विशेष सूचना - Arya Samaj, Arya Samaj Mandir तथा Arya Samaj Marriage और इससे मिलते-जुलते नामों से Internet पर अनेक फर्जी वेबसाईट एवं गुमराह करने वाले आकर्षक विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। अत: जनहित में सूचना दी जाती है कि इनसे आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार व्यवस्था अथवा अन्य किसी भी प्रकार का व्यवहार करते समय यह पूरी तरह सुनिश्चित कर लें कि इनके द्वारा किया जा रहा कार्य पूरी तरह वैधानिक है अथवा नहीं। "आर्यसमाज संस्कार केन्द्र इन्द्रप्रस्थ कॉलोनी रायपुर" अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट द्वारा संचालित रायपुर में एकमात्र केन्द्र है। भारतीय पब्लिक ट्रस्ट एक्ट (Indian Public Trust Act) के अन्तर्गत पंजीकृत अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट एक शैक्षणिक-सामाजिक-धार्मिक-पारमार्थिक ट्रस्ट है। आर्यसमाज संस्कार केन्द्र इन्द्रप्रस्थ कॉलोनी के अतिरिक्त रायपुर में अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट की अन्य कोई शाखा या आर्यसमाज मन्दिर नहीं है। Arya Samaj Sanskar Kendra Indraprastha Colony Raipur is run under aegis of Akhil Bharat Arya Samaj Trust. Akhil Bharat Arya Samaj Trust is an Eduactional, Social, Religious and Charitable Trust Registered under Indian Public Trust Act. Arya Samaj Sanskar Kendra Indraprastha Colony Raipur is the only controlled by Akhil Bharat Arya Samaj Trust in Chhattisgarh. We do not have any other branch or Centre in Raipur. Kindly ensure that you are solemnising your marriage with a registered organisation and do not get mislead by large Buildings or Hall.
arya samaj marriage indore india legal

द्वादश समुल्लास भाग -5

(प्रश्न) हमारी मूर्त्तियां वस्त्र आभूषणादि धारण नहीं करतीं इसलिये अच्छी हैं।

(उत्तर) सब के सामने नंगी मूर्त्तियों का रहना और रखना पशुवत् लीला है।

(प्रश्न) जैसे स्त्री का चित्र या मूर्त्ति देखने से कामोत्पत्ति होती है वैसे साधु और योगियों की मूर्त्ति को देखने से शुभ गुण प्राप्त होते हैं।

(उत्तर) जो पाषाणमूर्त्तियों को देखने से शुभ परिणाम मानते हो तो उस के जड़त्वादि गुण भी तुम्हारे में आ जायेंगे। जब जड़बुद्धि होंगे तो सर्वथा नष्ट हो जाओगे। दूसरे जो उत्तम विद्वान् हैं उन के संग सेवा से छूटने से मूढ़ता भी अधिक होगी। और जो-जो दोष ग्यारहवें समुल्लास में लिखे हैं वे सब पाषाणादि मूर्त्तिपूजा करने वालों को लगते हैं। इसलिये जैसा जैनियों ने मूर्त्तिपूजा का झूठा कोलाहल चलाया है वैसे इन के मन्त्रें में भी बहुत सी असम्भव बातें लिखी हैं। यह इन का मन्त्र है। रत्नसार भाग १। पृष्ठ १ में-

नमो अरिहन्ताणं नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं नमो उबज्झायाणं नमो लोए सब्बसाहूणं । एसो पंच नमुक्कारो सव्व पावप्पणासणो मंगलाचरणं च सव्वेसि पढमं हवइ मंगलम्।।१।।

इस मन्त्र का बड़ा माहात्म्य लिखा है और सब जैनियों का यह गुरुमन्त्र है। इस का ऐसा माहात्म्य धरा है कि तन्त्र, पुराण, भाटों की भी कथा को पराजय कर दिया है। श्राद्धदिनकृत्य पृष्ठ ३।

नमुक्कारं तउ पढ़े।।९।। जउ कब्बं। मंताणमंतो परमो इमुत्ति । धेयाण- धेयं परमं इमुत्ति। तत्ताणतत्तं परमं पवित्तं। संसारसत्ताण दुहाइयाणं।।१०।।

ताणं अन्नं तु नो अत्थि जीवाणं भवसायरे। बुड्डुं ताणं इमं मुत्तुं। नमुक्कारं सुपोययम्।।।११।। कब्बं अणेगजम्मं तरसंचिआणं। दुहाणं सारीरिअमाणुसाणं।

कत्तोय भव्वाणभविज्जनासो। न जावपत्तो नवकारमन्तो।।१२।।

जो यह मन्त्र है पवित्र और परम मन्त्र है। यह ध्यान के योग्य में परम ध्येय है। तत्त्वों में परम तत्त्व है। दुःखों से पीड़ित संसारी जीवों को नवकार मन्त्र ऐसा है कि जैसी समुद्र के पार उतारने की नौका होती है।।१०।। जो यह नवकार मन्त्र है वह नौका के समान है। जो इस को छोड़ देते हैं वे भवसागर में डूबते हैं और जो इस का ग्रहण करते हैं वे दुःखों से तर जाते हैं। जीवों को दुःखों से पृथक् रखने वाला, सब पापों का नाशक मुक्तिकारक इस मन्त्र के विना दूसरा कोई नहीं।।११।। अनेक भवान्तर में उत्पन्न हुआ शरीर सम्बन्धी दुःख से भव्य जीवों को भवसागर से तारने वाला यही है। जब तक नवकार मन्त्र नहीं पाया तब तक भवसागर से जीव नहीं तर सकता।।१२।। यह अर्थ सूत्र में कहा है। और जो अग्निप्रमुख अष्ट महाभयों में सहायक एक नवकार मन्त्र को छोड़कर दूसरा कोई नहीं। जैसे महारत्न वैडूर्य नामक मणि ग्रहण करने में आवे अथवा शत्रु के भय में अमोघ शस्त्र ग्रहण करने में आवे वैसे श्रुत केवली का ग्रहण करे और सब द्वाद्वशांगी का नवकार मन्त्र रहस्य है ।

इस मन्त्र का अर्थ यह है- (नमो अरिहन्ताणं) सब तीर्थंकरों को नमस्कार (नमो सिद्धाणं) जैन मत के सब सिद्धों को नमस्कार। (नमो आयरियाणं) जैनमत के सब आचार्यों को नमस्कार। (नमो उवज्भफ़ायाणं) जैनमत के सब उपाध्यायों को नमस्कार। (नमो लोए सब्ब साहूणं) जितने जैन मत के साधु इस लोक में हैं उन सब को नमस्कार है। यद्यपि मन्त्र में जैन पद नहीं है तथापि जैनियों के अनेक ग्रन्थों में सिवाय जैनमत के अन्य किसी को नमस्कार भी न करना लिखा है, इसलिए यही अर्थ ठीक है। तत्त्वविवेक पृष्ठ नवन- जो मनुष्य लकड़ी, पत्थर को देवबुद्धि कर पूजता है वह अच्छे फलों को प्राप्त होता है।

(समीक्षक) जो ऐसा हो तो सब कोई दर्शन करके सुखरूप फलों को प्राप्त क्यों नहीं होते? रत्नसारभाग १ पृष्ठ १०-पार्श्वनाथ की मूर्त्ति के दर्शन से पाप नष्ट हो जाते हैं। कल्पभाष्य पृष्ठ ५१ में लिखा है कि सवा लाख मन्दिरों का जीर्णोद्धार किया इत्यादि। मूर्त्तिपूजा विषय में इन का बहुत सा लेख है। इसी से समझा जाता है कि मूर्त्तिपूजा का मूल कारण जैनमत है। अब इन जैनियों के साधुओं की लीला देखिये- (विवेकसार पृष्ठ २२८) एक जैनमत का साधु कोशा वेश्या से भोग करके पश्चात् त्यागी होकर स्वर्ग लोक को गया। (विवेकसार पृष्ठ १०१) अर्णकमुनि चारित्र से चूककर कई वर्ष पर्य्यन्त दत्त सेठ के घर में विषयभोग करके पश्चात् देवलोक को गया। श्रीकृष्ण के पुत्र ढंढण मुनि को स्यालिया उठा ले गया पश्चात् देवता हुआ। (विवेकसार पृष्ठ १५६) जैनमत का साधु लिंगधारी अर्थात् वेशधारी मात्र हो तो भी उस का सत्कार श्रावक लोग करें। चाहैं साधु शुद्धचरित्र हों चाहैं अशुद्धचरित्र सब पूजनीय हैं। (विवेकसार पृष्ठ १६८) जैनमत का साधु चरित्रहीन हो तो भी अन्य मत के साधुओं से श्रेष्ठ है। (विवेकसार पृष्ठ १७१) श्रावक लोग जैनमत के साधुओं को चरित्ररहित भ्रष्टाचारी देखें तो भी उन की सेवा करनी चहिये। (विवेकसार पृष्ठ २१६) एक चोर ने पांच मूठी लोंच कर चारित्र ग्रहण किया। बड़ा कष्ट और पश्चात्ताप किया। छठे महीने में केवल ज्ञान पाके सिद्ध हो गया।

(समीक्षक) अब देखिये इन के साधु और गृहस्थों की लीला। इन के मत में बहुत कुकर्म करने वाला साधु भी सद्गति को गया। और- विवकेसार पृष्ठ १०६ में लिखा है कि श्रीकृष्ण तीसरे नरक में गया। (विवेकसार पृष्ठ १४५) में लिखा है कि धन्वन्तरि वैद्य नरक में गया। विवेकसार पृष्ठ ४८ में जोगी, जंगम, काजी, मुल्ला कितने ही अज्ञान से तप कष्ट करके भी कुगति को पाते हैं। रत्नसार भा० १ पृष्ठ १७१ में लिखा है कि नव वासुदेव अर्थात् त्रिपृष्ठ वासुदेव, द्विपृष्ठ वासुदेव, स्वयम्भू, पुरुषोत्तम वासुदेव, सिहपुरुष वासुदेव, पुरुषपुण्डरीक वासुदेव, दत्तवासुदेव, लक्ष्मण वासुदेव और ९ श्रीकृष्ण वासुदेव, ये सब ग्यारहवें, बारहवें, चौदहवें, पन्द्रहवें, अठारहवें, बीसवें और बाईसवें तीर्थंकरों के समय में नरक को गये और नव प्रतिवासुदेव अर्थात् अश्वग्रीव प्रतिवासुदेव, तारक प्रतिवासुदेव, मोरक प्रतिवासुदेव, मधु प्रतिवासुदेव, निशुम्भ प्रतिवासुदेव, बली प्रतिवासुदेव, प्रह्लाद प्रतिवासुदेव, रावण प्रतिवासुदेव और जरासन्ध प्रतिवासुदेव ये भी सब नरक को गये। और कल्पभाष्य में लिखा है कि ऋषभदेव से लेके महावीर पर्य्यन्त २४ तीर्थंकर सब मोक्ष को प्राप्त हुए।

(समीक्षक) भला! कोई बुद्धिमान् पुरुष विचारे कि इन के साधु गृहस्थ और तीर्थंकर जिन में बहुत से वेश्यागामी, परस्त्रीगामी, चोर आदि सब जैनमतस्थ स्वर्ग और मुक्ति को गये और श्रीकृष्णादि महाधार्मिक महात्मा सब नरक को गये। यह कितनी बड़ी बुरी बात है? प्रत्युत विचार के देखें तो अच्छे पुरुष को जैनियों का संग करना वा उनको देखना भी बुरा है। क्योंकि जो इन का संग करे तो ऐसी ही झूठी-झूठी बातें उन के भी हृदय में स्थित हो जायेंगी, क्योंकि इन महाहठी, दुराग्रही मनुष्यों के संग से सिवाय बुराइयों के अन्य कुछ भी पल्ले न पड़ेगा। हां! जो जैनियों में उत्तमजन हैं उन से सत्संगादि करने में कुछ भी दोष नहीं। विवेकसार पृष्ठ ५५ में लिखा है कि गंगादि तीर्थ और काशी आदि क्षेत्रें के सेवने से कुछ भी परमार्थ सिद्ध नहीं होता और अपने गिरनार, पालीटाणा और आबू आदि तीर्थ, क्षेत्र मुक्तिपर्यन्त के देने वाले लिखे हैं।

(समीक्षक) यहां विचारना चाहिये कि जैसे शैव, वैष्णवादि के तीर्थ और क्षेत्र, जल, स्थल जड़स्वरूप हैं वैसे जैनियों के भी हैं। इन में से एक की निन्दा और दूसरे की स्तुति करना मूर्खता का काम है।

जैनों की मुक्ति का वर्णन रत्नसार भा० १। पृष्ठ २३ महावीर तीर्थंकर गौतम जी से कहते हैं कि ऊर्ध्वलोक में एक सिद्धशिला स्थान है। स्वर्गपुरी के ऊपर पैंतालीस लाख योजन लम्बी और उतनी ही पोली है तथा ८ योजन मोटी है। जैसे मोती का श्वेत हार वा गोदुग्ध है उस से भी उजली है। सोने के समान प्रकाशमान और स्फटिक से भी निर्मल है। वह सिद्धशिला चौदहवें लोक की शिखा पर है और उस सिद्धशिला के ऊपर शिवपुर धाम, उस में भी मुक्त पुरुष अधर रहते हैं। वहां जन्म मरणादि कोई दोष नहीं और आनन्द करते रहते हैं। पुनः जन्म मरण में नहीं आते। सब कर्मों से छूट जाते हैं। यह जैनियों की मुक्ति है।

(समीक्षक) विचारना चाहिये कि जैसे अन्य मत में वैकुण्ठ, कैलाश, गोलोक, श्रीपुर आदि पुराणी, चौथे आसमान में ईसाई, सातवें आसमान में मुसलमानों के मत में मुक्ति के स्थान लिखे हैं, वैसे जैनियों की सिद्धशिला और शिवपुर भी है। क्योंकि जिस को जैनी लोग ऊंचा मानते हैं वही नीचे वालों की जो कि हम से भूगोल के नीचे रहते हैं उन की अपेक्षा से नीचा है। ऊंचा, नीचा व्यवस्थित पदार्थ नहीं है। जो आर्य्यावर्त्तवासी जैनी लोग ऊंचा मानते हैं उसी को अमेरिका वाले नीचा मानते हैं और आर्यावर्त्तवासी जिस को नीचा मानते हैं उसी को अमेरिका वाले ऊँचा मानते हैं । चाहे वह शिला पैंतालीस लाख से दूनी नव्वे लाख कोश की होती तो भी वे मुक्त बन्धन में हैं क्योंकि उस शिला वा शिवपुर के बाहर निकलने से उन की मुक्ति छूट जाती होगी। और सदा उस में रहने की प्रीति और उस से बाहर जाने में अप्रीति भी रहती होगी। जहां अटकाव प्रीति और अप्रीति है उस को मुक्ति क्योंकर कह सकते हैं? मुक्ति तो जैसी नवमे समुल्लास में वर्णन कर आये हैं वैसी माननी ठीक है। और जैनियों की मुक्ति भी एक प्रकार का बन्धन है। ये जैनी भी मुक्ति विषय में भ्रम में फंसे हैं। यह सच है कि विना वेदों के यथार्थ अर्थबोध के मुक्ति के स्वरूप को कभी नहीं जान सकते।

जो उत्तमजन होगा वह इस असार जैनमत में कभी न रहेगा ।

अब और थोड़ी सी असम्भव बातें इन की सुनो-(विवेकसार पृष्ठ ७८) एक करोड़ साठ लाख कलशों से महावीर को जन्म समय में स्नान किया। (विवेक० पृष्ठ १३६) दशार्ण राजा महावीर के दर्शन को गया। वहां कुछ अभिमान किया। उस के निवारण के लिए १६,७७,७२,१६००० इतने इन्द्र के स्वरूप और १३,३७,०५,७२,८०,००,००,००० इतनी इन्द्राणी वहां आईं थीं। देख कर राजा आश्चर्य में हो गया।

(समीक्षक) अब विचारना चाहिये कि इन्द्र और इन्द्राणियों के खड़े रहने के लिये ऐसे-ऐसे कितने ही भूगोल चाहिये। श्राद्धदिनकृत्य आत्मनिन्दा भावना पृष्ठ ३१ में लिखा है कि बावड़ी, कुआ और तालाब न बनवाना चाहिये।

(समीक्षक) भला जो सब मनुष्य जैनमत में हो जायें और कुआ, तालाब, बावड़ी आदि कोई न बनवावें तो सब लोग जल कहां से पीयें?

(प्रश्न) तालाब आदि बनवाने से जीव पड़ते हैं। उस से बनवाने वाले को पाप लगता है। इसलिये हम जैनी लोग इस काम को नहीं करते।

(उत्तर) तुम्हारी बुद्धि नष्ट क्यों हो गई? क्योंकि जैसे क्षुद्र-क्षुद्र जीवों के मरने से पाप गिनते हो बड़े-बड़े गाय आदि पशु और मनुष्यादि प्राणियों के जल पीने आदि से महापुण्य होगा उस को क्यों नहीं गिनते? (तत्त्वविवेक पृष्ठ १९६) इस नगरी में एक नन्दमणिकार सेठ ने बावड़ी बनवाई। उस से धर्म भ्रष्ट होकर सोलह महारोग हुए। मर के उसी बावड़ी में मेडुका हुआ। महावीर के दर्शन से उस को जातिस्मरण हो गया। महावीर कहते हैं कि मेरा आना सुन कर वह पूर्व जन्म के धर्माचार्य्य जान वन्दना को आने लगा। मार्ग में श्रेणिक के घोड़े की टाप से मर कर शुभ ध्यान के योग से दर्दरांक नामक महर्द्धिक देवता हुआ। अवधिज्ञान से मुझ को यहां आया जान वन्दनापूर्वक ऋद्धि दिखाके गया।

(समीक्षक) इत्यादि विद्याविरुद्ध असम्भव मिथ्या बात के कहने वाले महावीर को सर्वोत्तम मानना महाभ्रान्ति की बात है। श्राद्धदिनकृत्य० पृष्ठ ३६ में लिखा है कि मृतकवस्त्र साधु ले लेवें।

(समीक्षक) देखिये! इन के साधु भी महाब्राह्मण के समान हो गये। वस्त्र तो साधु लेवें परन्तु मृतक के आभूषण कौन लेवे? बहुमूल्य होने से घर में रख लेते होंगे तो आप कौन हुए?

(रत्नसार पृष्ठ १०५) भूंजने, कूटने, पीसने, अन्न पकाने आदि में पाप होता है।

(समीक्षक) अब देखिये इन की विद्याहीनता! भला ये कर्म न किये जायें तो मनुष्यादि प्राणी कैसे जी सकें? और जैनी लोग भी पीड़ित होकर मर जायें। (रत्नसार पृष्ठ १०४) बगीचा लगाने से एक लक्ष पाप माली को लगता है।

(समीक्षक) जो माली को लक्ष पाप लगता है तो अनेक जीव पत्र, फल, फूल और छाया से आनन्दित होते हैं तो करोड़ों गुणा पुण्य भी होता ही है इस पर कुछ ध्यान भी न दिया यह कितना अन्धेर है? (तत्त्वविवेक पृष्ठ २०२) एक दिन लब्धि साधु भूल से वेश्या के घर में चला गया और धर्म से भिक्षा मांगी। वेश्या बोली कि यहां धर्म का काम नहीं किन्तु अर्थ का काम है तो उस लब्धि साधु ने साढ़े बारह लाख अशर्फी वर्षा उस के घर में कर दी।

(समीक्षक) इस बात को सत्य विना नष्टबुद्धि पुरुष के कौन मानेगा?

रत्नसार भाग १, पृष्ठ ६७ में लिखा है कि एक पाषाण की मूर्त्ति घोड़े पर चढ़ी हुई उस का जहां स्मरण करे वहां उपस्थित होकर रक्षा करती है।

(समीक्षक) कहो जैनी जी! आजकल तुम्हारे यहां चोरी, डाका आदि और शत्रु से भय होता ही है तो तुम उस का स्मरण करके अपनी रक्षा क्यों नहीं करा लेते हो? क्यों जहां तहां पुलिस आदि राजस्थानों में मारे-मारे फिरते हो? अब इन के साधुओं के लक्षण-

सरजोहरणा भैक्ष्यभुजो लुञ्चितमूर्द्धजा ।
श्वेताम्बरा क्षमाशीला नि संगा जैनसाधव ।।१।।

लुञ्चिता पिच्छिकाहस्ता पाणिपात्र दिगम्बरा ।
ऊर्ध्वाशिनो गृहे दातुर्द्वितीया स्युर्जिनर्षय ।।२।।

भुङ्क्ते न केवली न स्त्री मोक्षमेति दिगम्बर ।
प्राहुरेषामयं भेदो महान् श्वेताम्बरै सह।।३।।

जैन के साधुओं के लक्षणार्थ जिनदत्तसूरी ने ये श्लोकों से कहे हैं- सरजोहरण-चमरी रखना और भिक्षा मांग के खाना, शिर के बाल लुञ्चित कर देना, श्वेत वस्त्र धारण करना, क्षमायुक्त रहना, किसी का संग न करना, ऐसे लक्षणयुक्त जैनियों के श्वेताम्बर जिन को जती कहते हैं।।१।। दूसरे दिगम्बर अर्थात् वस्त्र धारण न करना, शिर के बाल उखाड़ डालना, पिच्छिका एक ऊन के सूतों का झाडू लगाने का साधन बगल में रखना, जो कोई भिक्षा दे तो हाथ में लेकर खा लेना, ये दिगम्बर दूसरे प्रकार के साधु होते हैं और भिक्षा देने वाला गृहस्थ जब भोजन कर चुके उस के पश्चात् भोजन करें वे जिनर्षि अर्थात् तीसरे प्रकार के साधु होते हैं।।२।। दिगम्बरों का श्वेताम्बरों के साथ इतना ही भेद है कि दिगम्बर लोग स्त्री का संसर्ग नहीं करते और श्वेताम्बर करते हैं, इत्यादि बातों से मोक्ष को प्राप्त होते हैं। यह इन के साधुओं का भेद है।।३।। इस से जैन लोगों का केशलुञ्चन सर्वत्र प्रसिद्ध है और पांच मुष्टि लुञ्चन करना इत्यादि भी लिखा है। विवेकसार भा० पृष्ठ २१६ में लिखा है कि पांच मुष्टि लुञ्चन कर चारित्र ग्रहण किया अर्थात् पांच मूठी सिर के बाल उखाड़ के साधु हुआ। (कल्पसूत्र भाष्य पृष्ठ १०८) केशलुञ्चन करे, गौ के बालों के तुल्य रक्खे।

(समीक्षक) अब कहिये जैन लोगो! तुम्हारा दया धर्म कहां रहा? क्या यह हिसा अर्थात् चाहें अपने हाथ से लुञ्चन करे चाहें उस का गुरु करे वा अन्य कोई परन्तु कितना बड़ा कष्ट उस जीव को होता होगा? जीव को कष्ट देना ही हिसा कहाती है। (विवेकसार पृष्ठ ७-८) संवत् १६३३ के साल में श्वेताम्बरों में से ढूंढिया और ढूंढ़ियों में से तेरहपन्थी आदि ढोंगी निकले हैं। ढूंढ़िये लोग पाषाणादि मूर्त्ति को नहीं मानते और वे भोजन स्नान को छोड़ सर्वदा मुख पर पट्टी बांधे रहते हेैं और जती आदि भी जब पुस्तक बांचते हैं तभी मुख पर पट्टी बांधते हैं अन्य समय नहीं।

(प्रश्न) मुख पर पट्टी अवश्य बांधनी चाहिये क्योंकि ‘वायुकाय’ अर्थात् जो वायु में सूक्ष्म शरीर वाले जीव रहते हैं वे मुख के भाफ की उष्णता से मरते हैं और उस का पाप मुख पर पट्टी न बांधने वाले पर होता है इसीलिये हम लोग मुख पर पट्टी बांधना अच्छा समझते हैं।

(उत्तर) यह बात विद्या और प्रत्यक्षादि प्रमाणादि की रीति से अयुक्त है। क्योंकि जीव अजर, अमर हैं फिर वे मुख की भाफ से कभी नहीं मर सकते। इन को तुम भी अजर, अमर मानते हो।

(प्रश्न) जीव तो नहीं मरता परन्तु जो मुख के उष्ण वायु से उन को पीड़ा पहुँचती है। उस पीड़ा पहँुचाने वाले को पाप होता है । इसीलिये मुख पर पट्टी बांधना अच्छा है।

(उत्तर) यह भी तुम्हारी बात सर्वथा असम्भव है, क्योंकि पीड़ा दिये विना किसी जीव का किञ्चित् भी निर्वाह नहीं हो सकता। जब मुख के वायु से तुम्हारे मत में जीवों को पीड़ा पहुँचती है तो चलने, फिरने, बैठने, हाथ उठाने और नेत्रदि के चलाने में भी पीड़ा अवश्य पहुँचती होगी। इसलिये तुम भी जीवों को पीड़ा पहुँचाने से पृथक् नहीं रह सकते।

(प्रश्न) हां! जब तक बन सके वहां तक जीवों की रक्षा करनी चाहिये और जहां हम नहीं बचा सकते वहां अशक्त हैं, क्योंकि सब वायु आदि पदार्थों में जीव भरे हुए हैं। जो हम मुख पर कपड़ा न बांधें तो बहुत जीव मरें; कपड़ा बांधने से न्यून मरते हैं।

(उत्तर) यह भी तुम्हारा कथन युक्तिशून्य है क्योंकि कपड़ा बांधने से जीवों को अधिक दुःख पहुंचता है। जब कोई मुख पर कपड़ा बांधे तो उस का मुख का वायु रुक के नीचे वा पार्श्व और मौन समय में नासिका द्वारा इकट्ठा होकर वेग से निकलता है, उस से उष्णता अधिक होकर जीवों को विशेष पीड़ा तुम्हारे मतानुसार पहुँचती होगी। देखो! जैसे घर वा कोठरी के सब दरवाजे बंध किये वा पड़दे डाले जायें तो उस में उष्णता विशेष होती है। खुला रखने से उतनी नहीं होती। वैसे मुख पर कपड़ा बांधने से उष्णता अधिक होती है और खुला रखने से न्यून। वैसे तुम अपने मतानुसार जीवों को अधिक दुःखदायक हो। और जब मुख बन्ध किया जाता है तब नासिका के छिद्रों से वायु रुक इकट्ठा होकर वेग से निकलता हुआ जीवों को अधिक धक्का और पीड़ा करता होगा। देखो! जैसे कोई मनुष्य अग्नि को मुख से फूंकता और कोई नली से तो मुख का वायु फैलने से कम बल और नली का वायु इकट्ठा होने से अधिक बल से अग्नि में लगता है। वैसे ही मुख पर पट्टी बांध कर वायु को रोकने से नासिका द्वारा अति वेग से निकल कर जीवों को अधिक दुःख देता है। इस से मुख पर पट्टी बांधने वालों से नहीं बांधने वाले धर्मात्मा हैं। और मुख पर पट्टी बांधने से अक्षरों का यथायोग्य स्थान, प्रयत्न के साथ उच्चारण भी नहीं होता। निरनुनासिक अक्षरों को सानुनासिक बोलने से तुम को दोष लगता है। तथा मुख पर पट्टी बांधने से दुर्गन्ध भी अधिक बढ़ता है क्योंकि शरीर के भीतर दुर्गन्ध भरा है। शरीर से जितना वायु निकलता है वह दुर्गन्धयुक्त प्रत्यक्ष है, जो वह रोका जाये तो दुर्गन्ध भी अधिक बढ़ जाय जैसा कि बंध ‘जाजरूर’ अधिक दुर्गन्धयुक्त और खुला हुआ न्यून दुर्गन्धयुक्त होता है, वैसे ही मुखपट्टी बांधने, दन्तधावन, मुखप्रक्षालन और स्नान न करने तथा वस्त्र न धोने से तुम्हारे शरीरों से अधिक दुर्गन्ध उत्पन्न होकर संसार में बहुत रोग करके जीवों को जितनी पीड़ा पहुंचाते हैं उतना पाप तुम को अधिक होता है। जैसे मेले आदि में अधिक दुर्गन्ध होने से ‘विसूचिका’ अर्थात् हैजा आदि बहुत प्रकार के रोग उत्पन्न होकर जीवों को दुःखदायक होते हैं और न्यून दुर्गन्ध होने से रोग भी न्यून होकर जीवों को बहुत दुःख नहीं पहुंचता। इस से तुम अधिक दुर्गन्ध बढ़ाने में अधिक अपराधी और जो मुख पट्टी नहीं बांधते; दन्तधावन, मुखप्रक्षालन, स्नान करके स्थान, वस्त्रें को शुद्ध रखते हैं वे तुम से बहुत अच्छे हैं। जैसे अन्त्यजों की दुर्गन्ध के सहवास से पृथक् रहने वाले बहुत अच्छे हैं। जैसे अन्त्यजों की दुर्गन्ध के सहवास से निर्मल बुद्धि नहीं होती, वैसे तुम और तुम्हारे संगियों की भी बुद्धि नहीं बढ़ती। जैसे रोग की अधिकता और बुद्धि के स्वल्प होने से धर्मानुष्ठान की बाधा होती है वैसे ही दुर्गन्धयुक्त तुम्हारा और तुम्हारे संगियों का भी वर्त्तमान होता होगा।

(प्रश्न) जैसे बन्ध मकान में जलाये हुए अग्नि की ज्वाला बाहर निकल के बाहर के जीवों को दुःख नहीं पहुंचा सकती। वैसे हम मुखपट्टी बांध के वायु को रोक कर बाहर के जीवों को न्यून दुःख पहुचाने वाले हैं। मुखपट्टी बांधने से बाहर के वायु के जीवों को पीड़ा नहीं पहुंचती, और जैसे सामने अग्नि जलाता है उसको आड़ा हाथ देने से कम लगती है और वायु के जीव शरीर वाले होने से उनको पीड़ा अवश्य पहुंचती है।

(उत्तर) यह तुम्हारी बात लड़कपन की है। प्रथम तो देखो जहां छिद्र और भीतर के वायु का योग बाहर के वायु के साथ न हो तो वहाँ अग्नि जल ही नहीं सकता। जो इस को प्रत्यक्ष देखना चाहो तो किसी फानूस में दीप जलाकर सब छिद्र बन्ध करके देखो तो दीप उसी समय बुझ जायेगा। जैसे पृथिवी पर रहने वाले मनुष्यादि प्राणी बाहर के वायु के योग के विना नहीं जी सकते, वैसे अग्नि भी नहीं जल सकता। जब एक ओर से अग्नि का वेग रोका जाय तो दूसरी ओर अधिक वेग से निकलेगा। और हाथ की आड़ करने से मुख पर आंच न्यून लगती है परन्तु वह आंच हाथ पर अधिक लग रही है इसलिये तुम्हारी बात ठीक नहीं।

(प्रश्न) इस को सब कोई जानता है कि जब किसी बड़े मनुष्य से छोटा मनुष्य कान में वा निकट होकर बात कहता है तब मुख पर पल्ला वा हाथ लगाता है। इसलिये कि मुख से थूक उड़ कर वा दुर्गन्ध उस को न लगे और जब पुस्तक बांचता है तब अवश्य थूक उड़ कर उस पर गिरने से उच्छिष्ट होकर बिगड़ जाता है इसलिये मुख पर पट्टी का बांधना अच्छा है।

(उत्तर) इस से यह सिद्ध हुआ कि जीवरक्षार्थ मुखपट्टी बांधना व्यर्थ है। और जब कोई बड़े मनुष्य से बात करता है तब मुख पर हाथ वा पल्ला इसलिये रखता है कि उस गुप्त बात को दूसरा कोई न सुन लेवे। क्योंकि जब कोई प्रसिद्ध बात करता है तब कोई भी मुख पर हाथ वा पल्ला नहीं धरता। इस से क्या विदित होता है कि गुप्त बात के लिये यह बात है। दन्तधावनादि न करने से तुम्हारे मुखादि अवयवों से अत्यन्त दुर्गन्ध निकलता है और जब तुम किसी के पास वा कोई तुम्हारे पास बैठता होगा तो विना दुर्गन्ध के अन्य क्या आता होगा? इत्यादि मुख के आड़ा हाथ वा पल्ला देने के प्रयोजन अन्य बहुत हैं। जैसे बहुत मनुष्यों के सामने गुप्त बात करने में जो हाथ वा पल्ला न लगाया जाय तो दूसरों की ओर वायु के फैलने से बात भी फैल जाय। जब वे दोनों एकान्त में बात करते हैं तब मुख पर हाथ वा पल्ला इसलिये नहीं लगाते कि यहां तीसरा कोई सुनने वाला नहीं। जो बड़ों ही के ऊपर थूक न गिरे इस से क्या छोटों के ऊपर थूक गिराना चाहिये? और उस थूक से बच भी नहीं सकता क्योंकि हम दूरस्थ बात करें और वायु हमारी ओर से दूसरे की ओर जाता हो तो सूक्ष्म होकर उस के शरीर पर वायु के साथ त्रसरेणु अवश्य गिरेंगे। उस का दोष गिनना अविद्या की बात है। क्योंकि जो मुख की उष्णता से जीव मरते वा उन को पीड़ा पहुंचती हो तो वैशाख वा ज्येष्ठ महीने में सूर्य्य की महा उष्णता से वायुकाय के जीवों में से मरे विना एक भी न बच सके। सो उस उष्णता से भी वे जीव नहीं मर सकते। इसलिये यह तुम्हारा सिद्धान्त झूठा है, क्योंकि जो तुम्हारे तीर्थंकर भी पूर्ण विद्वान् होते तो ऐसी व्यर्थ बातें क्यों करते? देखो! पीड़ा उसी जीव को पहुंचती है जिस की वृत्ति सब अवयवों के साथ विद्यमान हो।

इस में प्रमाण- पञ्चावयवयोगात्सुखसंवित्ति ।। - यह सांख्यशास्त्र का सूत्र है।

जब पांचों इन्द्रियों का पांच विषयों के साथ सम्बन्ध होता है तभी सुख वा दु ख की प्राप्ति जीव को होती है। जैसे बधिर को गाली प्रदान, अन्धे को रूप वा आगे से सर्प्प व्याघ्रादि भयदायक जीवों का चला जाना, शून्य बहिरी वालों को स्पर्श, पिन्नस रोग वाले को गन्ध और शून्य जिह्वा वाले को रस प्राप्त नहीं हो सकता, इसी प्रकार उन जीवों की भी व्यवस्था है। देखो! जब मनुष्य का जीव सुषप्ति दशा में रहता है तब उस की सुख वा दुःख की प्राप्ति कुछ भी नहीं होती, क्योंकि वह शरीर के भीतर तो है परन्तु उस का बाहर के अवयवों के साथ उस समय सम्बन्ध न रहने से सुख दुःख की प्राप्ति नहीं कर सकता। और जैसे वैद्य वा आजकल के डॉक्टर लोग नशे की वस्तु खिला वा सुंघा के रोगी पुरुष के शरीर के अवयवों को काटते वा चीरते हैं उस को उस समय कुछ भी दुःख विदित नहीं होता। वैसे वायुकाय अथवा अन्य स्थावर शरीर वाले जीवों को सुख वा दु ख प्राप्त कभी नहीं हो सकता। जैसे मूर्छित प्राणी सुख दु ख को प्राप्त कभी नहीं हो सकता वैसे वे वायुकायादि के जीव भी अत्यन्त मूर्छित होने से सुख दु ख को प्राप्त नहीं हो सकते। फिर इन को पीड़ा से बचाने की बात सिद्ध कैसे हो सकती है? जब उन को सुख, दुःख की प्राप्ति प्रत्यक्ष नहीं होती तो अनुमानादि यहां कैसे युक्त हो सकते हैं।

(प्रश्न) जब वे जीव हैं तो उन को सुख, दुःख क्यों नहीं होता होगा?

(उत्तर) सुनो भोले भाइयो! जब तुम सुषुप्ति में होते हो तब तुम को सुख, दुःख प्राप्त क्यों नहीं होते? सुख, दुःख की प्राप्ति का हेतु प्रसिद्ध सम्बन्ध है। अभी हम इस का उत्तर दे आये हैं कि नशा सुंघा के डाॅक्टर लोग अंगों को चीरते, फाड़ते और काटते हैं। जैसे उन को दुःख विदित नहीं होता इसी प्रकार अतिमूर्छित जीवों को सुख, दुःख क्योंकर प्राप्त होवें? क्योंकि वहां प्राप्ति होने का साधन कोई भी नहीं।

(प्रश्न) देखो! निलोति अर्थात् जितने हरे शाक, पात और कन्दमूल हैं उन को हम लोग नहीं खाते क्योंकि निलोति में बहुत और कन्दमूल में अनन्त जीव हैं। जो हम इन को खावें तो उन जीवों को मारने और पीड़ा पहुंचाने से हम लोग पापी हो जावें।

(उत्तर) यह तुम्हारी बड़ी अविद्या की बात है क्योंकि हरित शाक के खाने में जीव का मरना उन को पीड़ा पहुंचनी क्योंकर मानते हो? भला जब तुम को पीड़ा प्राप्त होती प्रत्यक्ष नहीं दीखती और जो दीखती है तो हम को भी दिखलाओ। तुम कभी न प्रत्यक्ष देख वा हम को दिखा सकोगे। जब प्रत्यक्ष नहीं तो अनुमान, उपमान और शब्दप्रमाण भी कभी नहीं घट सकता। फिर जो हम ऊपर उत्तर दे आये हैं वह इस बात का भी उत्तर है-क्योंकि जो अत्यन्त अन्धकार महासुषुप्ति और महानशा में जीव हैं इन को सुख दु ख की प्राप्ति मानना तुम्हारे तीर्थंकरों की भी भूल विदित होती है; जिन्होंने तुम को ऐसी युक्ति और विद्याविरुद्ध उपदेश किया है। भला! जब घर का अन्त है तो उस में रहने वाले अनन्त क्योंकर हो सकते हैं? जब कन्द का अन्त हम देखते हैं तो उस में रहने वाले जीवों का अन्त क्यों नहीं? इस से यह तुम्हारी बात बड़ी भूल की है।

(प्रश्न) देखो! तुम लोग विना उष्ण किये कच्चा पानी पीते हो वह बड़ा पाप करते हो। जैसे हम उष्ण पानी पीते हैं वैसे तुम लोग भी पिया करो।

(उत्तर) यह भी तुम्हारी बात भ्रमजाल की है क्योंकि जब तुम पानी को उष्ण करते हो तब पानी के जीव सब मरते होंगे । और उन का शरीर भी जल में रंधकर वह पानी सोंफ के अर्क के तुल्य होने से जानो तुम उन के शरीरों का ‘तेजाब’ पीते हो, इस में तुम बड़े पापी हो। और जो ठण्डा जल पीते हैं वे नहीं क्योंकि जब ठण्डा पानी पियेंगे तब उदर में जाने से किञ्चित् उष्णता पाकर श्वास के साथ वे जीव बाहर निकल जायेंगे। जलकाय जीवों को सुख, दुःख प्राप्त पूर्वोक्त रीति से नहीं हो सकता पुनः इस में पाप किसी को नहीं होगा।

अधिक जानकारी के लिये सम्पर्क करें -

क्षेत्रीय कार्यालय (रायपुर)
आर्य समाज संस्कार केन्द्र
अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट रायपुर शाखा
वण्डरलैण्ड वाटरपार्क के सामने, DW-4, इन्द्रप्रस्थ कॉलोनी
होण्डा शोरूम के पास, रिंग रोड नं.-1, रायपुर (छत्तीसगढ़) 
हेल्पलाइन : 9109372521
www.aryasamajonline.co.in 

 

राष्ट्रीय प्रशासनिक मुख्यालय
अखिल भारत आर्य समाज ट्रस्ट
आर्य समाज मन्दिर अन्नपूर्णा इन्दौर
नरेन्द्र तिवारी मार्ग, बैंक ऑफ़ इण्डिया के पास, दशहरा मैदान के सामने
अन्नपूर्णा, इंदौर (मध्य प्रदेश) 452009
दूरभाष : 0731-2489383, 8989738486, 9302101186
www.allindiaaryasamaj.com 

---------------------------------------

Regional Office (Raipur)
Arya Samaj Sanskar Kendra
Akhil Bharat Arya Samaj Trust Raipur Branch
Opposite Wondland Water Park
DW-4, Indraprastha Colony, Ring Road No.-1
Raipur (Chhattisgarh) 492010
Helpline No.: 9109372521
www.aryasamajonline.co.in 

 

National Administrative Office
Akhil Bharat Arya Samaj Trust
Arya Samaj Mandir Annapurna Indore
Narendra Tiwari Marg, Near Bank of India
Opp. Dussehra Maidan, Annapurna
Indore (M.P.) 452009
Tel. : 0731-2489383, 8989738486, 9302101186
www.allindiaaryasamaj.com 

 

When someone talks to a big man, then he puts his hand or foot on the face so that no one else should listen to that secret thing. Because when someone talks famously, then no one puts a hand on the face. What is known by this is that this is a matter for secret matter. Failure of toothpaste does not cause any bad odor from your main ingredients, and when you are sitting next to someone or someone else, what other non-smelling odor will come? Etc., there are many other purposes for giving hand to hand or palla.

 

 

Twelfth Chapter Part - 5 of Satyarth Prakash (the Light of Truth) | Arya Samaj Raipur | Arya Samaj Mandir Raipur | Arya Samaj Mandir Marriage Helpline Raipur | Aryasamaj Mandir Helpline Raipur | inter caste marriage Helpline Raipur | inter caste marriage promotion for prevent of untouchability in Raipur | Arya Samaj Raipur | Arya Samaj Mandir Raipur | arya samaj marriage Raipur | arya samaj marriage rules Raipur | inter caste marriage promotion for national unity by Arya Samaj Raipur | human rights in Raipur | human rights to marriage in Raipur | Arya Samaj Marriage Guidelines Raipur | inter caste marriage consultants in Raipur | court marriage consultants in Raipur | Arya Samaj Mandir marriage consultants in Raipur | arya samaj marriage certificate Raipur | Procedure of Arya Samaj Marriage Raipur | arya samaj marriage registration Raipur | arya samaj marriage documents Raipur | Procedure of Arya Samaj Wedding Raipur | arya samaj intercaste marriage Raipur | arya samaj wedding Raipur | arya samaj wedding rituals Raipur | arya samaj wedding legal Raipur | arya samaj shaadi Raipur | arya samaj mandir shaadi Raipur | arya samaj shadi procedure Raipur | arya samaj mandir shadi valid Raipur | arya samaj mandir shadi Raipur | inter caste marriage Raipur | validity of arya samaj marriage certificate Raipur | validity of arya samaj marriage Raipur | Arya Samaj Marriage Ceremony Raipur | Arya Samaj Wedding Ceremony Raipur | Documents required for Arya Samaj marriage Raipur | Arya Samaj Legal marriage service Raipur | Arya Samaj Pandits Helpline Raipur | Arya Samaj Pandits Raipur | Arya Samaj Pandits for marriage Raipur | Arya Samaj Temple Raipur | Arya Samaj Pandits for Havan Raipur | Arya Samaj Pandits for Pooja Raipur | Pandits for marriage Raipur | Pandits for Pooja Raipur | Arya Samaj Pandits for vastu shanti havan | Vastu Correction without Demolition Raipur | Arya Samaj Pandits for Gayatri Havan Raipur | Vedic Pandits Helpline Raipur | Hindu Pandits Helpline Raipur | Pandit Ji Raipur, Arya Samaj Intercast Matrimony Raipur | Arya Samaj Hindu Temple Raipur | Hindu Matrimony Raipur | सत्यार्थप्रकाश | वेद | महर्षि दयानन्द सरस्वती | विवाह समारोह, हवन | आर्य समाज पंडित | आर्य समाजी पंडित | अस्पृश्यता निवारणार्थ अन्तरजातीय विवाह | आर्य समाज मन्दिर | आर्य समाज मन्दिर विवाह | वास्तु शान्ति हवन | आर्य समाज मन्दिर आर्य समाज विवाह भारत | Arya Samaj Mandir Marriage Raipur Chhattisgarh India

  • महर्षि दयानन्द की मानवीय संवेदना

    महर्षि दयानन्द की मानवीय संवेदना महर्षि स्वामी दयानन्द अपने करुणापूर्ण चित्त से प्रेरित होकर गुरुदेव की आज्ञा लेकर देश का भ्रमण करने निकल पड़े। तथाकथित ब्राह्मणों का समाज में वर्चस्व था। सती प्रथा के नाम पर महिलाओं को जिन्दा जलाया जा रहा था। स्त्रियों को पढने का अधिकार नहीं था। बालविवाह, नारी-शिक्षा,...

    Read More ...

all india arya samaj marriage place
pandit requirement
Copyright © 2022. All Rights Reserved. aryasamajraipur.com