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द्वादश समुल्लास भाग -2

जो वाममार्गियों ने मिथ्या कपोलकल्पना करके वेदों के नाम से अपना प्रयोजन सिद्ध करना अर्थात् यथेष्ट मद्यपान, मांस खाने और परस्त्रीगमन करने आदि दुष्ट कामों की प्रवृत्ति होने के अर्थ वेदों को कलंक लगाया। इन्हीं बातों को देख कर चारवाक, बौद्ध तथा जैन लोग वेदों की निन्दा करने लगे । और पृथक् एक वेदविरुद्ध अनीश्वरवादी अर्थात् नास्तिक मत चला लिया। जो चारवाकादि वेदों का मूलार्थ विचारते तो झूठी टीकाओं को देख कर सत्य वेदोक्त मत से क्यों हाथ धो बैठते? क्या करें विचारे ‘विनाशकाले विपरीतबुद्धि ’। जब नष्ट भ्रष्ट होने का समय आता है तब मनुष्य की उलटी बुद्धि हो जाती है। अब जो चारवाकादिकों में भेद है सो लिखते हैं। ये चारवाकादि बहुत सी बातों में एक हैं परन्तु चारवाक देह की उत्पत्ति के साथ जीवोत्पत्ति और उस के नाश के साथ ही जीव का भी नाश मानता है। पुनर्जन्म और परलोक को नहीं मानता। एक प्रत्यक्ष प्रमाण के विना अनुमानादि प्रमाणों को भी नहीं मानता। चारवाक शब्द का अर्थ-जो बोलने में ‘प्रगल्भ’ और विशेषार्थ ‘वैतण्डिक’ होता है। और बौद्ध जैन प्रत्यक्षादि चारों प्रमाण, अनादि जीव, पुनर्जन्म, परलोक और मुक्ति को भी मानते हैं। इतना ही चारवाक से बौद्ध और जैनियों का भेद है परन्तु नास्तिकता, वेद, ईश्वर की निन्दा, परमतद्वेष, छः यतना और जगत् का कर्त्ता कोई नहीं इत्यादि बातों में सब एक ही हैं। यह चारवाक का मत संक्षेप से दर्शा दिया। अब बौद्धमत के विषय में संक्षेप से लिखते हैं-

कार्य्यकारणभावाद्वा स्वभावाद्वा नियामकात् ।
अविनाभावनियमो दर्शनान्तरदर्शनात्।।१।।

कार्य्यकारणभाव अर्थात् कार्य्य के दर्शन से कारण और कारण के दर्शन से कार्य्यादि का साक्षात्कार प्रत्यक्ष से शेष में अनुमान होता है। इसके विना प्राणियों के सम्पूर्ण व्यवहार पूर्ण नहीं हो सकते, इत्यादि लक्षणों से अनुमान को अधिक मानकर चारवाक से भिन्न शाखा बौद्धों की हुई है। बौद्ध चार प्रकार के हैं- एक ‘माध्यमिक’ दूसरा ‘योगाचार’ तीसरा ‘सौत्रन्तिक’ और चौथा ‘वैभाषिक’ ‘बुद्ध्या निर्वर्त्तते स बौद्ध ’ जो बुद्धि से सिद्ध हो अर्थात् जो-जो बात अपनी बुद्धि में आवे उस-उस को माने और जो-जो बुद्धि में न आवे उस-उस को नहीं माने।

इनमें से पहला ‘माध्यमिक’ सर्वशून्य मानता है। अर्थात् जितने पदार्थ हैं वे सब शून्य अर्थात् आदि में नहीं होते; अन्त में नहीं रहते; मध्य में जो प्रतीत होता है वह भी प्रतीत समय में है पश्चात् शून्य हो जाता है। जैसे उत्पत्ति के पूर्व घट नहीं था; प्रध्वंस के पश्चात् नहीं रहता और घटज्ञान समय में भासता पदार्थान्तर में ज्ञान जाने से घटज्ञान नहीं रहता इसलिये शून्य ही एक तत्त्व है। दूसरा ‘योगाचार’ जो बाह्य शून्य मानता है। अर्थात् पदार्थ भीतर ज्ञान में भासते हैं; बाहर नहीं। जैसे घटज्ञान आत्मा में है तभी मनुष्य कहता है कि यह घट है; जो भीतर ज्ञान न हो तो नहीं कह सकता; ऐसा मानता है। 

तीसरा ‘सौत्रन्तिक’ जो बाहर अर्थ का अनुमान मानता है। क्योंकि बाहर कोई पदार्थ सांगोपांग प्रत्यक्ष नहीं होता किन्तु एकदेश प्रत्यक्ष होने से शेष में अनुमान किया जाता है। इस का ऐसा मत है। चौथा ‘वैभाषिक’ है उसका मत बाहर पदार्थ प्रत्यक्ष होता है; भीतर नहीं। जैसे ‘अयं नीलो घट ’ इस प्रतीति में नीलयुक्त घटाकृति बाहर प्रतीत होती है; यह ऐसा मानता है। यद्यपि इन का आचार्य्य बुद्ध एक है तथापि शिष्यों के बुद्धिभेद से चार प्रकार की शाखा हो गई हैं। जैसे सूर्य्यास्त होने में जार पुरुष परस्त्रीगमन, चोर चौरीकर्म और विद्वान् सत्यभाषणादि श्रेष्ठ कर्म्म करते हैं। समय एक परन्तु अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार भिन्न-भिन्न चेष्टा करते हैं। अब इन पूर्वोक्त चारों में ‘माध्यमिक’ सब को क्षणिक मानता है। अर्थात् क्षण-क्षण में बुद्धि के परिणाम होने से जो पूर्व क्षण में ज्ञात वस्तु था वैसा ही दूसरे क्षण में नहीं रहता इसलिये सब को क्षणिक मानना चाहिये; ऐसे मानता है। दूसरा ‘योगाचार’ जो प्रवृत्ति है सो सब दुःखरूप है क्योंकि प्राप्ति में सन्तुष्ट कोई भी नहीं रहता। एक की प्राप्ति में दूसरे की इच्छा बनी ही रहती है; इस प्रकार मानता है। तीसरा ‘सौत्रन्तिक’ सब पदार्थ अपने-अपने लक्षणों से लक्षित होते हैं जैसे गाय के चिह्नों से गाय और घोड़े के चिह्नों से घोड़ा ज्ञात होता है वैसे लक्षण लक्ष्य में सदा रहते हैं; ऐसा कहता है। चौथा ‘वैभाषिक’ शून्य ही को एक पदार्थ मानता है। प्रथम माध्यमिक सब को शून्य मानता था उसी का पक्ष वैभाषिक का भी है। इत्यादि बौद्धों में बहुत से विवाद पक्ष हैं। इस प्रकार चार प्रकार की भावना मानते हैं।

(उत्तर) जो सब शून्य हो तो शून्य का जानने वाला शून्य नहीं हो सकता और जो सब शून्य होवे तो शून्य को शून्य नहीं जान सके। इसलिए शून्य का ज्ञाता और ज्ञेय दो पदार्थ सिद्ध होते हैं। और जो योगाचार बाह्य शून्यत्व मानता है तो पर्वत इस के भीतर होना चाहिये। जो कहे कि पर्वत भीतर है तो उस के हृदय में पर्वत के समान अवकाश कहां है? इसलिए बाहर पर्वत है और पर्वतज्ञान आत्मा में रहता है। सौत्रन्तिक किसी पदार्थ को प्रत्यक्ष नहीं मानता तो वह आप स्वयम् और उस का वचन भी अनुमेय होना चाहिये; प्रत्यक्ष नहीं। जो प्रत्यक्ष न हो तो ‘अयं घट ’ यह प्रयोग भी न होना चाहिये किन्तु ‘अयं घटैकदेश ’ यह घट का एक देश है और एक देश का नाम घट नहीं किन्तु समुदाय का नाम घट है। ‘यह घट है’ यह प्रत्यक्ष है, अनुमेय नहीं क्योंकि सब अवयवों में अवयवी एक है। उस के प्रत्यक्ष होने से सब घट के अवयव भी प्रत्यक्ष होते हैं अर्थात् सावयव घट प्रत्यक्ष होता है। चौथा ‘वैभाषिक’ बाह्य पदार्थों को प्रत्यक्ष मानता है वह भी ठीक नहीं। क्योंकि जहां ज्ञाता और ज्ञान होता है वहीं प्रत्यक्ष होता है अर्थात् आत्मा में सब का प्रत्यक्ष होता है। यद्यपि प्रत्यक्ष का विषय बाहर होता है; तदाकार ज्ञान आत्मा को होता है। वैसे जो क्षणिक पदार्थ और उस का ज्ञान क्षणिक बाहर होता हो तो ‘प्रत्यभिज्ञा’ अर्थात् मैंने वह बात की थी ऐसा स्मरण न होना चाहिये परन्तु पूर्व दृष्ट, श्रुत का स्मरण होता है इसलिए क्षणिकवाद भी ठीक नहीं। जो सब दुःख ही हो और सुख कुछ भी न हो तो सुख की अपेक्षा के विना दुःख सिद्ध नहीं हो सकता। जैसे रात्रि की अपेक्षा से दिन और दिन की अपेक्षा से रात्रि होती है इसलिये सब दुःख मानना ठीक नहीं। जो स्वलक्षण ही मानें तो नेत्र रूप का लक्षण है और रूप लक्ष्य है जैसे घट का रूप। घट के रूप का लक्षण चक्षु लक्ष्य से भिन्न है और गन्ध पृथिवी से अभिन्न है। इसी प्रकार भिन्नाऽभिन्न लक्ष्य लक्षण मानना चाहिये। शून्य का जो उत्तर पूर्व दिया है वही अर्थात् शून्य का जानने वाला शून्य से भिन्न होता है।

सर्वस्य संसारस्य दुखात्मकत्वं सर्वतीर्थंकरसम्मतम् ।।

जिन को बौद्ध तीर्थंकर मानते हैं उन्हीं को जैन भी मानते हैं इसलिये ये दोनों एक हैं। और पूर्वोक्त भावनाचतुष्टय अर्थात् चार भावनाओं से सकल वासनाओं की निवृत्ति से शून्यरूप निर्वाण अर्थात् मुक्ति मानते हैं। अपने शिष्यों को योग और आचार का उपदेश करते हैं। गुरु के वचन का प्रमाण करना। अनादि बुद्धि में वासना होने से बुद्धि ही अनेकाकार भासती है और चित्तचैत्तात्मक स्कन्ध पांच प्रकार का मानते हैं- रूपविज्ञानवेदनासंज्ञासंस्कारसंज्ञक ।।

उनमें से-(प्रथम) जो इन्द्रियों से रूपादि विषय ग्रहण किया जाता है वह ‘रूपस्कन्वम’ (दूसरा) आलयविज्ञान प्रवृत्ति का जाननारूप व्यवहार को ‘विज्ञान- स्कन्ध’ (तीसरा) रूपस्कन्ध और विज्ञानस्कन्ध से उत्पन्न हुआ सुख दुःख आदि प्रतीति रूप व्यवहार को ‘वेदनास्कन्ध’ (चौथा) गौ आदि संज्ञा का सम्बन्ध नामी के साथ मानने रूप को ‘संज्ञास्कन्वम’ (पांचवां) वेदनास्कन्ध से रागद्वेषादि क्लेश और क्षुधा तृषादि उपक्लेश, मद, प्रमाद, अभिमान, धर्म और अधर्मरूप व्यवहार को ‘संस्कारस्कन्ध’ मानते हैं। सब संसार में दुःखरूप दुःख का घर दुःख का साधनरूप भावना करके संसार से छूटना; चारवाकों में अधिक मुक्ति और अनुमान तथा जीव को न मानना; बौद्ध मानते हैं।

देशना लोकनाथानां सत्त्वाशयवशानुगा ।
भिद्यन्ते बहुधा लोके उपायैर्बहुभि किल।।१।।

गम्भीरोत्तानभेदेन क्वचिच्चोभयलक्षणा।
भिन्ना हि देशनाऽभिन्ना शून्यताऽद्वयलक्षणा।।२।।

द्वादशायतनपूजा श्रेयस्करीति बौद्धा मन्यन्ते-

अर्थानुपार्ज्य बहुशो द्वादशायतनानि वै।
परित पूजनीयानि किमन्यैरिह पूजितै ।।३।।

ज्ञानेन्द्रियाणि पञ्चैव तथा कर्मेन्द्रियाणि च।
मनो बुद्धिरिति प्रोक्तं द्वादशायतनं बुधै ।।४।।

अर्थात् जो ज्ञानी, विरक्त, जीवनमुक्त लोकों के नाथ बुद्ध आदि तीर्थंकरों के पदार्थों के स्वरूप को जनाने वाला जो कि भिन्न-भिन्न पदार्थों का उपदेशक है जिस को बहुत से भेद और बहुत से उपायों से कहा है उसको मानना।।१।। बड़े गम्भीर और प्रसिद्ध भेद से कहीं-कहीं गुप्त और प्रकटता से भिन्न-भिन्न गुरुओं के उपदेश जो कि शून्य लक्षणयुक्त पूर्व कह आये, उनको मानना।।२।। जो द्वादशायतन पूजा है वही मोक्ष करने वाली है। उस पूजा के लिये बहुत से द्रव्यादि पदार्थों को प्राप्त होके द्वादशायतन अर्थात् बारह प्रकार के स्थान विशेष बना के सब प्रकार से पूजा करनी चाहिए; अन्य की पूजा करने से क्या प्रयोजन।।३।।

इन की द्वादशायतन पूजा यह है-पांच ज्ञानेन्द्रिय अर्थात् श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, जिह्वा और नासिका; पांच कर्मेन्द्रिय अर्थात् वाक्, हस्त, पाद, गुह्य और उपस्थ; ये १० इन्द्रियां और मन, बुद्धि इन ही का सत्कार अर्थात् इन को आनन्द में प्रवृत्त रखना इत्यादि बौद्ध का मत है।।४।।

(उत्तर) जो सब संसार दु खरूप होता तो किसी जीव की प्रवृत्ति न होनी चाहिये। संसार में जीवों की प्रवृत्ति प्रत्यक्ष दीखती है इसलिये सब संसार दु खरूप नहीं हो सकता किन्तु इस में सुख दुख दोनों हैं और जो बौद्ध लोग ऐसा ही सिद्धान्त मानते हैं तो खानपानादि करना और पथ्य तथा ओषध्यादि सेवन करके शरीररक्षण करने में प्रवृत्त होकर सुख क्यों मानते हैं? जो कहैं कि हम प्रवृत्त तो होते हैं परन्तु इस को दुःख ही मानते हैं तो यह कथन ही सम्भव नहीं। क्योंकि जीव सुख जान कर प्रवृत्त और दुःख जान के निवृत्त होता है। संसार में धर्मक्रिया, विद्या, सत्संगादि श्रेष्ठ व्यवहार सुखकारक हैं, इन को कोई भी विद्वान् दुख का लिंग नहीं मान सकता; विना बौद्धों के। जो पांच स्कन्ध हैं वे भी पूर्ण अपूर्ण हैं क्योंकि जो ऐसे-ऐसे स्कन्ध विचारने लगें तो एक-एक के अनेक भेद हो सकते हैं। जिन तीर्थंकरों को उपदेशक और लोकनाथ मानते हैं और अनादि जो नाथों का भी नाथ परमात्मा है उस को नहीं मानते तो उन तीर्थंकरों ने उपदेश किस से पाया? जो कहैं कि स्वयं प्राप्त हुआ तो ऐसा कथन सम्भव नहीं क्योंकि कारण के विना कार्य्य नहीं हो सकता। अथवा उनके कथनानुसार ऐसा ही होता तो अब उन में विना पढ़े-पढ़ाये, सुने-सुनाये और ज्ञानियों के सत्संग किये विना ज्ञानी क्यों नहीं हो जाते? जब नहीं होते तो ऐसा कथन सर्वथा निर्मूल और युक्तिशून्य सन्निपात रोगग्रस्त मनुष्य के बर्ड़ाने के समान है । जो शून्यरूप ही अद्वैत उपदेश बौद्धों का है तो विद्यमान वस्तु शून्यरूप कभी नहीं हो सकती। हां! सूक्ष्म कारणरूप तो हो जाती है इसलिये यह भी कथन भ्रमरूपी है। जो द्रव्यों के उपार्जन से ही पूर्वोक्त द्वादशायतनपूजा को मोक्ष का साधन मानते हैं तो दश प्राण और ग्यारहवें जीवात्मा की पूजा क्यों नहीं करते? जब इन्द्रिय और अन्तःकरण की पूजा भी मोक्षप्रद है तो इन बौद्धों और विषयीजनों में क्या भेद रहा? जो उन से ये बौद्ध नहीं बच सके तो वहां मुक्ति भी कहां रही। जहां ऐसी बातें हैं वहां मुक्ति का क्या काम? क्या ही इन्होंने अपनी अविद्या की उन्नति की है। जिस का सादृश्य इनके विना दूसरों से नहीं घट सकता। निश्चय तो यही होता है कि इन को वेद, ईश्वर से विरोध करने का यही फल मिला। पूर्व तो संसार की दुःखरूपी भावना की। फिर बीच में द्वादशायतनपूजा लगा दी। क्या इन की द्वादशायतनपूजा संसार के पदार्थों से बाहर की है जो मुक्ति की देने हारी हो सके? तो भला कभी आंख मीच के कोई रत्न ढूँढ़ा चाहैं वा ढूँढें कभी प्राप्त हो सकता है? ऐसी ही इनकी लीला वेद, ईश्वर को न मानने से हुई। अब भी सुख चाहैं तो वेद ईश्वर का आश्रय लेकर अपना जन्म सफल करें। विवेकविलास ग्रन्थ में बौद्धों का इस प्रकार का मत लिखा है-

बौद्धानां सुगतो देवो विश्वं च क्षणभङ्गुरम् ।
आर्य्यसत्त्वाख्यया तत्त्वचतुष्टयमिदं क्रमात्।।१।।

दु खम् आयतनं चैव तत समुदयो मत ।
मार्गश्चेत्यस्य च व्याख्या क्रमेण श्रूयतामत ।।२।।

दुखं संसारिण स्कन्धास्ते च पञ्च प्रकीर्त्तिता ।
विज्ञानं वेदना संज्ञा संस्कारो रूपमेव च।।३।।

पञ्चेन्द्रियाणि शब्दाद्या विषया पञ्च मानसम् ।
धर्मायतनम् एतानि द्वादशायतनानि तु।।४।।

रागादीनां गणो य स्यात्समुदेति नृणां हृदि।
आत्मात्मीयस्वभावाख्य स स्यात्समुदय पुन ।।५।।

क्षणिका सर्वसंस्कारा इति या वासना स्थिरा।
स मार्ग इति विज्ञेय स च मोक्षोऽभिधीयते।।६।।

प्रत्यक्षम् अनुमानं च प्रमाणद्वितयं तथा।
चतु प्रस्थानिका बौद्धा ख्याता वैभाषिकादय ।।७।।

अर्थो ज्ञानान्वितो वैभाषिकेण बहु मन्यते।
सौत्रन्तिकेन प्रत्यक्षग्राह्योऽर्थो न बहिर्मत ।।८।।

आकारसहिता बुद्धिर्योगाचारस्य सम्मता।
केवलां संविदं स्वस्थां मन्यन्ते मध्यमा पुन ।।९।।

रागादि - ज्ञानसन्तानवासनाच्छेद - सम्भवा।
चतुर्णामपि बौद्धानां मुक्तिरेषा प्रकीर्तिता।।१०।।

कृत्ति कमण्डलुर्मौण्ड्यं चीरं पूर्वाह्णभोजनम्।
सघंो रक्ताम्बरत्वं च शिश्रिये बौद्धभिक्षुभि ।।११।।

बौद्धों का सुगतदेव बुद्ध भगवान् पूजनीय देव और जगत् क्षणभंगुर, आर्य्य पुरुष और आर्य्या स्त्री तथा तत्त्वों की आख्या संज्ञादि प्रसिद्धि ये चार तत्त्व बौद्धों में मन्तव्य पदार्थ हैं।।१।।

इस विश्व को दुःख का घर जाने, तदनन्तर समुदय अर्थात् उन्नति होती है और मार्ग, इन की व्याख्या क्रम से सुनो।।२।।

संसार में दुःख ही है जो पञ्चस्कन्ध पूर्व कह आये हैं उन को जानना।।३।। पञ्च ज्ञानेन्द्रिय, उनके शब्दादि विषय पांच और मन बुद्धि अन्तःकरण धर्म का स्थान ये द्वादश हैं।।४।।

जो मनुष्यों के हृदय में रागद्वेषादि समूह की उत्पत्ति होती है वह समुदय और जो आत्मा, आत्मा के सम्बन्धी और स्वभाव है वह आख्या इन्हीं से फिर समुदय होता है।।५।।

सब संस्कार क्षणिक हैं जो यह वासना स्थिर होना वह बौद्धों का मार्ग है और वही शून्य तत्त्व शून्यरूप हो जाना मोक्ष है।।६।।

बौद्ध लोग प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण मानते हैं। चार प्रकार के इन के भेद हैं-वैभाषिक, सौत्रन्तिक, योगाचार और माध्यमिक।।७।।

इन में वैभाषिक ज्ञान में जो अर्थ है उस को विद्यमान मानता है क्योंकि जो ज्ञान में नहीं है उस का होना सिद्ध पुरुष नहीं मान सकता। और सौत्रन्तिक भीतर को प्रत्यक्ष पदार्थ मानता है, बाहर नहीं।।८।।

योगाचार आकार सहित विज्ञानयुक्त बुद्धि को मानता है और माध्यमिक केवल अपने में पदार्थों का ज्ञानमात्र मानता है; पदार्थों को नहीं मानता।।९।।

और रागादि ज्ञान के प्रवाह की वासना के नाश से उत्पन्न हुई मुक्ति चारों बौद्धों की है।।१०।।

मृगादि का चमड़ा, कमण्डलु, मूंड मुंडाये, वल्कल वस्त्र, पूर्वाह्न अर्थात् ९ बजे से पूर्व भोजन, अकेला न रहै, रक्त वस्त्र का धारण यह बौद्धों के सावमुओं का वेश है।।११।।

(उत्तर) जो बौद्धों का सुगत बुद्ध ही देव है तो उस का गुरु कौन था? और जो विश्व क्षणभंग हो तो चिरदृष्ट पदार्थ का यह वही है ऐसा स्मरण न होना चाहिये। जो क्षणभंग होता तो वह पदार्थ ही नहीं रहता, पुनः स्मरण किस का होवे? जो क्षणिकवाद ही बौद्धों का मार्ग है तो इन का मोक्ष भी क्षणभंग होगा। जो ज्ञान से युक्त अर्थ द्रव्य हो तो जड़ द्रव्य में भी ज्ञान होना चाहिये इसलिये ज्ञान में अर्थ का प्रतिबिम्ब सा रहता है। जो भीतर ज्ञान में द्रव्य होवे तो बाहर न होना चाहिये और वह चालनादि क्रिया किस पर करता है? भला जो बाहर दीखता है वह मिथ्या कैसे हो सकता है? जो आकार से सहित बुद्धि होवे तो दृश्य होना चाहिये। जो केवल ज्ञान ही हृदय में आत्मस्थ होवे, बाह्य पदार्थों को केवल ज्ञान रूप ही माना जाय तो ज्ञेय पदार्थ के विना ज्ञान ही नहीं हो सकता जो वासनाच्छेद ही मुक्ति है तो सुषप्ति में भी मुक्ति माननी चाहिये। ऐसा मानना विद्या से विरुद्ध होने के कारण तिरस्करणीय है। इत्यादि बातें संक्षेपतः बौद्ध मतस्थों की प्रदर्शित कर दी हैं। अब बुद्धिमान् विचारशील पुरुष अवलोकन करके जान जायेंगे कि इन की कैसी विद्या और कैसा मत है। इसको जैन लोग भी मानते हैं।

यहां से आगे जैनमत का वर्णन है- प्रकरणरत्नाकर १ भाग, नयचक्रसार में निम्नलिखित बातें लिखी हैं-

बौद्ध लोग समय-समय में नवीनपन से (१) आकाश, (२) काल, (३) जीव, (४) पुद्गल ये चार द्रव्य मानते हैं और जैनी लोग धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल इन छः द्रव्यों को मानते हैं। इन में काल को अस्तिकाय नहीं मानते किन्तु ऐसा कहते हैं कि काल उपचार से द्रव्य है; वस्तुतः नहीं। उन में से ‘धर्मास्तिकाय’ जो गतिपरिणामीपन से परिणाम को प्राप्त हुआ जीव और पुद्गल इस की गति के समीप से स्तम्भन करने का हेतु है। वह धर्मास्तिकाय और वह असंख्य प्रदेश परिमाण और लोक में व्यापक है। दूसरा ‘अधर्मास्तिकाय’ यह है कि स्थिरता से परिणामी हुए जीव तथा पुद्गल की स्थिति के आश्रय का हेतु है। तीसरा ‘आकाशास्तिकाय’ उस को कहते हैं कि जो सब द्रव्यों का आधार जिस में अवगाहन, प्रवेश, निर्गम आदि क्रिया करने वाले जीव तथा पुद्गलों को अवगाहन का हेतु और सर्वव्यापी है। चौथा ‘पुद्गलास्तिकाय’ यह है कि जो कारणरूप सूक्ष्म, नित्य, एकरस, वर्ण, गन्वम, स्पर्श, कार्य का लिंग पूरने और गलने के स्वभाव वाला होता है।पांचवां ‘जीवास्तिकाय’ जो चेतनालक्षण ज्ञान दर्शन में उपयुक्त अनन्त पर्यायों से परिणामी होने वाला कर्त्ता भोक्ता है। और छठा ‘काल’ यह है कि जो पूर्वोक्त पञ्चास्तिकायों का परत्व अपरत्व नवीन प्राचीनता का चिह्नरूप प्रसिद्ध वर्त्तमानरूप पर्यायों से युक्त है वह काल कहाता है। (समीक्षक) जो बौद्धों ने चार द्रव्य प्रतिसमय में नवीन-नवीन माने हैं वे झूठे हैं क्योंकि आकाश, काल, जीव और परमाणु ये नये वा पुराने कभी नहीं हो सकते क्योंकि ये अनादि और कारणरूप से अविनाशी हैं; पुनः नया और पुरानापन कैसे घट सकता है? और जैनियों का मानना भी ठीक नहीं क्योंकि धर्माऽधर्म द्रव्य नहीं किन्तु गुण हैं। ये दोनों जीवास्तिकाय में आ जाते हैं। इसलिये आकाश, परमाणु, जीव और काल मानते तो ठीक था। और जो नव द्रव्य वैशेषिक में माने हैं वे ही ठीक हैं क्योंकि पृथिव्यादि पांच तत्त्व, काल, दिशा, आत्मा और मन ये नव पृथक्-पृथक् पदार्थ निश्चित हैं। एक जीव को चेतन मानकर ईश्वर को न मानना यह जैन, बौद्धों की मिथ्या पक्षपात की बात है।

अब जो बौद्ध और जैनी लोग सप्तभंगी और स्याद्वाद मानते हैं सो यह है कि-‘सन् घट ’ इस को प्रथम भंग कहते हैं क्योंकि घट अपनी वर्त्तमानता से युक्त अर्थात् घड़ा है; इस ने अभाव का विरोध किया है। दूसरा भंग ‘असन् घट ’ घड़ा नहीं है। प्रथम घट के भाव से, यह घड़े के असद्भाव से दूसरा भंग है। तीसरा भंग यह है कि ‘सन्नसन् घट ’ अर्थात् यह घड़ा तो है परन्तु पट नहीं क्योंकि उन दोनों से पृथक् हो गया। चौथा भंग ‘घटोऽघट ’ जैसे ‘अघट पट ’ दूसरे पट के अभाव की अपेक्षा अपने में होने से घट अघट कहाता है। युगपत् उस की संज्ञा अर्थात् घट और अघट भी है। पांचवां भंग यह है कि जो घट को पट कहना अयोग्य अर्थात् उस में घटपन वक्तव्य है और पटपन अवक्तव्य है। छठा भंग यह है कि जो घट नहीं है वह कहने योग्य भी नहीं और जो है वह है और कहने योग्य भी है। और सातवां भंग यह है कि जो कहने को इष्ट है परन्तु वह नहीं है और कहने के योग्य भी घट नहीं; यह सप्तम भंग कहाता है। इसी प्रकार-

स्यादस्ति जीवोऽयं प्रथमो भंगः।।१।।
स्यान्नास्ति जीवो द्वितीयो भंगः।।२।।
स्यादवक्तव्यो जीवस्तृतीयो भंगः।।३।।
स्यादस्ति नास्तिरूपो जीवश्चतुर्थो भंगः।।४।।
स्यादस्ति अवक्तव्यो जीव पञ्चमो भंगः।।५।।
स्यान्नास्ति अवक्तव्यो जीव षष्ठो भंगः।।६।।
स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्यो जीव इति सप्तमो भंगः।।७।।

अर्थात्- है जीव, ऐसा कथन होवे तो जीव के विरोधी जड़ पदार्थों का जीव में अभावरूप भंग प्रथम कहाता है। दूसरा भंग यह है कि-नहीं है जीव जड़ में ऐसा कथन भी होता है इस से यह दूसरा भंग कहाता है। जीव है परन्तु कहने योग्य नहीं यह तीसरा भंग। जब जीव शरीर धारण करता है। तब प्रसिद्ध और जब शरीर से पृथक् होता है तब अप्रसिद्ध रहता है ऐसा कथन होवे उस को चतुर्थ भंग कहते हैं। जीव है परन्तु कहने योग्य नहीं जो ऐसा कथन है उसको पञ्चम भंग कहते हैं। जीव प्रत्यक्ष प्रमाण से कहने में नहीं आता इसलिए चक्षु प्रत्यक्ष नहीं है ऐसा व्यवहार है उस को छठा भंग कहते हैं। 

एक काल में जीव का अनुमान से होना और अदृश्यपन में न होना और एक सा न रहना किन्तु क्षण-क्षण में परिणाम को प्राप्त होना अस्ति नास्ति न होवे और नास्ति अस्ति व्यवहार भी न होवे यह सातवां भंग कहाता है। इसी प्रकार नित्यत्व सप्तभंगी और अनित्यत्व सप्तभंगी तथा सामान्य धर्म, विशेष धर्म गुण और पर्य्यायों की प्रत्येक वस्तु में सप्तभंगी होती है। वैसे द्रव्य, गुण, स्वभाव और पर्य्यायों के अनन्त होने से सप्तभंगी भी अनन्त होती है। ऐसा बौद्ध तथा जैनियों का स्याद्वाद और सप्तभंगी न्याय कहाता है।

(समीक्षक) यह कथन एक अन्योऽन्याभाव में साधर्म्य और वैधर्म्य में चरितार्थ हो सकता है। इस सरल प्रकरण को छोड़कर कठिन जाल रचना केवल अज्ञानियों के फंसाने के लिये होता है। देखो! जीव का अजीव में और अजीव का जीव में अभाव रहता ही है। जैसे जीव और जड़ के वर्त्तमान होने से साधर्म्य और चेतन तथा जड़ होने से वैवमर्म्य अर्थात् जीव में चेतनत्व (अस्ति) है और जड़त्व (नास्ति) नहीं है। इसी प्रकार जड़ में जड़त्व है और चेतनत्व नहीं है। इस से गुण, कर्म, स्वभाव के समान धर्म और विरुद्ध वमर्म्म के विचार से सब इन का सप्तभंगी और स्याद्वाद सहजता से समझ में आता है फिर इतना प्रपञ्च बढ़ाना किस काम का है? इस में बौद्ध और जैनों का एक मत है। थोड़ा सा ही पृथक्-पृथक् होने से भिन्न भाव भी हो जाता है। अब इस के आगे केवल जैनमत विषय में लिखा जाता है-

चिदचिद् द्वे परे तत्त्वे विवेकस्तद्विवेचनम्।
उपादेयमुपादेयं हेयं हेयं च कुर्वत ।।१।।

हेयं हि कर्तृरागादि तत्कार्य्यमविवेकिन ।
उपादेयं परं ज्योतिरुपयोगैकलक्षणम्।।२।।

जैन लोग ‘चित्’ और ‘अचित्’ अर्थात् चेतन और जड़ दो ही परतत्त्व मानते हैं। उन दोनों के विचेचन का नाम विवेक, जो-जो ग्रहण के योग्य है उस-उस का ग्रहण और जो-जो त्याग करने योग्य है उस-उस का त्याग करने वाले को विवेकी कहते हैं।।१।।

जगत् का कर्त्ता और रागादि तथा ईश्वर ने जगत् किया है इस अविवेकी मत का त्याग और योग से लक्षित परमज्योतिस्वरूप जो जीव है उस का ग्रहण करना उत्तम है।।२।।

अर्थात् जीव के विना दूसरा चेतन तत्त्व ईश्वर को नहीं मानते। कोई भी अनादि सिद्ध ईश्वर नहीं; ऐसा बौद्ध जैन लोग मानते हैं। इस में राजा शिवप्रसाद जी ‘इतिहासतिमिरनाशक’ ग्रन्थ में लिखते हैं कि इन के दो नाम हैं; एक जैन और दूसरा बौद्ध। ये पयार्यवाची शब्द हैं परन्तु बौद्धों में वाममार्गी मद्य-मांसाहारी बौद्ध हैं उन के साथ जैनियों का विरोध है परन्तु जो महावीर और गौतम गणवमर हैं उनका नाम बौद्धों ने बुद्ध रक्खा है और जैनियों ने गणधर और जिनवर। इस में जिन की परम्परा जैनमत है उन राजा शिवप्रसाद जी ने अपने ‘इतिहासतिमिरनाशक’ ग्रन्थ के तीसरे खण्ड में लिखा है कि “स्वामी शंकराचार्य्य से पहले जिन को हुए कुल हजार वर्ष के लगभग गुजरे हैं; सारे भारतवर्ष में बौद्ध अथवा जैनमत फैला हुआ था।” इस पर नोट-“——बौद्ध कहने से हमारा आशय उस मत से है जो महावीर के गणधर गौतम स्वामी के समय तक वेद विरुद्ध सारे भारतवर्ष में फैला रहा और जिस को अशोक और सम्प्रति महाराज ने माना।

जैन उस से बाहर किसी तरह नहीं निकल सकते। जिन, जिस से जैन निकला और बुद्ध, जिस से बौद्ध निकला दोनों पर्याय शब्द हैं। कोश में दोनों का अर्थ एक ही लिखा है और गौतम को दोनों मानते हैं। वरन् दीपवंश इत्यादि पुराने बौद्ध ग्रन्थों में शाक्यमुनि गौतम बुद्ध को अक्सर महावीर ही के नाम से लिखा है। बस उन के समय में एक ही उन का मत रहा होगा। हम ने जो जैन न लिख कर गौतम के मत वालों को बौद्ध लिखा उस का प्रयोजन केवल इतना ही है कि दूसरे देश वालों ने बौद्ध ही के नाम से लिखा है—।” ऐसा ही अमरकोश में भी लिखा है-

सर्वज्ञ सुगतो बुद्धो धर्मराजस्तथागत ।
समन्तभद्रो भगवान्मारजिल्लोकजिज्जिन ।।१।।

षडभिज्ञो दशबलोऽद्वयवादी विनायक ।
मुनीन्द्र श्रीघन शास्ता मुनि शाक्यमुनिस्तु य ।।२।।

स शाक्यसिह सर्वार्थ सिद्धश्शौद्धोदनिश्च स ।
गौतमश्चार्कबन्धुश्च मायादेवीसुतश्च स ।।३।। -अमरकोश कां० १। वर्ग १। श्लोक ८ से १० तक।।

अब देखो! बुद्ध, जिन और बौद्ध तथा जैन एक के नाम हैं वा नहीं? क्या ‘अमरसिह’ भी बुद्ध जिन के एक लिखने में भूल गया है? जो अविद्वान् जैन हैं वे तो न अपना जानते और न दूसरे का; केवल हठमात्र से बर्ड़ाया करते हैं परन्तु जो जैनों में विद्वान् हैं वे सब जानते हैं कि ‘बुद्ध’ और ‘जिन’ तथा ‘बौद्ध’ और ‘जैन’ पर्यायवाची हैं, इस में कुछ सन्देह नहीं। जैन लोग कहते है कि जीव ही परमेश्वर हो जाता है वे जो अपने तीर्थंकरों ही को केवली मुक्ति प्राप्त और परमेश्वर मानते हैं, अनादि परमेश्वर कोई नहीं। सर्वज्ञ, वीतराग, अर्हन्, केवली, तीर्थकृत, जिन ये छः नास्तिकों के देवताओं के नाम हैं। 

आदिदेव का स्वरूप चन्द्रसूरि ने ‘आप्तनिश्चयालंकार’ ग्रन्थ में लिखा है-

सर्वज्ञो वीतरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजित ।
यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वर ।।१।।

वैसे ही ‘तौतातितों’ ने भी लिखा है कि-

सर्वज्ञो दृश्यते तावन्नेदानीमस्मदादिभि ।
दृष्टो न चैकदेशोऽस्ति लिंगं वा योऽनुमापयेत्।।२।।

न चागमविधि कश्चिन्नित्यसर्वज्ञबोधक ।
न च तत्रर्थवादानां तात्पर्यमपि कल्पते।।३।।

न चान्यार्थप्रधानैस्तैस्तदस्तित्वं विधीयते।
न चानुवादितुं शक्यः पूर्वमन्यैरबोधित ।।४।।

जो रागादि दोषों से रहित, त्रैलोक्य में पूजनीय, यथावत् पदार्थों का वक्ता, सर्वज्ञ अर्हन् देव है वही परमेश्वर है।।१।।

जिसलिये हम इस समय परमेश्वर को नहीं देखते इसलिये कोई सर्वज्ञ अनादि परमेश्वर प्रत्यक्ष नहीं। जब ईश्वर में प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं तो अनुमान भी नहीं घट सकता क्योंकि एकदेश प्रत्यक्ष के विना अनुमान नहीं हो सकता।।२।।

जब प्रत्यक्ष, अनुमान नहीं तो आगम अर्थात् नित्य अनादि सर्वज्ञ परमात्मा का बोवमक शब्दप्रमाण भी नहीं हो सकता। जब तीनों प्रमाण नहीं तो अर्थवाद अर्थात् स्तुति, निन्दा, परकृति अर्थात् पराये चरित्र का वर्णन और पुराकल्प अर्थात् इतिहास  का तात्पर्य भी नहीं घट सकता।।३।।

और अन्यार्थप्रधान अर्थात् बहुव्रीहि समास के तुल्य परोक्ष परमात्मा की सिद्धि का विधान भी नहीं हो सकता। पुनः ईश्वर के उपदेष्टाओं से सुने विना अनुवाद भी कैसे हो सकता है? ।।४।।

(इसका प्रत्याख्यान अर्थात् खण्डन)-जो अनादि ईश्वर न होता तो ‘अर्हन्’ देव के माता, पिता आदि के शरीर का सांचा कौन बनाता? विना संयोगकर्त्ता के यथायोग्य सर्वाऽवयवसम्पन्न, यथोचित कार्य करने में उपयुक्त शरीर बन ही नहीं सकता। और जिन पदार्थों से शरीर बना है। उन के जड़ होने से स्वयम् इस प्रकार की उत्तम रचना से युक्त शरीर रूप नहीं बन सकते क्योंकि उन में यथायोग्य बनने का ज्ञान ही नहीं। और जो रागादि दोषों से सहित होकर पश्चात् दोष रहित होता है वह ईश्वर कभी नहीं हो सकता क्योंकि जिस निमित्त से वह रागादि से मुक्त होता है वह मुक्ति उस निमित्त के छूटने से उस का कार्य मुक्ति भी अनित्य होगी। जो अल्प और अल्पज्ञ है वह सर्वव्यापक और सर्वज्ञ कभी नहीं हो सकता क्योंकि जीव का स्वरूप एकदेशी और परिमित गुण, कर्म, स्वभाव वाला होता है वह सब विद्याओं में सब प्रकार यथार्थवक्ता नहीं हो सकता, इसलिये तुम्हारे तीर्थंकर परमेश्वर कभी नहीं हो सकते।।१।।

क्या तुम जो प्रत्यक्ष पदार्थ हैं उन्हीं को मानते हो; अप्रत्यक्ष को नहीं? जैसे कान से रूप और चक्षु से शब्द का ग्रहण नहीं हो सकता वैसे अनादि परमात्मा को देखने का साधन शुद्धान्त करण, विद्या और योगाभ्यास से पवित्रत्मा, परमात्मा को प्रत्यक्ष देखता है। जैसे विना पढ़े विद्या के प्रयोजनों की प्राप्ति नहीं होती वैसे ही योगाभ्यास और विज्ञान के विना परमात्मा भी नहीं दीख पड़ता। जैसे भूमि के रूपादि गुण ही को देख जान के गुणों से अव्यवहित सम्बन्ध से पृथिवी प्रत्यक्ष होती है वैसे इस सृष्टि में परमात्मा के रचना विशेष लिंग देख के परमात्मा प्रत्यक्ष होता है। और जो पापाचरणेच्छा समय में भय, शंका, लज्जा उत्पन्न होती है वह अन्तर्यामी परमात्मा की ओर से है। इस से भी परमात्मा प्रत्यक्ष होता है। अनुमान के होने में क्या सन्देह हो सकता है।।२।। और प्रत्यक्ष तथा अनुमान के होने से आगम प्रमाण भी नित्य, अनादि, सर्वज्ञ ईश्वर का बोधक होता है इसलिए शब्दप्रमाण भी ईश्वर में है। जब तीनों प्रमाणों से ईश्वर को जीव जान सकता है तब अर्थवाद अर्थात् परमेश्वर के गुणों की प्रशंसा करना भी यथार्थ घटता है। क्योंकि जो नित्य पदार्थ हैं उन के गुण, कर्म, स्वभाव भी नित्य होते हैं। उन की प्रशंसा करने में कोई भी प्रतिबन्धक नहीं।।३।।

जैसे मनुष्यों में कर्त्ता के विना कोई भी कार्य नहीं होता वैसे ही इस महत्कार्य का कर्त्ता के विना होना सर्वथा असम्भव है। जब ऐसा है तो ईश्वर के होने में मूढ़ को भी सन्देह नहीं हो सकता। जब परमात्मा के उपदेश करने वालों से सुनेंगे पश्चात् उस का अनुवाद करना भी सरल है।।४।। इससे जैनों के प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ईश्वर का खण्डन करना आदि व्यवहार अनुचित है।

(प्रश्न) अनादेरागमस्यार्थो न च सर्वज्ञ आदिमान्।
कृत्रिमेण त्वसत्येन स कथं प्रतिपाद्यते।।१।।

अथ तद्वचनेनैव सर्वज्ञोऽन्यै प्रतीयते।
प्रकल्प्येत कथं सिद्धिरन्योऽन्याश्रययोस्तयो ।।२।।

सर्वज्ञोक्ततया वाक्यं सत्यं तेन तदस्तिता।
कथं तदुभयं सिध्येत् सिद्धमूलान्तरादृते।।३।।

बीच में सर्वज्ञ हुआ अनादि शास्त्र का अर्थ नहीं हो सकता क्योंकि किए हुए असत्य वचन से उस का प्रतिपादन किस प्रकार से हो सके? ।।१।।

और जो परमेश्वर ही के वचन से परमेश्वर सिद्ध होता है तो अनादि ईश्वर से अनादि शास्त्र की सिद्धि; अनादि शास्त्र से अनादि ईश्वर की सिद्धि; अन्योऽन्याश्रय दोष आता है।।२।।

क्योंकि सर्वज्ञ के कथन से वह वेदवाक्य सत्य और उसी वेदवचन से ईश्वर की सिद्धि करते हो यह कैसे सिद्ध हो सकता है? उस शास्त्र और परमेश्वर की सिद्धि के लिये तीसरा कोई प्रमाण चाहिये। जो ऐसा मानोगे तो अनवस्था दोष आवेगा।।३।।

(उत्तर) हम लोग परमेश्वर और परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव को अनादि मानते हैं। अनादि नित्य पदार्थों में अन्योऽन्याश्रय दोष नहीं आ सकता जैसे कार्य्य से कारण का ज्ञान और कारण से कार्य्य का बोध होता है। कार्य्य में कारण का स्वभाव और कारण में कार्य्य का स्वभाव नित्य है वैसे परमेश्वर और परमेश्वर के अनन्त विद्यादि गुण नित्य होने से ईश्वरप्रणीत वेद में अनवस्था दोष नहीं आता।।१। २। ३।।

और तुम तीर्थंकरों को परमेश्वर मानते हो यह कभी नहीं घट सकता क्योंकि विना माता, पिता के उन का शरीर ही नहीं होता तो वे तपश्चर्य्या, ज्ञान और मुक्ति को कैसे पा सकते हैं? वैसे ही संयोग का आदि अवश्य होता है क्योंकि विना वियोग के संयोग हो ही नहीं सकता इसलिये अनादि सृष्टिकर्त्ता परमात्मा को मानो। देखो! चाहे कितना ही कोई सिद्ध हो तो भी शरीर आदि की रचना को पूर्णता से नहीं जान सकता। जब सिद्ध जीव सुषुप्ति दशा में जाता है तब उस को कुछ भी भान नहीं रहता। जब जीव दुःख को प्राप्त होता है तब उस का ज्ञान भी न्यून हो जाता है। ऐसे परिच्छिन्न सामर्थ्य वाले एकदेश में रहने वाले को ईश्वर मानना विना भ्रान्तिबुद्धियुक्त जैनियों से अन्य कोई भी नहीं मान सकता। जो तुम कहो कि वे तीर्थंकर अपने माता, पिताओं से हुए तो वे किन से और उनके माता पिता किन से? फिर उन के भी माता, पिता किन से उत्पन्न हुए? इत्यादि अनवस्था आवेगी।

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The second conscious element without the creature does not believe in God. There is no eternal God; Buddhist Jain people believe this. In this, King Shivprasad ji writes in the 'History of the Annihilator' that he has two names; One is Jain and the other is Buddhist. These are the words Paryavachi but the Buddhists are left-wing non-non-vegetarian Buddhists are opposed to the Jains but those who are Mahavira and Gautama Ganavamar are named Buddhists by Rakha and Jains by Ganadhar and Jinwar.

 

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