से मुझ में वर्त्त रहा है।।१०।।

जब तमोगुण का उदय और दोनों का अन्तर्भाव होता है तब अत्यन्त लोभ अर्थात् सब पापों का मूल बढ़ता, अत्यन्त आलस्य और निद्रा, धैर्य्य का नाश, क्रूरता का होना, नास्तिक्य अर्थात् वेद और ईश्वर में श्रद्धा का न रहना, भिन्न-भिन्न अन्तःकरण की वृत्ति और एकाग्रता का अभाव जिस किसी से याचना अर्थात् मांगना, प्रमाद अर्थात् मद्यपानादि दुष्ट व्यसनों में फंसना होवे तब समझना कि तमोगुण मुझ में बढ़ कर वर्त्तता है।।११।।

यह सब तमोगुण का लक्षण विद्वान् को जानने योग्य है तथा जब अपना आत्मा जिस कर्म को करके करता हुआ और करने की इच्छा से लज्जा, शंका और भय को प्राप्त होवे तब जानो कि मुझ में प्रवृद्ध तमोगुण है।।१२।।

जिस कर्म से इस लोक में जीवात्मा पुष्कल प्रसिद्धि चाहता, दरिद्रता होने में भी चारण, भाट आदि को दान देना नहीं छोड़ता तब समझना कि मुझ में रजोगुण प्रबल है।।१३।।

और जब मनुष्य का आत्मा सब से जानने को चाहै, गुण ग्रहण करता जाय, अच्छे कर्मों में लज्जा न करे और जिस कर्म से आत्मा प्रसन्न होवे अर्थात् धर्माचरण में ही रुचि रहे तब समझना कि मुझ में सत्त्वगुण प्रबल है।।१४।।

तमोगुण का लक्षण काम, रजोगुण का अर्थसंग्रह की इच्छा और सत्त्वगुण का लक्षण धर्मसेवा करना है परन्तु तमोगुण से रजोगुण और रजोगुण से सत्त्वगुण श्रेष्ठ है।।१५।।

अब जिस-जिस गुण से जिस-जिस गति को जीव प्राप्त होता है उस-उस को आगे लिखते हैं-

देवत्वं सात्त्विका यान्ति मनुष्यत्वञ्च राजसाः।
तिर्यक्त्वं तामसा नित्यमित्येषा त्रिविधा गतिः।।१।।

स्थावरा कृमिकीटाश्च मत्स्याः सर्पाश्च कच्छपाः।
पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः।।२।।

हस्तिनश्च तुरंगाश्च शूद्रा म्लेच्छाश्च गर्हिताः।
सिहा व्याघ्रा वराहाश्च मध्यमा तामसी गतिः।।३।।

चारणाश्च सुपर्णाश्च पुरुषाश्चैव दाम्भिकाः।
रक्षांसि च पिशाचाश्च तामसीषूत्तमा गतिः।।४।।

झल्ला मल्ला नटाश्चैव पुरुषाः शस्त्रवृत्तयः।
द्यूतपानप्रसक्ताश्च जघन्या राजसी गतिः।।५।।

राजानः क्षत्रियाश्चैव राज्ञां चैव पुरोहिताः।
वादयुद्धप्रधानाश्च मध्यमा राजसी गतिः।।६।।

गन्धर्वा गुह्यका यक्षा विबुधानुचराश्च ये।
तथैवाप्सरसः सर्वा राजसीषूत्तमा गतिः।।७।।

तापसा यतयो विप्रा ये च वैमानिका गुणाः।
नक्षत्रणि च दैत्याश्च प्रथमा सात्त्विकी गतिः।।८।।

यज्वान ऋषयो देवा वेदा ज्योतींषि वत्सराः।
पितरश्चैव साध्याश्च द्वितीया सात्त्विकी गतिः।।९।।

ब्रह्मा विश्वसृजो धर्म्मो महानव्यक्तमेव च।
उत्तमां सात्त्विकीमेतां गतिमाहुर्मनीषिणः।।१०।।

इन्द्रियाणां प्रसंगेन धर्मस्यासेवनेन च।
पापान् संयान्ति संसारान् अविद्वांसो नराधमाः।।११।।

जो मनुष्य सात्त्विक हैं वे देव अर्थात् विद्वान्, जो रजोगुणी होते हैं वे मध्यम मनुष्य और जो तमोगुणयुक्त होते हैं वे नीच गति को प्राप्त होते हैं।।१।।

जो अत्यन्त तमोगुणी हैं वे स्थावर वृक्षादि, कृमि, कीट, मत्स्य, सर्प्प, कच्छप, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते हैं।।२।।

जो मध्यम तमोगुणी हैं वे हाथी, घोड़ा, शूद्र, म्लेच्छ निन्दित कर्म करने हारे सिह, व्याघ्र, वराह अर्थात् सूकर के जन्म को प्राप्त होते हैं।।३।।

जो उत्तम तमोगुणी हैं वे चारण (जो कि कवित्त दोहा आदि बनाकर मनुष्यों की प्रशंसा करते हैं) सुन्दर पक्षी, दाम्भिक पुरुष अर्थात् अपने मुख से अपनी प्रशंसा करने हारे, राक्षस जो हिसक, पिशाच जो अनाचारी अर्थात् मद्यादि के आहारकर्त्ता और मलिन रहते हैं; वह उत्तम तमोगुण के कर्म का फल है।।४।।

जो अत्यन्त रजोगुणी हैं वे झल्ला अर्थात् तलवार आदि से मारने वा कुदार आदि से खोदनेहारे, मल्ला अर्थात् नौका आदि के चलाने वाले, नट जो बांस आदि पर कला कूदना चढ़ना उतरना आदि करते हैं, शस्त्रधारी भृत्य और मद्य पीने में आसक्त हों; ऐसे जन्म नीच रजोगुण का फल है।।५।।

जो अधम रजोगुणी होते हैं वे राजा क्षत्रियवर्णस्थ राजाओं के पुरोहित, वादविवाद करने वाले, दूत, प्राड्विवाक (वकील बारिष्टर), युद्ध-विभाग के अध्यक्ष के जन्म पाते हैं।।६।।

जो उत्तम रजोगुणी हैं वे गन्धर्व (गाने वाले) गुह्यक (वादित्र बजानेहारे), यक्ष (धनाढ्य) विद्वानों के सेवक और अप्सरा अर्थात् जो उत्तम रूप वाली स्त्री का जन्म पाते हैं।।७।।

जो तपस्वी, यति, संन्यासी, वेदपाठी, विमान के चलाने वाले, ज्योतिषी और दैत्य अर्थात् देहपोषक मनुष्य होते हैं उनको प्रथम सत्त्वगुण के कर्म का फल जानो।।८।।

जो मध्यम सत्त्वगुण युक्त होकर कर्म करते हैं वे जीव यज्ञकर्त्ता, वेदार्थवित्, विद्वान्, वेद, विद्युत् आदि काल विद्या के ज्ञाता, रक्षक, ज्ञानी और (साध्य) कार्यसिद्धि के लिये सेवन करने योग्य अध्यापक का जन्म पाते हैं।।९।।

जो उत्तम सत्त्वगुणयुक्त होके उत्तम कर्म्म करते हैं वे ब्रह्मा सब वेदों का वेत्ता विश्वसृज् सब सृष्टिक्रम विद्या को जानकर विविध विमानादि यानों को बनानेहारे, धार्मिक सर्वोत्तम बुद्धियुक्त और अव्यक्त के जन्म और प्रकृतिवशित्व सिद्धि को प्राप्त होते हैं।।१०।।

जो इन्द्रिय के वश होकर विषयी, धर्म को छोड़कर अधर्म करनेहारे अविद्वान् हैं वे मनुष्यों में नीच जन बुरे-बुरे दुःखरूप जन्म को पाते हैं।।११।।

इसी प्रकार सत्त्व, रज और तमोगुण युक्त वेग से जिस-जिस प्रकार का कर्म जीव करता है उस-उस को उसी-उसी प्रकार फल प्राप्त होता है। जो मुक्त होते हैं वे गुणातीत अर्थात् सब गुणों के स्वभावों में न फंसकर महायोगी होके मुक्ति का साधन करें। क्योंकि-

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।१।।
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।२।।
-ये योगशास्त्र पातञ्जल के सूत्र हैं।

मनुष्य रजोगुण, तमोगुण युक्त कर्मों से मन को रोक शुद्ध सत्त्वगुणयुक्त कर्मों से भी मन को रोक, शुद्ध सत्त्वगुणयुक्त हो पश्चात् उस का निरोध कर, एकाग्र अर्थात् एक परमात्मा और धर्मयुक्त कर्म इनके अग्रभाग में चित्त का ठहरा रखना निरुद्ध अर्थात् सब ओर से मन की वृत्ति को रोकना।।१।।

जब चित्त एकाग्र और निरुद्ध होता है तब सब के द्रष्टा ईश्वर के स्वरूप में जीवात्मा की स्थिति होती है।।२।। इत्यादि साधन मुक्ति के लिये करे। और-

अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः।। यह सांख्य का सूत्र है।

जो आध्यात्मिक अर्थात् शरीर सम्बन्धी पीड़ा, आधिभौतिक जो दूसरे प्राणियों से दुःखित होना, आधिदैविक जो अतिवृष्टि, अतिताप, अतिशीत, मन इन्द्रियों की च ञ्चलता से होता है; इस त्रिविध दुःख को छुड़ा कर मुक्ति पाना अत्यन्त पुरुषार्थ है।

इसके आगे आचार अनाचार और भक्ष्याभक्ष्य का विषय लिखेंगे।।९।।

इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वती स्वामिकृते सत्यार्थप्रकाशे सुभाषा विभूषिते विद्याऽविद्याबन्ध मोक्षविषये

नवमः समुल्लासः सम्पूर्णः।।९।।

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Just as worldly happiness suffers from the base of the body, so the basis of God experiences the joy of salvation. That liberated creature roams freely in the infinite wide Brahm, observes all the creation with pure knowledge, meets with other liberates, observes the creation of the universe in all the folklores, i.e. all these people see, and do not see them all. He sees all the things that are ahead of his knowledge. The more knowledge there is, the more joy there is.

 

 

 

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