तृतीय समुल्लास भाग - 4
जो वेद और वेदानुकूल आप्त पुरुषों के किये शास्त्रें का अपमान करता है उस वेदनिन्दक नास्तिक को जाति, पङ्क्ति और देश से बाह्य कर देना चाहिये। क्योंकि-
श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।
एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।। मनु०।।
श्रुति वेद, स्मृति वेदानुकूल आप्तोक्त मनुस्मृत्यादि शास्त्र, सत्पुरुषों का आचार जो सनातन अर्थात् वेदद्वारा परमेश्वरप्रतिपादित कर्म्म और अपने आत्मा में प्रिय अर्थात् जिस को आत्मा चाहता है जैसे कि सत्यभाषण ये चार धर्म के लक्षण अर्थात् इन्हीं में धर्माधर्म का निश्चय होता है। जो पक्षपातरहित न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्यागरूप आचार है उसी का नाम धर्म और इस से विपरीत जो पक्षपात सहित अन्यायाचरण सत्य का त्याग और असत्य का ग्रहण रूप कर्म है उसी को अधर्म कहते हैं।
अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते।
धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः।। मनु०।।
जो पुरुष (अर्थ) सुवर्णादि रत्न और (काम) स्त्रीसेवनादि में नहीं फंसते हैं उन्हीं को धर्म का ज्ञान प्राप्त होता है जो धर्म के ज्ञान की इच्छा करें वे वेद द्वारा धर्म का निश्चय करें क्योंकि धर्माऽधर्म का निश्चय विना वेद के ठीक-ठीक नहीं होता। इस प्रकार आचार्य्य अपने शिष्य को उपदेश करे और विशेषकर राजा इतर क्षत्रिय, वैश्य और उत्तम शूद्र जनों को भी विद्या का अभ्यास अवश्य करावें, क्योंकि जो ब्राह्मण हैं वे ही केवल विद्याभ्यास करें और क्षत्रियादि न करें तो विद्या, धर्म, राज्य और धनादि की वृद्धि कभी नहीं हो सकती। क्योंकि ब्राह्मण तो केवल पढ़ने पढ़ाने और क्षत्रियादि से जीविका को प्राप्त होके जीवन धारण कर सकते हैं। जीविका के आधीन और क्षत्रियादि के आज्ञादाता और यथावत् परीक्षक दण्डदाता न होने से ब्राह्मणादि सब वर्ण पाखण्ड ही में फंस जाते हैं और जब क्षत्रियादि विद्वान् होते हैं तब ब्राह्मण भी अधिक विद्याभ्यास और धर्मपथ में चलते हैं और उन क्षत्रियादि विद्वानों के सामने पाखण्ड, झूठा व्यवहार भी नहीं कर सकते और जब क्षत्रियादि अविद्वान् होते हैं तो वे जैसा अपने मन में आता है वैसा ही करते कराते हैं। इसलिये ब्राह्मण भी अपना कल्याण चाहैं तो क्षत्रियादि को वेदादि सत्यशास्त्र का अभ्यास अधिक प्रयत्न से करावें। क्योंकि क्षत्रियादि ही विद्या, धर्म, राज्य और लक्ष्मी की वृद्धि करने हारे हैं, वे कभी भिक्षावृत्ति नहीं करते, इसलिए वे विद्या व्यवहार में पक्षपाती भी नहीं हो सकते। और जब सब वर्णों में विद्या सुशिक्षा होती है तब कोई भी पाखण्डरूप अधर्मयुक्त मिथ्या व्यवहार को नहीं चला सकता। इससे क्या सिद्ध हुआ कि क्षत्रियादि को नियम में चलाने वाले ब्राह्मण और संन्यासी तथा ब्राह्मण और संन्यासी को सुनियम में चलाने वाले क्षत्रियादि होते हैं। इसलिये सब वर्णों के स्त्री पुरुषों में विद्या और धर्म का प्रचार अवश्य होना चाहिये।
अब जो-जो पढ़ना-पढ़ाना हो वह-वह अच्छी प्रकार परीक्षा करके होना योग्य है। परीक्षा पांच प्रकार से होती है-
एक- जो-जो ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और वेदों से अनुकूल हो वह-वह सत्य और उससे विरुद्ध असत्य है।
दूसरी- जो-जो सृष्टिक्रम से अनुकूल वह-वह सत्य और जो-जो सृष्टिक्रम से विरुद्ध है वह सब असत्य है। जैसे-कोई कहै ‘विना माता पिता के योग से लड़का उत्पन्न हुआ’ ऐसा कथन सृष्टिक्रम से विरुद्ध होने से सर्वथा असत्य है।
तीसरी-‘आप्त’ अर्थात् जो धार्मिक विद्वान्, सत्यवादी, निष्कपटियों का संग उपदेश के अनुकूल है वह-वह ग्राह्य और जो-जो विरुद्ध वह-वह अग्राह्य है।
चौथी- अपने आत्मा की पवित्रता विद्या के अनुकूल अर्थात् जैसा अपने को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है वैसे ही सर्वत्र समझ लेना कि मैं भी किसी को दुःख वा सुख दूँगा तो वह भी अप्रसन्न और प्रसन्न होगा।
और पांचवीं- आठों प्रमाण अर्थात् प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव इनमें से प्रत्यक्ष के लक्षणादि के जो-जो सूत्र नीचे लिखेंगे वे-वे सब न्यायशास्त्र के प्रथम और द्वितीय अध्याय के जानो।
इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारिव्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्। -न्याय० अध्याय १। आह्निक १। सूत्र ४।।
जो श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा और घ्राण का शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध के साथ अव्यवहित अर्थात् आवरणरहित सम्बन्ध होता है । इन्द्रियों के साथ मन का और मन के साथ आत्मा के संयोग से ज्ञान उत्पन्न होता है उस को प्रत्यक्ष कहते हैं परन्तु जो व्यपदेश्य अर्थात् संज्ञासंज्ञी के सम्बन्ध से उत्पन्न होता है वह-वह ज्ञान न हो। जैसा किसी ने किसी से कहा कि ‘तू जल ले आ’ वह लाके उस के पास धर के बोला कि ‘यह जल है’ परन्तु वहां ‘जल’ इन दो अक्षरों की संज्ञा लाने वा मंगवाने वाला नहीं देख सकता है। किन्तु जिस पदार्थ का नाम जल है वही प्रत्यक्ष होता है और जो शब्द से ज्ञान उत्पन्न होता है वह शब्द-प्रमाण का विषय है। ‘अव्यभिचारि’ जैसे किसी ने रात्रि में खम्भे को देख के पुरुष का निश्चय कर लिया, जब दिन में उसको देखा तो रात्रि का पुरुषज्ञान नष्ट होकर स्तम्भज्ञान रहा, ऐसे विनाशी ज्ञान का नाम व्यभिचारी है। ‘व्यवसायात्मक’ किसी ने दूर से नदी की बालू को देख के कहा कि ‘वहां वस्त्र सूख रहे हैं, जल है वा और कुछ है’ ‘वह देवदत्त खड़ा है वा यज्ञदत्त’ जब तक एक निश्चय न हो तब तक वह प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है किन्तु जो अव्यपदेश्य, अव्यभिचारि और निश्चयात्मक ज्ञान है उसी को प्रत्यक्ष कहते हैं। दूसरा अनुमान-
अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतो दृष्टञ्च।। -न्याय० अ० १। आ० १। सू० ५।।
जो प्रत्यक्षपूर्वक अर्थात् जिसका कोई एक देश वा सम्पूर्ण द्रव्य किसी स्थान वा काल में प्रत्यक्ष हुआ हो उसका दूर देश में सहचारी एक देश के प्रत्यक्ष होने से अदृष्ट अवयवी का ज्ञान होने को अनुमान कहते हैं। जैसे पुत्र को देख के पिता, पर्वतादि में वमूम को देख के अग्नि, जगत् में सुख दुःख देख के पूर्वजन्म का ज्ञान होता है। वह अनुमान तीन प्रकार का है। एक ‘पूर्ववत्’ जैसे बद्दलों को देख के वर्षा, विवाह को देख के सन्तानोत्पत्ति, पढ़ते हुए विद्यार्थियों को देख के विद्या होने का निश्चय होता है, इत्यादि जहां-जहां कारण को देख के कार्य का ज्ञान हो वह ‘पूर्ववत्’। दूसरा ‘शेषवत्’ अर्थात् जहां कार्य को देख के कारण का ज्ञान हो । जैसे नदी के प्रवाह की बढ़ती देख के ऊपर हुई वर्षा का, पुत्र को देख के पिता का, सृष्टि को देख के अनादि कारण का तथा कर्त्ता ईश्वर का और पाप पुण्य के आचरण को देख के सुख दुःख का ज्ञान होता है, इसी को ‘शेषवत्’ कहते हैं। तीसरा ‘सामान्यतोदृष्ट’ जो कोई किसी का कार्य कारण न हो परन्तु किसी प्रकार का साधर्म्य एक दूसरे के साथ हो जैसे कोई भी विना चले दूसरे स्थान को नहीं जा सकता वैसे ही दूसरों का भी स्थानान्तर में जाना विना गमन के कभी नहीं हो सकता। अनुमान शब्द का अर्थ यही है कि अनु अर्थात् ‘प्रत्यक्षस्य पश्चान्मीयते ज्ञायते येन तदनुमानम्’ जो प्रत्यक्ष के पश्चात् उत्पन्न हो जैसे धूम के प्रत्यक्ष देखे विना अदृष्ट अग्नि का ज्ञान कभी नहीं हो सकता।
तीसरा उपमान- प्रसिद्धसाधर्म्यात्साध्यसाधनमुपमानम्।। -न्याय० अ० १। आ० १। सू० ६।।
जो प्रसिद्ध प्रत्यक्ष साधर्म्य से साध्य अर्थात् सिद्ध करने योग्य ज्ञान की सिद्धि करने का साधन हो उसको उपमान कहते हैं। ‘उपमीयते येन तदुपमानम्’ जैसे किसी ने किसी भृत्य से कहा कि ‘तू देवदत्त के सदृश विष्णुमित्र को बुला ला’ वह बोला कि-‘मैंने उसको कभी नहीं देखा’ उस के स्वामी ने कहा कि ‘जैसा यह देवदत्त है वैसा ही वह विष्णुमित्र है’ वा ‘जैसी यह गाय है वैसा ही गवय अर्थात् नीलगाय होता है।’ जब वह वहां गया और देवदत्त के सदृश उस को देख निश्चय कर लिया कि यही विष्णुमित्र है, उसको ले आया। अथवा किसी जंगल में जिस पशु को गाय के तुल्य देखा उसको निश्चय कर लिया कि इसी का नाम गवय है।
चौथा शब्दप्रमाण-
आप्तोपदेशः शब्दः।। -न्याय० अ० १। आ० १। सू० ७।।
जो आप्त अर्थात् पूर्ण विद्वान्, धर्मात्मा, परोपकारप्रिय, सत्यवादी, पुरुषार्थी, जितेन्द्रिय पुरुष जैसा अपने आत्मा में जानता हो और जिस से सुख पाया हो उसी के कथन की इच्छा से प्रेरित सब मनुष्यों के कल्याणार्थ उपदेष्टा हो अर्थात् जितने पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों का ज्ञान प्राप्त होकर उपदेष्टा होता है। जो ऐसे पुरुष और पूर्ण आप्त परमेश्वर के उपदेश वेद हैं, उन्हीं को शब्दप्रमाण जानो।
पांचवां ऐतिं-
न चतुष्ट्वमैतिह्यार्थापत्तिसम्भवाभावप्रामाण्यात्।। -न्याय० अ० २। आ० २। सू० १।।
जो इति ह अर्थात् इस प्रकार का था उस ने इस प्रकार किया अर्थात् किसी के जीवनचरित्र का नाम ऐतिह्य है।
छठा अर्थापत्ति-
‘अर्थादापद्यते सा अर्थापत्तिः’ केनचिदुच्यते ‘सत्सु घनेषु वृष्टिः, सति कारणे कार्य्यं भवतीति किमत्र प्रसज्यते, असत्सु घनेषु वृष्टिरसति कारणे च कार्य्यं न भवति ।’ जैसे किसी ने किसी से कहा कि ‘बद्दल के होने से वर्षा और कारण के होने से कार्य्य उत्पन्न होता है’ इस से विना कहे यह दूसरी बात सिद्ध होती है कि विना बद्दल वर्षा और विना कारण कार्य्य कभी नहीं हो सकता। सातवां सम्भव- ‘सम्भवति यस्मिन् स सम्भवः’ कोई कहे कि ‘माता पिता के विना सन्तानोत्पत्ति, किसी ने मृतक जिलाये, पहाड़ उठाये, समुद्र में पत्थर तराये, चन्द्रमा के टुकड़े किये, परमेश्वर का अवतार हुआ, मनुष्य के सींग देखे और वन्ध्या के पुत्र और पुत्री का विवाह किया, इत्यादि सब असम्भव हैं। क्योंकि ये सब बातें सृष्टिक्रम से विरुद्ध हैं। जो बात सृष्टिक्रम के अनुकूल हो वही सम्भव है। आठवां अभाव- ‘न भवन्ति यस्मिन् सोऽभावः’ जैसे किसी ने किसी से कहा कि ‘हाथी ले आ’ वह वहां हाथी का अभाव देख कर जहां हाथी था वहां से ले आया। ये आठ प्रमाण। इन में से जो शब्द में ऐतिह्य और अनुमान में अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव की गणना करें तो चार प्रमाण रह जाते हैं। इन चार प्रकार की परीक्षाओं से मनुष्य सत्यासत्य का निश्चय कर सकता है अन्यथा नहीं।
धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां
साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम्।। -वै० अ० १। आ० १। सू० ४।।
जब मनुष्य धर्म के यथायोग्य अनुष्ठान करने से पवित्र होकर ‘साधर्म्य’ अर्थात् जो तुल्य धर्म है जैसा पृथिवी जड़ और जल भी जड़, ‘वैधर्म्य’ अर्थात् पृथिवी कठोर और जल कोमल, इसी प्रकार से द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन छः पदार्थों के तत्त्वज्ञान अर्थात् स्वरूपज्ञान से ‘निःश्रेयसम्’ मोक्ष प्राप्त होता है।
पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि।। -वै० अ० १। आ० १। सू० ५।।
पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन ये नव द्रव्य हैं।
क्रियागुणवत्समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम्।। -वै० अ० १। आ० १। सू० १५।।
‘क्रियाश्च गुणाश्च विद्यन्ते यस्मिंस्तत् क्रियागुणवत्’ जिस में क्रिया, गुण और केवल गुण भी रहैं उस को द्रव्य कहते हैं। उन में से पृथिवी, जल, तेज, वायु, मन और आत्मा ये छः द्रव्य क्रिया और गुणवाले हैं तथा आकाश, काल और दिशा ये तीन क्रियारहित गुण वाले हैं। (समवायि) ‘समवेतुं’ शीलं यस्य तत् समवायि प्राग्वृत्तित्वं कारणं समवायि च तत्कारणं च समवायिकारणम् ।’ ‘लक्ष्यते येन तल्लक्षणम्’ जो मिलने के स्वभावयुक्त कार्य से कारण पूर्वकालस्थ हो उसी को ‘द्रव्य’ कहते हैं। जिस से लक्ष्य जाना जाय जैसा आंख से रूप जाना जाता है उसको ‘लक्षण’ कहते हैं।
रूपरसगन्धस्पर्शवती पृथिवी।। -वै० अ० २। आ० १। सू० १।।
रूप, रस, गन्ध, स्पर्शवाली पृथिवी है। उस में रूप, रस और स्पर्श अग्नि, जल और वायु के योग से हैं।
व्यवस्थितः पृथिव्यां गन्धः।। -वै० अ० २। आ० २। सू० २।।
पृथिवी में गन्ध गुण स्वाभाविक है। वैसे ही जल में रस, अग्नि में रूप, वायु में स्पर्श और आकाश में शब्द स्वाभाविक है।
रूपरसस्पर्शवत्य आपो द्रवाः स्निग्धाः।। -वै० अ० २। आ० १। सू० २।।
रूप, रस और स्पर्शवान् द्रवीभूत और कोमल जल कहाता है। परन्तु इन में जल का रस स्वाभाविक गुण तथा रूप, स्पर्श अग्नि और वायु के योग से हैं। –
अप्सु शीतता।। -वै० अ० २। आ० १। सू० ५।।
और जल में शीतलत्व गुण भी स्वाभाविक है।
तेजो रूपस्पर्शवत्।। -वै० अ० २। आ० १। सू० ३।।
जो रूप और स्पर्शवाला है वह तेज है। परन्तु इस में रूप स्वाभाविक और स्पर्श वायु योग से है।
स्पर्शवान् वायुः।। -वै० अ० २। आ० १। सू० ४।।
स्पर्श गुणवाला वायु है परन्तु इस में भी उष्णता, शीतता, तेज और जल के योग से रहते हैं।
त आकाशे न विद्यन्ते।। -वै० अ० २। आ० १। सू० ५।।
रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आकाश में नहीं हैं। किन्तु शब्द ही आकाश का गुण है।
निष्क्रमणं प्रवेशनमित्याकाशस्य लिंगम्।। -वै० अ० २। आ० १। सू० २०।।
जिसमें प्रवेश और निकलना होता है वह आकाश का लिंग है।
कार्य्यान्तराप्रादुर्भावाच्च शब्दः स्पर्शवतामगुणः।। -वै० अ० २। आ० १। सू० २५।।
अन्य पृथिवी आदि कार्यों से प्रकट न होने से शब्द; स्पर्शगुणवाले भूमि आदि का गुण नहीं हैं किन्तु शब्द आकाश ही का गुण है।
अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिंगानि।। -वै० अ० २। आ० २। सू० ६।।
जिसमें अपर पर (युगपत्) एक वार (चिरम्) विलम्ब (क्षिप्रम्) शीघ्र इत्यादि प्रयोग होते हैं उसको ‘काल’ कहते हैं।
नित्येष्वभावादनित्येषु भावात्कारणे कालाख्येति।। -वै० अ० २। आ० २। सू० ९।।
जो नित्य पदार्थों में न हो और अनित्यों में हो इसलिये कारण में ही काल संज्ञा है।
इत इदमिति यतस्तद्दिश्यं लिंगम्।। -वै० अ० २। आ० २। सू० १०।।
यहां से वह पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊपर, नीचे, जिस में यह व्यवहार होता है उसी को ‘दिशा’ कहते हैं।
आदित्यसंयोगाद् भूतपूर्वाद् भविष्यतो भूताच्च प्राची।। -वै० अ० २। आ० २। सू० १४।।
जिस ओर प्रथम आदित्य का संयोग हुआ है, होगा, उस को पूर्व दिशा कहते हैं। और जहां अस्त हो उस को पश्चिम कहते हैं। पूर्वाभिमुख मनुष्य के दाहिनी ओर दक्षिण और बाईं ओर उत्तर दिशा कहाती है।
एतेन दिगन्तरालानि व्याख्यातानि।। -वै० अ० २। आ० २। सू० १६।।
इस से पूर्व दक्षिण के बीच की दिशा को आग्नेयी, दक्षिण पश्चिम के बीच को नैऋत, पश्चिम उत्तर के बीच को वायवी और उत्तर पूर्व के बीच को ऐशानी दिशा कहते हैं।
इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिंगमिति।। -न्याय० अ० १। आ० १। सू० १०।।
जिस में (इच्छा) राग, (द्वेष) वैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ, सुख, दुःख, (ज्ञान) जानना, गुण हों वह जीवात्मा है। वैशेषिक में इतना विशेष है-
प्राणाऽपाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तिर्वकाराः
सुखदुःखेच्छा- द्वेषप्रयत्नाश्चात्मनो लिंगानि।। -वै० अ० ३। आ० २। सू० ४।।
(प्राण) भीतर से वायु को निकालना (अपान) बाहर से वायु को भीतर लेना (निमेष) आंख को नीचे ढांकना (उन्मेष) आंख का ऊपर उठाना (जीवन) प्राण का धारण करना (मनः) मनन विचार अर्थात् ज्ञान (गति) यथेष्ट गमन करना (इन्द्रिय) इन्द्रियों को विषयों में चलाना उन से विषयों का ग्रहण करना (अन्तर्विकार) क्षुधा, तृषा, ज्वर, पीड़ा आदि विकारों का होना, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न ये सब आत्मा के लिंग अर्थात् कर्म और गुण हैं।
युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिंगम्।। -न्याय० अ० १। आ० १। सू० १६।।
जिस से एक काल में दो पदार्थों का ग्रहण ज्ञान नहीं होता उस को मन कहते हैं। यह द्रव्य का स्वरूप और लक्षण कहा। अब गुणों का कहते हैं-
रूपरसगन्धस्पर्शाः संख्याः परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागौ परत्वा- ऽपरत्वे बुद्धयः सुखदुःखे इच्छाद्वेषौ प्रयत्नाश्च गुणाः।। -वै० अ० १। आ० १। सू० ६।।
रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, धर्म, अधर्म और शब्द ये २४ गुण कहाते हैं।
द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम्।। -वै० अ० १। आ० १। सू० १६।।
गुण उसको कहते हैं कि जो द्रव्य के आश्रय रहै, अन्य गुण का धारण न करे, संयोग और विभाग में कारण न हो, अनपेक्ष अर्थात् एक दूसरे की अपेक्षा न करे उसका नाम गुण है।
श्रोत्रेपलब्धिर्बुद्धिनिर्ग्राह्यः प्रयोगेणाऽभिज्वलित आकाशदेशः शब्दः।। -महाभाष्य।।
जिसकी श्रोत्रें से प्राप्ति जो बुद्धि से ग्रहण करने योग्य और प्रयोग से प्रकाशित तथा आकाश जिस का देश है वह शब्द कहाता है। नेत्र से जिस का ग्रहण हो वह रूप, जिह्वा से जिस मिष्टादि अनेक प्रकार का ग्रहण होता है वह रस, नासिका से जिस का ग्रहण होता है वह गन्ध, त्वचा से जिसका ग्रहण होता है वह स्पर्श, एक द्वि इत्यादि गणना जिस से होती है वह संख्या, जिस से तौल अर्थात् हल्का भारी विदित होता है वह परिमाण, एक दूसरे से अलग होना वह पृथक्त्व, एक दूसरे के साथ मिलना वह संयोग, एक दूसरे से मिले हुए के अनेक टुकड़े होना वह विभाग, इस से यह पर है वह पर, उस से यह उरे है वह अपर, जिस से अच्छे बुरे का ज्ञान होता है वह बुद्धि, आनन्द का नाम सुख, क्लेश का नाम दुःख, (इच्छा) राग, (द्वेष) विरोध, (प्रयत्न) अनेक प्रकार का बल पुरुषार्थ, (गुरुत्व) भारीपन, (द्रवत्व) पिघल जाना, (स्नेह) प्रीति और चिकनापन, (संस्कार) दूसरे के योग से वासना का होना, (धर्म) न्यायाचरण और कठिनत्वादि (अधर्म) अन्यायाचरण और कठिनता से विरुद्ध कोमलता ये २४ गुण हैं।
उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकुञ्चनं प्रसारणं गमनमिति कर्माणि।। -वै० अ० १। आ० १। सू० ७।।
‘उत्क्षेपण’ ऊपर को चेष्टा करना ‘अवक्षेपण’ नीचे को चेष्टा करना
‘आकुञ्चन’ संकोच करना ‘प्रसारण’ फ़ैलाना ‘गमन’ आना जाना घूमना आदि इन को कर्म कहते हैं। अब कर्म का लक्षण-
एकद्रव्यमगुणं संयोगविभागेष्वनपेक्षकारणमिति कर्मलक्षणम्।। -वै० अ० १। आ० १। सू० १७।।
‘एकं द्रव्यमाश्रय आधारो यस्य तदेकद्रव्यं न विद्यते गुणो यस्य यस्मिन् वा तदगुणं संयोगेषु विभागेषु चाऽपेक्षारहितं कारणं तत्कर्मलक्षणं’ अथवा ‘यत् क्रियते तत्कर्म, लक्ष्यते येन तल्लक्षणम्, कर्मणो लक्षणं कर्मलक्षणम्’ एक द्रव्य के आश्रित गुणों से रहित संयोग और विभाग होने में अपेक्षा रहित कारण हो उसको कर्म्म कहते हैं।
द्रव्यगुणकर्मणां द्रव्यं कारणं सामान्यम्।। -वै० अ० १। आ० १। सू० १८।।
जो कार्य द्रव्य गुण और कर्म का कारण द्रव्य है। वह सामान्य द्रव्य है।
द्रव्याणां द्रव्यं कार्यं सामान्यम्।। -वै० अ० १। आ० १। सू० २३।।
जो द्रव्यों का कार्य द्रव्य है वह कार्यपन से सब कार्यों में सामान्य है।
द्रव्यत्वं गुणत्वं कर्मत्वञ्च सामान्यानि विशेषाश्च।। -वै० अ० १। आ० २। सू० ५।।
द्रव्यों में द्रव्यपन, गुणों में गुणपन, कर्मों में कर्मपन ये सब सामान्य और विशेष कहाते हैं। क्योंकि द्रव्यों में द्रव्यत्व सामान्य और गुणत्व कर्मत्व से द्रव्यत्व विशेष है; इसी प्रकार सर्वत्र जानना।
सामान्यं विशेष इति बुद्ध्यपेक्षम्।। -वै० अ० १। आ० २। सू० ३।।
सामान्य और विशेष बुद्धि की अपेक्षा से सिद्ध होते हैं। जैसे-मनुष्य व्यक्तियों में मनुष्यत्व सामान्य और पशुत्वादि से विशेष तथा स्त्रीत्व और पुरुषत्व इनमें ब्राह्मणत्व क्षत्रियत्व वैश्यत्व शूद्रत्व भी विशेष हैं। ब्राह्मण व्यक्तियों में ब्राह्मणत्व सामान्य और क्षत्रियादि से विशेष है इसी प्रकार सर्वत्र जानो।
इहेदमिति यतः कार्यकारणयोः स समवायः।। -वै० अ० ७। आ० २। सू० २६।।
कारण अर्थात् अवयवों में अवयवी कार्यों में क्रिया क्रियावान्, गुण गुणी, जाति व्यक्ति कार्य्य कारण, अवयव अवयवी, इन का नित्य सम्बन्ध होने से समवाय कहाता है और जो दूसरा द्रव्यों का परस्पर सम्बन्ध होता है वह संयोग अर्थात् अनित्य सम्बन्ध है।
द्रव्यगुणयोः सजातीयारम्भकत्वं साधर्म्यम्।। -वै० अ० १। आ० १। सू० ९।।
जो द्रव्य और गुण का समान जातीयक कार्य्य का आरम्भ होता है उस को साधर्म्य कहते हैं। जैसे पृथिवी में जड़त्व धर्म और घटादि कार्योत्पादकत्व स्वसदृश धर्म है वैसे ही जल में भी जडत्व और हिम आदि स्वसदृश कार्य का आरम्भ पृथिवी के साथ जल का और जल के साथ पृथिवी का तुल्य धर्म है। अर्थात् ‘द्रव्य- गुणयोर्विजातीयारम्भकत्वं वैधर्म्यम्’ यह विदित हुआ कि जो द्रव्य और गुण का विरुद्ध धर्म और कार्य का आरम्भ है उस को वैधर्म्य कहते हैं। जैसे पृथिवी में कठिनत्व, शुष्कत्व और गन्धवत्त्व धर्म जल से विरुद्ध और जल का द्रवत्व, कोमलता और रसगुणयुक्तता पृथिवी से विरुद्ध है।
कारणभावात्कार्यभावः।। -वै० अ० ४। आ० १। सू० ३।।
कारण के होने ही से कार्य्य होता है।
न तु कार्याभावात्कारणाभावः।। -वै० अ० १। आ० २। सू० २।।
कार्य के अभाव से कारण का अभाव नहीं होता।
कारणाऽभावात्कार्याऽभावः।। -वै० अ० १। आ० २। सू० १।।
कारण के न होने से कार्य कभी नहीं होता।
कारणगुणपूर्वकः कार्यगुणो दृष्टः।। -वै० अ० २। आ० १। सू० २४।।
जैसे कारण में गुण होते हैं वैसे ही कार्य्य में होते हैं। परिमाण दो प्रकार का है-
अणुमहदिति तस्मिन्विशेषभावाद्विशेषाभावाच्च।। -वै० अ० ७। आ० १। सू० ११।।
(अणु) सूक्ष्म (महत्) बड़ा। जैसे त्रसरेणु लिक्षा से छोटा और द्व्यणुक से बड़ा है तथा पहाड़ पृथिवी से छोटे, वृक्षों से बड़े हैं।
सदिति यतो द्रव्यगुणकर्मसु सा सत्ता।। -वै० अ० १। आ० २। सू० ७।।
जो द्रव्य, गुण, कर्मों के सत् शब्द अन्वित रहता है अर्थात् ‘सद् द्रव्यम्, सद् गुणः, सत्कर्म’ सद् द्रव्य, सद् गुण, सत् कर्म अर्थात् वर्त्तमान कालवाची शब्द का अन्वय सब के साथ रहता है।
भावोऽनुवृत्तेरेव हेतुत्वात्सामान्यमेव।। -वै० अ० १। आ० २। सू० ४।।
जो सब के साथ अनुवर्त्तमान होने से सत्तारूप भाव है सो महासामान्य कहाता है । यह क्रम भावरूप द्रव्यों का है और जो अभाव है वह पाचं पक्रार का होता है।
क्रियागुणव्यपदेशाभावात्प्रागसत्।। -वै० अ० ९। आ० १। सू० १।।
क्रिया और गुण के विशेष निमित्त के अभाव से प्राक् अर्थात् पूर्व (असत्) न था जैसे घट, वस्त्रदि उत्पत्ति के पूर्व नहीं थे इसका नाम ‘प्रागभाव’।
दूसरा- सदसत्। -वै० अ० ९। आ० १। सू० २।।
जो होके न रहै जैसे घट उत्पन्न होके नष्ट हो जाय यह ‘प्रध्वंसाभाव’ कहाता है। तीसरा-
सच्चासत्।। -वै० अ० ९। आ० १। सू० ४।।
जो होवे और न होवे जैसे ‘अगौरश्वोऽनश्वो गौः’ यह घोड़ा गाय नहीं और गाय घोड़ा नहीं अर्थात् घोड़े में गाय का और गाय में घोडे़ का अभाव और गाय में गाय, घोड़े में घोड़े का भाव है। यह ‘अन्योऽन्याभाव’ कहाता है। चौथा-
यच्चान्यदसदतस्तदसत्।। -वै० अ० ९। आ० १। सू० ५।।
जो पूर्वोक्त तीनों अभावों से भिन्न है उसको ‘अत्यन्ताभाव’ कहते हैं। जैसे-‘नर शृंग’ अर्थात् मनुष्य का सींग ‘खपुष्प’ आकाश का फ़ूल और ‘बन्ध्या पुत्र’ बन्ध्या का पुत्र इत्यादि। पांचवां-
नास्ति घटो गेह इति सतो घटस्य गेहसंसर्गप्रतिषेधः।। -वै० अ० ९। आ० १। सू० १०।।
घर में घड़ा नहीं अर्थात् अन्यत्र है, घर के साथ घड़े का सम्बन्ध नहीं है। यह संसर्गाभाव कहाता है । ये पांच अभाव कहाते हैं।
इन्द्रियदोषात्संस्कारदोषाच्चाविद्या।। -वै० अ० ९। आ० २। सू० १०।।
इन्द्रियों और संस्कार के दोष से अविद्या उत्पन्न होती है।
तद्दुष्टं ज्ञानम्।। -वै० अ० ९। आ० २। सू० ११।।
जो दुष्ट अर्थात् विपरीत ज्ञान है उस को ‘अविद्या’ कहते हैं।
अदुष्टं विद्या।। -वै० अ० ९। आ० २। सू० १२।।
जो अदुष्ट अर्थात् यथार्थ ज्ञान है उसको ‘विद्या’ कहते हैं।।
पृथिव्यादिरूपरसगन्धस्पर्शा द्रव्याऽनित्यत्वादनित्याश्च।। -वै० अ० ७। आ० १। सू० २।।
एतेन नित्येषु नित्यत्वमुक्तम्।। -वै० अ० ७। आ० १। सू० ३।।
जो कार्यरूप पृथिव्यादि पदार्थ और उनमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श गुण हैं ये सब द्रव्यों के अनित्य होने से अनित्य हैं और जो इस से कारणरूप पृथिव्यादि नित्य द्रव्यों में गन्धादि गुण हैं वे नित्य हैं।
सदकारणवन्नित्यम्।। -वै० अ० ४। आ० १। सू० १।।
जो विद्यमान हो और जिस का कारण कोई भी न हो वह नित्य है अर्थात्-
‘सत्कारणवदनित्यम्’ जो कारण वाले कार्यरूप द्रव्य गुण हैं वे अनित्य कहाते हैं।
अस्येदं कार्यं कारणं संयोगि विरोधि समवायि चेति लैंगिकम्।। -वै० अ० ९। आ० २। सू० १।।
इसका यह कार्य वा कारण है इत्यादि समवायि, संयोगि, एकार्थसमवायि और विरोधि यह चार प्रकार का लैंगिक अर्थात् लिंगलिंगी के सम्बन्ध से ज्ञान होता है। ‘समवायि’ जैसे आकाश परिमाण वाला है, ‘संयोगि’ जैसे शरीर त्वचा वाला है इत्यादि का नित्य संयोग है, ‘एकार्थसमवायि’ एक अर्थ में दो का रहना जैसे कार्य ‘रूप’ स्पर्श कार्य का लिंग अर्थात् जनाने वाला है, ‘विरोधि’ जैसे हुई वृष्टि होने वाली वृष्टि का विरोधी लिंग है।
‘व्याप्ति’-
नियतधर्मसाहित्यमुभयोरेकतरस्य व्याप्तिः। निजशक्त्युद्भवमित्याचार्याः।।
आधेयशक्तियोग इति पञ्चशिखः।। -सांख्यसूत्र २९, ३१, ३२।।
जो दोनों साध्य साधन अर्थात् सिद्ध करने योग्य और जिस से सिद्ध किया जाय उन दोनों अथवा एक, साधनमात्र का निश्चित धर्म का सहचार है उसी को व्याप्ति कहते हैं। जैसे धूम और अग्नि का सहचार है।।२९।। तथा व्याप्त जो धूम उस की निज शक्ति से उत्पन्न होता है अर्थात् जब देशान्तर में दूर धूम जाता है तब विना अग्नियोग के भी धूम स्वयं रहता है। उसी का नाम व्याप्ति है अर्थात् अग्नि के छेदन, भेदन, सामर्थ्य से जलादि पदार्थ धूमरूप प्रकट होता है।।३१।। जैसे महत्तत्त्वादि में प्रकृत्यादि की व्यापकता बुद्ध्यादि में व्याप्यता धर्म के सम्बन्ध का नाम व्याप्ति है जैसे शक्ति आधेयरूप और शक्तिमान् आधाररूप का सम्बन्ध है।।३२।।
इत्यादि शास्त्रें के प्रमाणादि से परीक्षा करके पढ़े और पढ़ावे। अन्यथा विद्यार्थियों को सत्य बोध कभी नहीं हो सकता। जिस-जिस ग्रन्थ को पढ़ावें उस-उस की पूर्वोक्त प्रकार से परीक्षा करके जो-जो सत्य ठहरे वह-वह ग्रन्थ पढ़ावें। जो-जो इन परीक्षाओं से विरुद्ध हों उन-उन ग्रन्थों को न पढ़ें न पढ़ावें। क्योंकि-
लक्षणप्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धिः।।
लक्षण जैसा कि ‘गन्धवती पृथिवी’ जो पृथिवी है वह गन्धवाली है। ऐसे लक्षण और प्रत्यक्षादि प्रमाण इन से सब सत्यासत्य और पदार्थों का निर्णय हो जाता है। इसके विना कुछ भी नहीं होता।
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Seeing the son, the father, seeing the vomit in the mountain, seeing the fire and happiness in the world, knowing the past life. That estimate is of three types. Seeing a 'predecessor' like the rains, looking at the marriage, children, reading, reading, the students are determined to have knowledge, etc. Wherever they have knowledge of the work of looking at the cause, it is the 'east'. The second 'Sheshvat' means where one has knowledge of the reason for looking at the work.
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