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सप्तम समुल्लास भाग -6

(प्रश्न) परमेश्वर सगुण है वा निर्गुण ?

(उत्तर) दोनों प्रकार है।

(प्रश्न) भला एक मियान में दो तलवार कभी नहीं रह सकती हैं! एक पदार्थ में सगुणता और निर्गुणता कैसे रह सकती हैं?

(उत्तर) जैसे जड़ के रूपादि गुण हैं और चेतन के ज्ञानादि गुण जड़ में नहीं हैं। वैसे चेतन में इच्छादि गुण हैं और रूपादि जड़ के गुण नहीं हैं। इसलिये ‘यद्गुणैस्सह वर्त्तमानं तत्सगुणम्’, गुणेभ्यो यन्निर्गतं पृथग्भूतं तन्निर्गुणम्’ जो गुणों से सहित वह सगुण और जो गुणों से रहित वह निर्गुण कहाता है। अपने-अपने स्वाभाविक गुणों से सहित और दूसरे विरोधी के गुणों से रहित होने से सब पदार्थ, सगुण और निर्गुण हैं। कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है कि जिस में केवल निर्गुणता वा केवल सगुणता हो किन्तु एक ही में सगुणता और निर्गुणता सदा रहती है। वैसे ही परमेश्वर अपने अनन्त ज्ञान बलादि गुणों से सहित होने से सगुण रूपादि जड़ के तथा द्वेषादि जीव के गुणों से पृथक् होने से निर्गुण कहाता है।

(प्रश्न) संसार में निराकार को निर्गुण और साकार को सगुण कहते हैं। अर्थात् जब परमेश्वर जन्म नहीं लेता तब निर्गुण और जब अवतार लेता है तब सगुण कहाता है?

(उत्तर) यह कल्पना केवल अज्ञानी और अविद्वानों की है। जिन को विद्या नहीं होती वे पशु के समान यथा तथा बर्ड़ाया करते हैं। जैसे सन्निपात ज्वरयुक्त मनुष्य अण्डबण्ड बकता है वैसे ही अविद्वानों के कहे वा लेख को व्यर्थ समझना चाहिये।

(प्रश्न) परमेश्वर रागी है वा विरक्त?

(उत्तर) दोनों में नहीं। क्योंकि राग अपने से भिन्न उत्तम पदार्थों में होता है, सो परमेश्वर से कोई पदार्थ पृथक् वा उत्तम नहीं है। इसलिए उस में राग का सम्भव नहीं। और जो प्राप्त को छोड़ देवे उस को विरक्त कहते हैं। ईश्वर व्यापक होने से किसी पदार्थ को छोड़ ही नहीं सकता, इसलिये विरक्त भी नहीं।

(प्रश्न) ईश्वर में इच्छा है वा नहीं।

(उत्तर) वैसी इच्छा नहीं। क्योंकि इच्छा भी अप्राप्त, उत्तम और जिस की प्राप्ति से सुख विशेष होवे तो ईश्वर में इच्छा हो सके । न उससे कोई अप्राप्त पदार्थ, न कोई उससे उत्तम और पूर्ण सुखयुक्त होने से सुख की अभिलाषा भी नहीं है। इसलिये ईश्वर में इच्छा का तो सम्भव नहीं, किन्तु ईक्षण अर्थात् सब प्रकार की विद्या का दर्शन और सब सृष्टि का करना कहाता है; वह ईक्षण है। इत्यादि संक्षिप्त विषयों से ही सज्जन लोग विस्तरण कर लेंगे। अब संक्षेप से ईश्वर का विषय लिखकर वेद का विषय लिखते हैं-

यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन् ।
सामानि यस्य लोमान्यथर्वांगिरसो मुखं स्कम्भन्तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ।।
-अथर्वन कां० १०। प्रपा० २३। अनु० ४। मं० २०।।

जिस परमात्मा से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद प्रकाशित हुए हैं वह कौन सा देव है?

इसका (उत्तर) जो सब को उत्पन्न करके धारण कर रहा है वह परमात्मा है।

स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ।। -यजु० अ० ४०। मं० ८।।

जो स्वयम्भू, सर्वव्यापक, शुद्ध, सनातन, निराकार परमेश्वर है वह सनातन जीवरूप प्रजा के कल्याणार्थ यथावत् रीतिपूर्वक वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेश करता है।

(प्रश्न) परमेश्वर को आप निराकार मानते हो वा साकार?

(उत्तर) निराकार मानते हैं।

(प्रश्न) जब निराकार है तो वेदविद्या का उपदेश विना मुख के वर्णोच्चारण कैसे हो सका होगा? क्योंकि वर्णों के उच्चारण में ताल्वादि स्थान, जिह्वा का प्रयत्न अवश्य होना चाहिये।

(उत्तर) परमेश्वर के सर्वशक्तिमान् और सर्वव्यापक होने से जीवों को अपनी व्याप्ति से वेदविद्या के उपदेश करने में कुछ भी मुखादि की अपेक्षा नहीं है। क्योंकि मुख जिह्वा से वर्णोच्चारण अपने से भिन्न को बोध होने के लिये किया जाता है; कुछ अपने लिये नहीं। क्योंकि मुख जिह्वा के व्यापार करे विना ही मन में अनेक व्यवहारों का विचार और शब्दोच्चारण होता रहता है। कानों को अंगुलियों से मूँद देखो, सुनो कि विना मुख जिह्वा ताल्वादि स्थानों के कैसे-कैसे शब्द हो रहे हैं। वैसे जीवों को अन्तर्यामीरूप से उपदेश किया है। किन्तु केवल दूसरे को समझाने के लिये उच्चारण करने की आवश्यकता है। जब परमेश्वर निराकार सर्वव्यापक है तो अपनी अखिल वेदविद्या का उपदेश जीवस्थ स्वरूप से जीवात्मा में प्रकाशित कर देता है। फिर वह मनुष्य अपने मुख से उच्चारण करके दूसरों को सुनाता है। इसलिये ईश्वर में यह दोष नहीं आ सकता।

(प्रश्न) किन के आत्मा में कब वेदों का प्रकाश किया ?

(उत्तर) अग्नेर्वा ऋग्वेदो जायते वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेदः।। -शत०।।

प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन ऋषियों के आत्मा में एक-एक वेद का प्रकाश किया।

(प्रश्न) यो वै ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।।

यह उपनिषत् का वचन है।

इस वचन से ब्रह्मा जी के हृदय में वेदों का उपदेश किया है। फिर अग्न्यादि ऋषियों के आत्मा में क्यों कहा ?

(उत्तर) ब्रह्मा के आत्मा में अग्नि आदि के द्वारा स्थापित कराया। देखो!

मनु में क्या लिखा है-

अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्।
दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुःसामलक्षणम्।।
मनु०।।

जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि आदि चारों महर्षियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराये और उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा से ऋग् यजुः साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया।

(प्रश्न) उन चारों ही में वेदों का प्रकाश किया अन्य में नहीं। इस से ईश्वर पक्षपाती होता है।

(उत्तर) वे ही चार सब जीवों से अधिक पवित्रत्मा थे। अन्य उन के सदृश नहीं थे। इसलिये पवित्र विद्या का प्रकाश उन्हीं में किया।

(प्रश्न) किसी देश-भाषा में वेदों का प्रकाश न करके संस्कृत में क्यों किया?

(उत्तर) जो किसी देश-भाषा में प्रकाश करता तो ईश्वर पक्षपाती हो जाता। क्योंकि जिस देश की भाषा में प्रकाश करता उन को सुगमता और विदेशियों को कठिनता वेदों के पढ़ने पढ़ाने की होती। इसलिये संस्कृत ही में प्रकाश किया; जो किसी देश की भाषा नहीं और वेदभाषा अन्य सब भाषाओं का कारण है। उसी में वेदों का प्रकाश किया। जैसे ईश्वर की पृथिवी आदि सृष्टि सब देश और देशवालों के लिये एक सी और सब शिल्पविद्या का कारण है। वैसे परमेश्वर की विद्या की भाषा भी एक सी होनी चाहिये कि सब देशवालों को पढ़ने पढ़ाने में तुल्य परिश्रम होने से ईश्वर पक्षपाती नहीं होता। और सब भाषाओं का कारण भी है।

(प्रश्न) वेद ईश्वरकृत हैं अन्यकृत नहीं। इस में क्या प्रमाण ?

(उत्तर) जैसा ईश्वर पवित्र, सर्वविद्यावित्, शुद्धगुणकर्मस्वभाव, न्यायकारी, दयालु आदि गुण वाला है वैसे जिस पुस्तक में ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल कथन हो वह ईश्वरकृत; अन्य नहीं। और जिस में सृष्टिक्रम प्रत्यक्षादि प्रमाण आप्तों के और पवित्रत्मा के व्यवहार से विरुद्ध कथन न हो वह ईश्वरोक्त। जैसा ईश्वर का निर्भ्रम ज्ञान वैसा जिस पुस्तक में भ्रान्तिरहित ज्ञान का प्रतिपादन हो; वह ईश्वरोक्त। जैसा परमेश्वर है और जैसा सृष्टिक्रम रक्खा है वैसा ही ईश्वर, सृष्टि, कार्य, कारण और जीव का प्रतिपादन जिस में होवे वह परमेश्वरोक्त पुस्तक होता है और जो प्रत्यक्षादि प्रमाण विषयों से अविरुद्ध शुद्धात्मा के स्वभाव से विरुद्ध न हो; इस प्रकार के वेद हैं। अन्य बाइबल, कुरान आदि पुस्तकें नहीं। इसकी स्पष्ट व्याख्या बाइबल और कुरान के प्रकरण में तेरहवें और चौदहवें समुल्लास में की जायगी।

(प्रश्न) वेद की ईश्वर से होने की आवश्यकता कुछ भी नहीं। क्योंकि मनुष्य लोग क्रमशः ज्ञान बढ़ाते जाकर पश्चात् पुस्तक भी बना लेंगे।

(उत्तर) कभी नहीं बना सकते। क्योंकि विना कारण के कार्योत्पत्ति का होना असम्भव है। जैसे जंगली मनुष्य सृष्टि को देख कर भी विद्वान् नहीं होते और जब उन को कोई शिक्षक मिल जाय तो विद्वान् हो जाते हैं । और अब भी किसी से पढ़े विना कोई भी विद्वान् नहीं होता। इस प्रकार जो परमात्मा उन आदिसृष्टि के ऋषियों को वेदविद्या न पढ़ाता और वे अन्य को न पढ़ाते तो सब लोग अविद्वान् ही रह जाते। जैसे किसी के बालक को जन्म से एकान्त देश, अविद्वानों वा पशुओं के संग में रख देवे तो वह जैसा संग है वैसा ही हो जायेगा। इसका दृष्टान्त जंगली भील आदि हैं। जब तक आर्यावर्त्त देश से शिक्षा नहीं गई थी तब तक मिश्र, यूनान और यूरोप देश आदिस्थ मनुष्यों में कुछ भी विद्या नहीं हुई थी और इंगलैण्ड के कुलुम्बस आदि पुरुष अमेरिका में जब तक नहीं गये थे तब तक वे भी सहस्रों, लाखों क्रोड़ों वर्षों से मूर्ख अर्थात् विद्याहीन थे। पुनः सुशिक्षा के पाने से विद्वान् हो गये हैं; वैसे ही परमात्मा से सृष्टि की आदि में विद्या शिक्षा की प्राप्ति से उत्तरोत्तर काल में विद्वान् होते आये।

स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्।। -योग सू०।।

जैसे वर्त्तमान समय में हम लोग अध्यापकों से पढ़ ही के विद्वान् होते हैं वैसे परमेश्वर सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए अग्नि आदि ऋषियों का गुरु अर्थात् पढ़ानेहारा है। क्योंकि जैसे जीव सुषुप्ति और प्रलय में ज्ञानरहित हो जाते हैं वैसा परमेश्वर नहीं होता। उस का ज्ञान नित्य है। इसलिये यह निश्चित जानना चाहिये कि विना निमित्त से नैमित्तिक अर्थ सिद्ध कभी नहीं होता।

(प्रश्न) वेद संस्कृतभाषा में प्रकाशित हुए और वे अग्नि आदि ऋषि लोग उस संस्कृतभाषा को नहीं जानते थे फिर वेदों का अर्थ उन्होंने कैसे जाना?

(उत्तर) परमेश्वर ने जनाया। और धर्मात्मा योगी महर्षि लोग जब-जब जिस-जिस के अर्थ को जानने की इच्छा करके ध्यानावस्थित हो परमेश्वर के स्वरूप में समाधिस्थ हुए तब-तब परमात्मा ने अभीष्ट मन्त्रें के अर्थ जनाये । जब बहुतों के आत्माओं में वेदार्थप्रकाश हुआ तब ऋषि मुनियों ने वह अर्थ और ऋषि मुनियों के इतिहासपूर्वक ग्रन्थ बनाये। उन का नाम ब्राह्मण अर्थात् ब्रह्म जो वेद उसका व्याख्यान ग्रन्थ होने से ब्राह्मण नाम हुआ। और-

ऋषयो मन्त्रदृष्टयः मन्त्रन् सम्प्रादुः।

जिस-जिस मन्त्रर्थ का दर्शन जिस-जिस ऋषि को हुआ और प्रथम ही जिस के पहले उस मन्त्र का अर्थ किसी ने प्रकाशित नहीं किया था; किया और दूसरों को पढ़ाया भी। इसलिये अद्यावधि उस-उस मन्त्र के साथ ऋषि का नाम स्मरणार्थ लिखा आता है। जो कोई ऋषियों को मन्त्रकर्त्ता बतलावें उन को मिथ्यावादी समझें। वे तो मन्त्रें के अर्थप्रकाशक हैं।

(प्रश्न) वेद किन ग्रन्थों का नाम है?

(उत्तर) ऋक्, यजुः, साम और अथर्व मन्त्रसंहिताओं का; अन्य का नहीं।

(प्रश्न) मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्।।

इत्यादि कात्यायनादिकृत प्रतिज्ञासूत्रदि का अर्थ क्या करोगे?

(उत्तर) देखो! संहिता पुस्तक के आरम्भ अध्याय की समाप्ति में वेद यह सनातन से शब्द लिखा आता है और ब्राह्मण पुस्तक के आरम्भ वा अध्याय की समाप्ति में कहीं नहीं लिखा। और निरुक्त में-

इत्यपि निगमो भवति। इति ब्राह्मणम्।।
छान्दोब्राह्मणानि च तद्विषयाणि।।
-यह पाणिनीय सूत्र है।

इस से भी स्पष्ट विदित होता है कि वेद मन्त्रभाग और ब्राह्मण व्याख्याभाग हैं। इस में जो विशेष देखना चाहैं तो मेरी बनाई ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ में देख लीजिये। वहां अनेकशः प्रमाणों से विरुद्ध होने से यह कात्यायन का वचन नहीं हो सकता ऐसा ही सिद्ध किया गया है। क्योंकि जो मानें तो वेद सनातन कभी नहीं हो सकें क्योंकि ब्राह्मण पुस्तकों में बहुत से ऋषि महर्षि और राजादि के इतिहास लिखे हैं और इतिहास जिस का हो उस के जन्म के पश्चात् लिखा जाता है। वह ग्रन्थ भी उस के जन्मे पश्चात् होता है। वेदों में किसी का इतिहास नहीं किन्तु विशेष जिस-जिस शब्द से विद्या का बोध होवे उस-उस शब्द का प्रयोग किया है। किसी मनुष्य की संज्ञा वा विशेष कथा का प्रसंग वेदों में नहीं।

(प्रश्न) वेदों की कितनी शाखा हैं?

(उत्तर) एक हजार एक सौ सत्ताईस।

(प्रश्न) शाखा क्या कहाती हैं?

(उत्तर) व्याख्यान को शाखा कहते हैं।

(प्रश्न) संसार में विद्वान् वेद के अवयवभूत विभागों को शाखा मानते हैं?

(उत्तर) तनिक सा विचार करो तो ठीक। क्योंकि जितनी शाखा हैं वे आश्वलायन आदि ऋषियों के नाम से प्रसिद्ध हैं और मन्त्रसंहिता परमेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हैं। जैसे चारों वेदों को परमेश्वरकृत मानते हैं वैसे आश्वलायनी आदि शाखाओं को उस-उस ऋषिकृत मानते हैं और सब शाखाओं में मन्त्रें की प्रतीक धर के व्याख्या करते हैं। जैसे तैत्तिरीय शाखा में ‘इषे त्वोर्जे त्वेति’ इत्यादि प्रतीकें धर के व्याख्यान किया है। और वेदसंहिताओं में किसी की प्रतीक नहीं धरी। इसलिये परमेश्वरकृत चारों वेद मूल वृक्ष और आश्वलायनादि सब शाखा ऋषि मुनिकृत हैं; परमेश्वरकृत नहीं। जो इस विषय की विशेष व्याख्या देखना चाहैं वे ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ में देख लेवें।

जैसे माता पिता अपने सन्तानों पर कृपादृष्टि कर उन्नति चाहते हैं वैसे ही परमात्मा ने सब मनुष्यों पर कृपा करके वेदों को प्रकाशित किया है। जिस से मनुष्य अविद्यान्धकार भ्रमजाल से छूटकर विद्या विज्ञानरूप सूर्य को प्राप्त होकर अत्यानन्द में रहैं। और विद्या तथा सुखों की वृद्धि करते जायें।

(प्रश्न) वेद नित्य हैं वा अनित्य?

(उत्तर) नित्य हैं। क्योंकि परमेश्वर के नित्य होने से उस के ज्ञानादि गुण भी नित्य हैं। जो नित्य पदार्थं हैं उन के गुण, कर्म, स्वभाव नित्य और अनित्य द्रव्य के अनित्य होते हैं।

(प्रश्न) क्या यह पुस्तक भी नित्य है?

(उत्तर) नहीं। क्योंकि पुस्तक तो पत्रे और स्याही का बना है वह नित्य कैसे हो सकता है? किन्तु जो शब्द अर्थ और सम्बन्ध हैं वे नित्य हैं ?

(प्रश्न) ईश्वर ने उन ऋषियों को ज्ञान दिया होगा और उस ज्ञान से लोगों ने वेद बना लिये होंगे?

(उत्तर) ज्ञान ज्ञेय के विना नहीं होता। गायत्र्यादि छन्द षड्जादि और उदात्ताऽनुदात्तादि स्वर के ज्ञानपूर्वक गायत्र्यादि छन्दों के निर्माण करने में सर्वज्ञ के विना किसी का सामर्थ्य नहीं है कि इस प्रकार का सर्वज्ञानयुक्त शास्त्र बना सकें।

हां! वेद को पढ़ने के पश्चात् व्याकरण, निरुक्त और छन्द आदि ग्रन्थ ऋषि मुनियों ने विद्याओं के प्रकाश के लिये किये हैं। जो परमात्मा वेदों का प्रकाश न करे तो कोई कुछ भी न बना सके। इसलिये वेद परमेश्वरोक्त हैं। इन्हीं के अनुसार सब लोगों को चलना चाहिये और जो कोई किसी से पूछे कि तुम्हारा क्या मत है तो यही उत्तर देना कि हमारा मत वेद अर्थात् जो कुछ वेदों में कहा है हम उस को मानते हैं।

अब इसके आगे सृष्टि के विषय में लिखेंगे। यह संक्षेप से ईश्वर और वेदविषय में व्याख्यान किया है।।७।।

इति श्रीमद्दयानन्दसरस्तीस्वामिकृते सत्यार्थप्रकाशे ईश्वरवेदविषये सुभाषाविभूषिते

सप्तमः समुल्लासः सम्पूर्णः।।७।।

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Think a little, then it is okay. Because the branches are famous in the name of Rishis etc. and the mantrasamhita is in the name of God. The four Vedas are considered to be God-ordained, whereas the Ashwailani branches are considered as that and that Rishikrit is interpreted by symbolizing the mantras in all the branches. In the Taittiriya branch, the symbol 'Is Tvorje Tveti' etc. has been lectured. And no symbol of anyone in the Ved Samhities was captured. The four Vedas, the original Vedic tree and the Ashlavayanadi sub-branch, are sages.

 

 

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