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षष्ठ समुल्लास भाग -3

निग्रहं प्रकृतीनां च कुर्याद्योऽरिबलस्य च।
उपसेवेत तं नित्यं सर्वयत्नैर्गुरुं यथा।।१५।।

यदि तत्रपि सम्पश्येद्दोषं संश्रयकारितम्।
सुयुद्धमेव तत्रऽपि निर्विशंक्यन्ख्न समाचरेत्।।१६।। मनु०।।

जब राजादि राजपुरुषों को यह बात लक्ष्य में रखने योग्य है जो (आसन) स्थिरता (यान) शत्रु से लड़ने के लिये जाना (सन्धि) उन से मेल कर लेना (विग्रह) दुष्ट शत्रुओं से लड़ाई करना (द्वैध०) दो प्रकार की सेना करके स्वविजय कर लेना (संश्रय) और निर्बलता में दूसरे प्रबल राजा का आश्रय लेना ये छः प्रकार के कर्म यथायोग्य कार्य्य को विचार कर उसमें युक्त करना चाहिये।।१।।

राजा जो सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय दो-दो प्रकार के होते हैं उन को यथावत् जाने।।२।।

(सन्धि) शत्रु से मेल अथवा उस से विपरीतता करे परन्तु वर्त्तमान और भविष्यत् में करने के काम बराबर करता जाय यह दो प्रकार का मेल कहाता है।।३।।

(विग्रह) कार्य सिद्धि के लिये उचित व अनुचित समय में स्वयं किया वा मित्र के अपराध करने वाले शत्रु के साथ विरोध दो प्रकार से करना चाहिये।।४।।

(यान) अकस्मात् कोई कार्य्य प्राप्त होने में एकाकी वा मित्र के साथ मिल के शत्रु की ओर जाना यह दो प्रकार का गमन कहाता है।।५।।

स्वयं किसी प्रकार क्रम से क्षीण हो जाय अर्थात् निर्बल हो जाय अथवा मित्र के रोकने से अपने स्थान में बैठ रहना यह दो प्रकार का आसन कहाता है।।६।।

कार्य्यसिद्धि के लिये सेनापति और सेना के दो विभाग करके विजय करना दो प्रकार का द्वैध कहाता है।।७।।

एक किसी अर्थ की सिद्धि के लिये किसी बलवान् राजा वा किसी महात्मा की शरण लेना जिस से शत्रु से पीड़ित न हो दो प्रकार का आश्रय लेना कहाता है।।८।।

जब यह जान ले कि इस समय युद्ध करने से थोड़ी पीड़ा प्राप्त होगी और पश्चात् करने से अपनी वृद्धि और विजय अवश्य होगा तब शत्रु से मेल कर के उचित समय तक धीरज करे।।९।।

जब अपनी सब प्रजा वा सेना अत्यन्त प्रसन्न उन्नतिशील और श्रेष्ठ जाने, वैसे अपने को भी समझे तभी शत्रु से विग्रह (युद्ध) कर लेवे।।१०।।

जब अपने बल अर्थात् सेना को हर्ष और पुष्टियुक्त प्रसन्न भाव से जाने और शत्रु का बल अपने से विपरीत निर्बल हो जावे तब शत्रु की ओर युद्ध करने के लिये जावे।।११।।

जब सेना बल वाहन से क्षीण हो जाय तब शत्रुओं को धीरे-धीरे प्रयत्न से शान्त करता हुआ अपने स्थान में बैठा रहै।।१२।।

जब राजा शत्रु को अत्यन्त बलवान् जाने तब द्विगुणा वा दो प्रकार की सेना करके अपना कार्य्य सिद्ध करे।।१३।।

जब आप समझ लेवे कि अब शीघ्र शत्रुओं की चढ़ाई मुझ पर होगी तभी किसी धार्मिक बलवान् राजा का आश्रय शीघ्र ले लेवे।।१४।।

जो प्रजा और अपनी सेना और शत्रु के बल का निग्रह करे अर्थात् रोके उस की सेवा सब यत्नों से गुरु के सदृश नित्य किया करे।।१५।।

जिस का आश्रय लेवे उस पुरुष के कर्मों में दोष देखे तो वहां भी अच्छे प्रकार युद्ध ही को निःशंक होकर करे।।१६।।

जो धार्मिक राजा हो उस से विरोध कभी न करे किन्तु उस से सदा मेल रक्खे और जो दुष्ट प्रबल हो उसी के जीतने के लिये ये पूर्वोक्त प्रयोग करना उचित है।

सर्वोपायैस्तथा कुर्यान्नीतिज्ञः पृथिवीपतिः।
यथास्याभ्यधिका न स्युर्मित्रेदासीनशत्रवः।।१।।

आयतिं सर्वकार्याणां तदात्वं च विचारयेत्।
अतीतानां च सर्वेषां गुणदोषौ च तत्त्वतः।।२।।

आयत्यां गुणदोषज्ञस्तदात्वे क्षिप्रनिश्चयः।
अतीते कार्य्यशेषज्ञः शत्रुभिर्नाभिभूयते।।३।।

यथैनं नाभिसन्दध्युर्मित्रेदासीनशत्रवः।
तथा सर्वं संविदध्यादेष सामासिको नयः।।४।। मनु०।।

नीति को जानने वाला पृथिवीपति राजा जिस प्रकार इस के मित्र, उदासीन (मध्यस्थ) और शत्रु अधिक न हों ऐसे सब उपायों से वर्त्ते।।१।।

सब कार्य्यों का वर्त्तमान में कर्त्तव्य और भविष्यत् में जो-जो करना चाहिये और जो-जो काम कर चुके उन सब के यथार्थता से गुण दोषों को विचारे।।२।।

पश्चात् दोषों के निवारण और गुणों की स्थिरता में यत्न करे। जो राजा भविष्यत् अर्थात् आगे करने वाले कर्मों में गुण दोषों का ज्ञाता वर्त्तमान में तुरन्त निश्चय का कर्त्ता और किये हुए कार्यों में शेष कर्त्तव्य को जानता है वह शत्रुओं से पराजित कभी नहीं होता।।३।।

सब प्रकार से राजपुरुष विशेष सभापति राजा ऐसा प्रयत्न करे कि जिस प्रकार राजादि जनों के मित्र उदासीन और शत्रु को वश में करके अन्यथा न करावे, ऐसे मोह में कभी न फंसे, यही संक्षेप से विनय अर्थात् राजनीति कहाती है।।४।।

कृत्वा विधानं मूले तु यात्रिकं च यथाविधि ।
उपगृह्यास्पदं चैव चारान् सम्यग्विधाय च।।१।।

संशोध्य त्रिविधं मार्गं षड्विधं च बलं स्वकम्।
साम्परायिककल्पेन यायाद् अरिपुरं शनैः।।२।।

शत्रुसेविनि मित्रे च गूढे युक्ततरो भवेत्।
गतप्रत्यागते चैव स हि कष्टतरो रिपुः।।३।।

दण्डव्यूहेन तन्मार्गं यायात्तु शकटेन वा।
वराहमकराभ्यां वा सूच्या वा गरुडेन वा।।४।।

यतश्च भयमाशंकेत्ततो विस्तारयेद् बलम्।
पद्मेन चैव व्यूहेन निविशेत सदा स्वयम्।।५।।

सेनापतिबलाध्यक्षौ सर्वदिक्षु निवेशयेत्।
यतश्च भयमाशंकेत् प्राचीं तां कल्पयेद्दिशम्।।६।।

गुल्मांश्च स्थापयेदाप्तान् कृतसंज्ञान् समन्ततः।
स्थाने युद्धे च कुशलानभीरूनविकारिणः।।७।।

संहतान् योधयेदल्पान् कामं विस्तारयेद् बहून्।
सूच्या वज्रेण चैवैतान् व्यूहेन व्यूह्य योधयेत्।।८।।

स्यन्दनाश्वैः समे युध्येदनूपे नौद्विपैस्तथा।
वृक्षगुल्मावृते चापैरसिचर्मायुधैः स्थले।।९।।

प्रहर्षयेद् बलं व्यूह्य तांश्च सम्यक् परीक्षयेत्।
चेष्टाश्चैव विजानीयादरीन् योधयतामपि।।१०।।

उपरुध्यारिमासीत राष्ट्रं चास्योपपीडयेत्।
दूषयेच्चास्य सततं यवसान्नोदकेन्धनम्।।११।।

भिन्द्याच्चैव तडागानि प्राकारपरिखास्तथा।
समवस्कन्दयेत्त्वैनं रात्रै वित्रसयेत्तथा।।१२।।

प्रमाणानि च कुर्वीत तेषां धर्म्मान्यथोदितान्।
रत्नैश्च पूजयेदेनं प्रधानपुरुषैः सह।।१३।।

आदानमप्रियकरं दानञ्च प्रियकारकम्।
अभीप्सितानामर्थानां काले युक्तं प्रशस्यते।।१४।। मनु०।।

जब राजा शत्रुओं के साथ युद्ध करने को जावे तब अपने राज्य की रक्षा का प्रबन्ध और यात्र की सब सामग्री यथाविधि करके सब सेना, यान, वाहन, शस्त्रस्त्रदि पूर्ण लेकर सर्वत्र दूतों अर्थात् चारों ओर के समाचारों को देने वाले पुरुषों को गुप्त स्थापन करके शत्रुओं की ओर युद्ध करने को जावे।।१।। तीन प्रकार के मार्ग अर्थात् एक स्थल (भूमि) में, दूसरा जल (समुद्र वा नदियों) में, तीसरा आकाशमार्गों को युद्ध बनाकर भूमिमार्ग में रथ, अश्व, हाथी, जल में नौका और आकाश में विमानादि यानों से जावे और पैदल, रथ, हाथी, घोड़े, शस्त्र और अस्त्र खानपानादि सामग्री को यथावत् साथ ले बलयुक्त पूर्ण करके किसी निमित्त को प्रसिद्ध करके शत्रु के नगर के समीप धीरे-धीरे जावे।।२।। जो भीतर से शत्रु से मिला हो और अपने साथ भी ऊपर से मित्रता रक्खे, गुप्तता से शत्रु को भेद देवे, उस के आने जाने में उस से बात करने में अत्यन्त सावधानी रक्खे, क्योंकि भीतर शत्रु ऊपर मित्र पुरुष को बड़ा शत्रु समझना चाहिये।।३।।

सब राजपुरुषों को युद्ध करने की विद्या सिखावे और आप सीखे तथा अन्य प्रजाजनों को सिखावे जो पूर्व शिक्षित योद्धा होते हैं वे ही अच्छे प्रकार लड़ लड़ा जानते हैं। जब शिक्षा करे तब (दण्डव्यूह) दण्डा के समान सेना को चलावे (शकट०) जैसा शकट अर्थात् गाड़ी के समान (वराह०) जैसे सुअर एक दूसरे के पीछे दौड़ते जाते हैं और कभी-कभी सब मिलकर झुण्ड हो जाते हैं वैसे (मकर०) जैसा मगर पानी में चलते हैं वैसे सेना को बनावे (सूचीव्यूह) जैसे सूई का अग्रभाग सूक्ष्म पश्चात् स्थूल और उस से सूत्र स्थूल होता है वैसी शिक्षा से सेना को बनावे और जैसे (नीलकण्ठ) ऊपर नीचे झपट मारता है इस प्रकार सेना को बनाकर लड़ावे।।४।।

जिधर भय विदित हो उसी ओर सेना को फैलावे, सब सेना के पतियों को चारों ओर रख के (पद्मव्यूह) अर्थात् पद्माकार चारों ओर से सेनाओं को रखके मध्य में आप रहै।।५।।

सेनापति और बलाध्यक्ष अर्थात् आज्ञा का देने और सेना के साथ लड़ने लड़ाने वाले वीरों को आठों दिशाओं में रक्खे, जिस ओर से लड़ाई होती हो उसी ओर से सब सेना का मुख रक्खे परन्तु दूसरी ओर भी पक्का प्रबन्ध रक्खे नहीं तो पीछे वा पार्श्व से शत्रु की घात होने का सम्भव होता है।।६।।

जो गुल्म अर्थात् दृढ़ स्तम्भों के तुल्य युद्धविद्या से सुशिक्षित धार्मिक स्थित होने और युद्ध करने में चतुर भयरहित और जिनके मन में किसी प्रकार का विकार न हो उन को चारों ओर सेना के रक्खे।।७।।

जो थोड़े पुरुषों से बहुतों के साथ युद्ध करना हो तो मिलकर लड़ावें और काम पड़े तो उन्हीं को झट फैला देवे। जब नगर दुर्ग वा शत्रु की सेना में प्रविष्ट होकर युद्ध करना हो तो सब ‘सूचीव्यूह’ अथवा ‘वज्रव्यूह’ जैसे दुधारा खड्ग, दोनों ओर युद्ध करते जायें और प्रविष्ट भी होते चलें वैसे अनेक प्रकार के व्यूह अर्थात् सेना को बनाकर लड़ावें जो सामने (शतघ्नी) तोप वा (भुशुण्डी) बन्दूक छूट रही हो तो ‘सर्पव्यूह’ अर्थात् सर्प के समान सोते सोते चले जायें, जब तोपों के पास पहुंचें तब उनको मार वा पकड़ तोपों का मुख शत्रु की ओर फेर उन्हीं तोपों से वा बन्दूक आदि से उन शत्रुओं को मारें अथवा वृद्ध पुरुषों को तोपों के मुख के सामने घोड़ों पर सवार करा दौड़ावें और मारें, बीच में अच्छे-अच्छे सवार रहैं, एक बार धावा कर शत्रु की सेना को छिन्न-भिन्न कर पकड़ लें अथवा भगा दें।।८।।

जो समभूमि में युद्ध करना हो तो रथ घोड़े और पदातियों से और जो समुद्र में युद्ध करना हो तो नौका और थोड़े जल में हाथियों पर, वृक्ष और झाड़ी में बाण तथा स्थल बालू में तलवार और ढाल से युद्ध करें करावें।।९।।

जिस समय युद्ध होता हो उस समय लड़ने वालों को उत्साहित और हर्षित करें। जब युद्ध बन्ध हो जाय तब जिस से शौर्य और युद्ध में उत्साह हो वैसे वक्तृत्वों से सब के चित्त को खान-पान, अस्त्र-शस्त्र सहाय और औषधादि से प्रसन्न रक्खें। व्यूह के विना लड़ाई न करे न करावे, लड़ती हुई अपनी सेना की चेष्टा को देखा करे कि ठीक-ठीक लड़ती है वा कपट रखती है।।१०।।

किसी समय उचित समझे तो शत्रु को चारों ओर से घेर कर रोक रक्खें और इसके राज्य को पीड़ित कर शत्रु के चारा, अन्न, जल और इन्धन को नष्ट दूषित कर दे।।११।।

शत्रु के तालाब, नगर के प्रकोट और खाई को तोड़ फोड़ दे, रात्रि में उन को (त्रस) भय देवे और जीतने का उपाय करे।।१२।।

जीत कर उन के साथ प्रमाण अर्थात् प्रतिज्ञादि लिखा लेवे और जो उचित समय समझे तो उसी के वंशस्थ किसी धार्मिक पुरुष को राजा कर दे और उस से लिखा लेवे कि तुम को हमारी आज्ञा के अनुकूल अर्थात् जैसी धर्मयुक्त राजनीति है उस के अनुसार चल के न्याय से प्रजा का पालन करना होगा ऐसे उपदेश करे और ऐसे पुरुष उनके पास रक्खे कि जिससे पुनः उपद्रव न हो और जो हार जाय उसका सत्कार प्रधान पुरुषों के साथ मिलकर रत्नादि उत्तम पदार्थों के दान से करे और ऐसा न करे कि जिस से उस का योगक्षेम भी न हो, जो उस को बन्दीगृह करे तो भी उस का सत्कार यथायोग्य रक्खे जिस से वह हारने के शोक से रहित होकर आनन्द में रहे।।१३।।

क्योंकि संसार में दूसरे का पदार्थ ग्रहण करना अप्रीति और देना प्रीति का कारण है और विशेष करके समय पर उचित क्रिया करना और उस पराजित के मनोवाञ्छित पदार्थों का देना बहुत उत्तम है और कभी उस को चिड़ावे नहीं, न हंसी और ठट्ठा करे, न उस के सामने हमने तुझ को पराजित किया है ऐसा भी कहै, किन्तु आप हमारे भाई हैं इत्यादि मान्य प्रतिष्ठा सदा करे।।१४।।

हिरण्यभूमिसम्प्राप्त्या पार्थिवो न तथैधते।
यथा मित्रं ध्रुवं लब्ध्वा कृशमप्यायतिक्षमम्।।१।।

धर्मज्ञं च कृतज्ञं च तुष्टप्रकृतिमेव च।
अनुरक्तं स्थिरारम्भं लघुमित्रं प्रशस्यते।।२।।

प्राज्ञं कुलीनं शूरं च दक्षं दातारमेव च।
कृतज्ञं धृतिमन्तञ्च कष्टमाहुररिं बुधाः।।३।।

आर्य्यता पुरुषज्ञानं शौर्य्यं करुणवेदिता।
स्थौललक्ष्यं च सततमुदासीनगुणोदयः।।४।। मनु०।।

मित्र का लक्षण- यह है- राजा सुवर्ण और भूमि की प्राप्ति से वैसा नहीं बढ़ता कि जैसे निश्चल प्रेमयुक्त भविष्यत् की बातों को सोचने और कार्य सिद्ध करने वाले समर्थ मित्र अथवा दुर्बल मित्र को भी प्राप्त होके बढ़ता है।।१।।

धर्म को जानने और कृतज्ञ अर्थात् किये हुए उपकार को सदा मानने वाले प्रसन्नस्वभाव अनुरागी स्थिरारम्भी लघु छोटे भी मित्र को प्राप्त होकर प्रशंसित होता है।।२।।

सदा इस बात को दृढ़ रक्खे कि कभी बुद्धिमान्, कुलीन, शूरवीर, चतुर, दाता, किये हुए को जाननेहारे और धैर्यवान् पुरुष को शत्रु न बनावे क्योंकि जो ऐसे को शत्रु बनावेगा वह दुःख पावेगा।।३।।

उदासीन का लक्षण-जिस में प्रशंसित गुणयुक्त अच्छे बुरे मनुष्यों का ज्ञान, शूरवीरता करुणा भी, स्थूल लक्ष्य अर्थात् ऊपर-ऊपर की बातों को निरन्तर सुनाया करे वह उदासीन कहाता है।।४।।

एवं सर्वमिदं राजा सह सम्मन्त्र्य मन्त्रिभिः।
व्यायाम्याप्लुत्य मध्याह्ने भोक्तुमन्तःपुरं विशेत्।।१।।

पूर्वोक्त प्रातःकाल समय उठ शौचादि सन्ध्योपासन अग्निहोत्र कर वा करा सब मन्त्रियों से विचार कर सभा में जा सब भृत्य और सेनाध्यक्षों के साथ मिल, उन को हर्षित कर, नाना प्रकार की व्यूहशिक्षा अर्थात् कवायद कर करा, सब घोड़े, हाथी, गाय आदि स्थान शस्त्र और अस्त्र का कोश तथा वैद्यालय, धन के कोषों को देख सब पर दृष्टि नित्यप्रति देकर जो कुछ उनमें खोट हों उन को निकाल, व्यायामशाला में जा, व्यायाम करके भोजन के लिये ‘अन्तःपुर’ अर्थात् पत्नी आदि के निवासस्थान में प्रवेश करे और भोजन सुपरीक्षित, बुद्धिबल पराक्रमवर्द्धक, रोगविनाशक, अनेक प्रकार के अन्न व्यञ्जन पान आदि सुगन्धित मिष्टादि अनेक रसयुक्त उत्तम करे कि जिस से सदा सुखी रहै, इस प्रकार सब राज्य के कार्यों की उन्नति किया करे।।१।।

प्रजा से कर लेने का प्रकार-

पञ्चाशद्भाग आदेयो राज्ञा पशुहिरण्ययोः।
धान्यानामष्टमो भागः षष्ठो द्वादश एव वा।। मनु०।।

जो व्यापार करने वाले वा शिल्पी को सुवर्ण चांदी का जितना लाभ हो, उस में से पचासवां भाग, चावल आदि अन्नों में छठा, आठवां वा बारहवां भाग लिया करे, और जो धन लेवे तो भी उस प्रकार लेवे कि जिस से किसान आदि खाने पीने

राजा भवत्यनेनास्तु मुच्यन्ते च सभासदः।
एनो गच्छति कर्त्तारं निन्दार्हो यत्र निन्द्यते।।१४।। मनु०।।

सभा राजा और राजपुरुष सब लोग सदाचार और शास्त्रव्यवहार हेतुओं से निम्नलिखित अठारह विवादास्पद मार्गों में विवादयुक्त कर्मों का निर्णय प्रतिदिन किया करें और जो-जो नियम शास्त्रेक्त न पावें और उन के होने की आवश्यकता जानें तो उत्तमोत्तम नियम बांवमें कि जिससे राजा और प्रजा की उन्नति हो।।१।।

अठारह मार्ग ये हैं-उन में से

१- (ऋणादान) किसी से ऋण लेने देने का विवाद।

२- (निक्षेप) धरावट अर्थात् किसी ने किसी के पास पदार्थ धरा हो और मांगे पर न देना। ३-(अस्वामिविक्रय) दूसरे के पदार्थ को दूसरा बेच लेवे।

४- (सम्भूय च समुत्थानम्) मिल मिला के किसी पर अत्याचार करना।

५- (दत्तस्यानपकर्म च ) दिये हुए पदार्थ का न देना।।२।।

६- (वेतनस्यैव चादानम्) वेतन अर्थात् किसी की ‘नौकरी’ में से ले लेना वा कम देना अथवा न देना।

७- (प्रतिज्ञा) प्रतिज्ञा से विरुद्ध वर्त्तना।

८- (क्रय-विक्रयानुशय) अर्थात् लेन देन में झगड़ा होना।

९- पशु के स्वामी और पालने वाले का झगड़ा।।३।।

१०- सीमा का विवाद।

११- किसी को कठोर दण्ड देना।

१२- कठोर वाणी का बोलना।

१३- चोरी डाका मारना।

१४- किसी काम को बलात्कार से करना।

१५- किसी की स्त्री वा पुरुष का व्यभिचार होना।।४।।

१६- स्त्री और पुरुष के धर्म में व्यतिक्रम होना।

१७- विभाग अर्थात् दायभाग में वाद उठना।

१८- द्यूत अर्थात् जड़ पदार्थ और समाह्वय अर्थात् चेतन को दाव में धर के जुआ खेलना। ये अठारह प्रकार के परस्पर विरुद्ध व्यवहार के स्थान हैं।।५।।

इन व्यवहारों में बहुत से विवाद करने वाले पुरुषों के न्याय को सनातनधर्म के आश्रय करके किया करे अर्थात् किसी का पक्षपात कभी न करे।।६।।

जिस सभा में अधर्म से घायल होकर धर्म उपस्थित होता है जो उसका शल्य अर्थात् तीरवत् धर्म के कलंक को निकालना और अधर्म का छेदन करते अर्थात् धर्मी को मान अधर्मी को दण्ड नहीं मिलता उस सभा में जितने सभासद् हैं वे सब घायल के समान समझे जाते हैं।।७।।

धार्मिक मनुष्य को योग्य है कि सभा में कभी प्रवेश न करे और जो प्रवेश किया हो तो सत्य ही बोले। जो कोई सभा में अन्याय होते हुए को देखकर मौन रहे अथवा सत्य न्याय के विरुद्ध बोले वह महापापी होता है।।८।।

जिस सभा में अधर्म से धर्म, असत्य से सत्य सब सभासदों के देखते हुए मारा जाता है उस सभा में सब मृतक के समान हैं जानो उन में कोई भी नहीं जीता।।९।।

मारा हुआ धर्म मारने वाले का नाश और रक्षित किया हुआ धर्म रक्षक की रक्षा करता है इसलिये धर्म का हनन कभी न करना इस डर से कि मारा हुआ धर्म कभी हम को न मार डाले।।१०।।

जो सब ऐश्वर्यों के देने और सुखों की वर्षा करने वाला धर्म है उस का लोप करता है उसी को विद्वान् लोग वृषल अर्थात् शूद्र और नीच जानते हैं। इसलिये किसी मनुष्य को धर्म का लोप करना उचित नहीं।।११।।

इस संसार में एक धर्म ही सुहृद् है जो मृत्यु के पश्चात् भी साथ चलता है और सब पदार्थ वा संगी शरीर के नाश के साथ ही नाश को प्राप्त होते हैं अर्थात् सब का संग छूट जाता है परन्तु धर्म का संग कभी नहीं छूटता।।१२।।

जब राजसभा में पक्षपात से अन्याय किया जाता है वहां अधर्म के चार विभाग हो जाते हैं उनमें एक अधर्म के कर्त्ता, दूसरा साक्षी, तीसरा सभासदों और चौथा पाद अधर्मी सभा के सभापति राजा को 

प्राप्त होता है।।१३।।

जिस सभा में निन्दा के योग्य की निन्दा, स्तुति के योग्य की स्तुति, दण्ड के योग्य को दण्ड और मान्य के योग्य को मान्य होता है वहां राजा और सभासद् पाप से रहित और पवित्र हो जाते हैं पाप के कर्त्ता ही को पाप प्राप्त होता है।।१४।। 

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In the world, accepting another's substance is the reason for apriety and love, and especially it is very good to do proper action in time and to give the desired things of that vanquished and never tease him, laugh or mock him, nor in front of him. We have also defeated you, say the same, but you are our brother, etc. Always maintain a valid reputation. In this world, there is only one religion, which goes along with it even after death, and all the things or the common body are destroyed along with the destruction, that is, all is left with the company but the religion never leaves.

 

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  • महर्षि दयानन्द की मानवीय संवेदना

    महर्षि दयानन्द की मानवीय संवेदना महर्षि स्वामी दयानन्द अपने करुणापूर्ण चित्त से प्रेरित होकर गुरुदेव की आज्ञा लेकर देश का भ्रमण करने निकल पड़े। तथाकथित ब्राह्मणों का समाज में वर्चस्व था। सती प्रथा के नाम पर महिलाओं को जिन्दा जलाया जा रहा था। स्त्रियों को पढने का अधिकार नहीं था। बालविवाह, नारी-शिक्षा,...

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